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भारत से हजारों किलोमीटर दूर लड़ा गया इजरायल और अरब देशों का युद्ध कैसे बना इमरजेंसी का कारण?

जनता जनार्दन , Jun 25, 2025, 17:10 pm IST
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भारत से हजारों किलोमीटर दूर लड़ा गया इजरायल और अरब देशों का युद्ध कैसे बना इमरजेंसी का कारण?

भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में कुछ तारीखें ऐसी होती हैं जो सिर्फ घटनाओं के तौर पर दर्ज नहीं होतीं, बल्कि एक पूरी पीढ़ी की चेतना में हमेशा के लिए जगह बना लेती हैं. 25 जून 1975 ऐसी ही एक तारीख थी—जिस रात भारत की जनता को बिना बताए उनकी आज़ादी पर ताले जड़ दिए गए.

भारत यात्रा गाइड

आधी रात को लगाए गए ‘आपातकाल’ का असर केवल उस वक्त की राजनीति पर नहीं पड़ा, बल्कि यह हमारे संविधान, संस्थाओं और नागरिक अधिकारों की बुनियाद को झकझोर देने वाला क्षण था. अब जब इस घटना को पचास साल पूरे हो चुके हैं, यह वक्त सिर्फ पीछे मुड़कर देखने का नहीं है, बल्कि यह सोचने का भी है कि ऐसी स्थिति क्यों और कैसे पैदा हुई.

जब संकट चारों तरफ से घिर आया

इस पूरी घटना की शुरुआत दरअसल उस समय के व्यापक वैश्विक और घरेलू संकटों से हुई. साल 1973 में जब इज़रायल और अरब देशों के बीच 'योम किप्पुर युद्ध' छिड़ा, तो भारत भले युद्ध का हिस्सा नहीं था, लेकिन असर सीधा आम आदमी पर पड़ा. इस युद्ध ने दुनिया में तेल की कीमतों को बेतहाशा बढ़ा दिया और भारत, जो अपनी ऊर्जा ज़रूरतों के लिए पूरी तरह आयात पर निर्भर था, अचानक एक आर्थिक आपदा में फंस गया.

तेल की कीमतों में उछाल ने देश में महंगाई की आग भड़का दी. पेट्रोल से लेकर बिजली और बस किराया तक—हर चीज़ आम जनता की पहुंच से बाहर होती जा रही थी. नतीजा यह हुआ कि युवाओं और छात्रों में असंतोष पनपने लगा. इस असंतोष ने सबसे पहले गुजरात में आकार लिया, जहां 1974 में ‘नव निर्माण आंदोलन’ की शुरुआत हुई. आंदोलन इतना व्यापक हुआ कि राज्य के मुख्यमंत्री को इस्तीफा देना पड़ा.

गुजरात की आग बुझी भी नहीं थी कि बिहार में छात्र आंदोलन ने ज़ोर पकड़ लिया. पटना की सड़कों पर हजारों छात्र मंहगाई और भ्रष्टाचार के खिलाफ उतर आए और देखते ही देखते यह एक बड़ा जनांदोलन बन गया.

जेपी का प्रवेश और ‘संपूर्ण क्रांति’ की पुकार

छात्र आंदोलनों को दिशा मिली तब, जब स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और गांधीवादी नेता जयप्रकाश नारायण, यानी जेपी, सामने आए. उन्होंने 5 जून 1974 को पटना के गांधी मैदान से ‘संपूर्ण क्रांति’ का आह्वान किया. जेपी का आंदोलन केवल महंगाई और भ्रष्टाचार के खिलाफ नहीं था, वह एक नई व्यवस्था की मांग थी—राजनीति, प्रशासन, शिक्षा, समाज—हर जगह बदलाव की पुकार थी.

जेपी आंदोलन ने जनता, छात्रों, युवाओं, बुद्धिजीवियों और विपक्षी दलों को एकजुट कर दिया. यह आंदोलन इंदिरा गांधी सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन चुका था.

वो एक झटका, जिसने इमरजेंसी की पटकथा पूरी कर दी

हालात और भी गंभीर तब हो गए जब 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध करार दिया और उन्हें छह साल तक चुनाव लड़ने से अयोग्य घोषित कर दिया. यह फैसला उस समय के सत्ताधारी ढांचे के लिए एक करारा झटका था.

जेपी ने सेना और पुलिस से “अन्यायपूर्ण आदेशों का पालन न करने” की अपील कर डाली. यह एक ऐसा क्षण था, जब सियासी लड़ाई सत्ता की बुनियाद तक पहुंच गई थी. खतरा साफ था, और इंदिरा गांधी ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए संविधान के सबसे कठोर प्रावधान का सहारा लिया. 25 जून 1975 की रात राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के दस्तखत के साथ आपातकाल घोषित कर दिया गया. भारत के लोकतंत्र पर पर्दा गिरा दिया गया.

इमरजेंसी: एक सत्ता निर्णय या एक समय की मजबूरी?

आपातकाल के पीछे सिर्फ सत्ता का मोह नहीं था, बल्कि एक जटिल परिस्थितियों का संगम भी था—अर्थव्यवस्था का चरमराना, वैश्विक दबाव, विपक्ष का आक्रामक होना और खुद इंदिरा गांधी का संकटों से जूझता नेतृत्व. पर यह तर्क, उस रात जब नागरिकों की अभिव्यक्ति, मीडिया की स्वतंत्रता और संस्थानों की निष्पक्षता को कुचल दिया गया—उन अधिकारों की हत्या को सही नहीं ठहरा सकता.

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पचास साल बाद, सबक अभी बाकी हैं

आज जब हम इस ऐतिहासिक घटना की पचासवीं वर्षगांठ पर खड़े हैं, तो यह महज़ अतीत की एक काली तारीख को याद करना नहीं है. यह खुद से यह सवाल करने का समय है—क्या हम अब उस लोकतांत्रिक चेतना के प्रति ज्यादा संवेदनशील हुए हैं? क्या हमारी संस्थाएं अब अधिक स्वतंत्र और जवाबदेह हैं?

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