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बनना चाहते थे साधु फिर कैसे बन गए बाहुबली? जानें अनंत सिंह की कहानी

जनता जनार्दन संवाददाता , Nov 02, 2025, 11:29 am IST
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बनना चाहते थे साधु फिर कैसे बन गए बाहुबली? जानें अनंत सिंह की कहानी

बिहार की राजनीति में “बाहुबली” नाम सुनते ही जो चेहरा सबसे पहले याद आता है, वह है अनंत सिंह का, एक ऐसा नाम जो कभी राजनीति के गलियारों में ताकत, असर और विवाद का प्रतीक बन गया. लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि अनंत सिंह का शुरुआती जीवन बिल्कुल अलग था, एक ऐसा बालक जो साधु बनने के लिए घर छोड़ हरिद्वार चला गया था.

उनका जीवन वैराग्य, बदला और सत्ता तीनों से होकर गुज़रा है.

धर्म और वैराग्य की ओर झुकाव

5 जनवरी 1967 को पटना जिले के बाढ़ अनुमंडल के नदवां गांव में जन्मे अनंत सिंह चार भाइयों में सबसे छोटे थे. बचपन में उनका मन न पढ़ाई में लगता था, न खेल में बल्कि पूजा-पाठ और भक्ति में उनका गहरा रुझान था. चौथी कक्षा के बाद उन्होंने स्कूल छोड़ दिया.

परिवार वालों के विरोध के बावजूद, मात्र 9 साल की उम्र में अनंत घर छोड़कर हरिद्वार चले गए. वहां उन्होंने साधु-संतों के बीच रहकर सेवा की, मंदिरों में सफाई और भंडारे में काम करते हुए कई महीने बिताए.

संन्यास की दुनिया से मोहभंग

हरिद्वार में रहते हुए अनंत को ऐसा लगा कि उन्होंने अपनी मंज़िल पा ली है. लेकिन एक दिन कुछ साधुओं के बीच हुए हिंसक झगड़े ने उनकी सोच को पूरी तरह झकझोर दिया. जिस स्थान को उन्होंने “शांति और वैराग्य” का प्रतीक समझा था, वहां उन्होंने लालच और हिंसा का चेहरा देखा.

यही वह पल था जब 10 साल के बालक अनंत का वैराग्य टूट गया. उन्होंने समझ लिया कि इस दुनिया से भागकर शांति नहीं मिलती उसे संघर्ष से हासिल करना पड़ता है. वे हरिद्वार छोड़कर वापस अपने गांव नदवां लौट आए.

भाई की हत्या ने बदला जीवन का रास्ता

गांव लौटने के कुछ समय बाद उनके जीवन में एक दर्दनाक मोड़ आया. एक दोपहर खाना खाते हुए उन्हें खबर मिली कि उनके बड़े भाई बिराची सिंह की गांव के चौक पर गोली मारकर हत्या कर दी गई है.

बिराची सिंह उस समय इलाके के प्रभावशाली ज़मींदारों में गिने जाते थे. यह वह दौर था जब बिहार के ग्रामीण इलाकों में माओवादी (नक्सली) आंदोलन अपने चरम पर था. ज़मींदारों और उग्रवादियों के बीच खूनी टकराव आम बात थी.

जब अनंत को पता चला कि उनके भाई की हत्या माओवादी संगठन के स्थानीय नेता ने करवाई है, तो उनका धैर्य जवाब दे गया. परिवार ने उन्हें पुलिस में शिकायत करने की सलाह दी, लेकिन महीनों बीत जाने पर भी कोई कार्रवाई नहीं हुई.

‘खुद इंसाफ’ का फैसला किया

लेखक राजेश सिंह ने अपनी किताब “Bahubalis of Indian Politics” में अनंत सिंह की इस घटना का विस्तार से उल्लेख किया है.

किताब के अनुसार, न्याय न मिलने पर अनंत ने खुद हत्यारे को सज़ा देने की ठानी. एक रात उन्हें सूचना मिली कि हत्यारा गंगा पार के जंगल में छिपा है. उनके साथी ने कहा कि न हथियार हैं, न नाव लेकिन अनंत ने किसी की नहीं सुनी.

वे गंगा नदी में छलांग लगाकर तैरते हुए उस पार पहुंच गए. घंटों की मशक्कत के बाद जब वे हत्यारे तक पहुंचे, तो उनके पास कोई हथियार नहीं था. उन्होंने पत्थर उठाया और उसी से हमला कर दिया. पहले उसे बेहोश किया और फिर सिर पर जोरदार वार कर उसकी जान ले ली. रात के अंधेरे में खून से सने हाथों के साथ अनंत सिंह गंगा पार करके अपने गांव लौटे.

निडर और अपनों का बदला लेने वाला

भाई की मौत का बदला लेने के बाद अनंत सिंह गांव और आसपास के इलाकों में चर्चा का विषय बन गए. लोगों ने उन्हें “निडर” और “अपनों का बदला लेने वाला” कहा. उनकी छवि धीरे-धीरे “संरक्षक” से “सत्ता के प्रतीक” में बदलने लगी.

वक़्त के साथ उन्होंने अपने प्रभाव को राजनीतिक रूप से भी इस्तेमाल किया. स्थानीय नेताओं से संबंध बने, और 1990 के दशक में वे बाढ़ और मोकामा क्षेत्र में अपना असर जमाने लगे.

राजनीति में प्रवेश और विवादों का सिलसिला

अनंत सिंह का राजनीतिक करियर राष्ट्रीय जनता दल (RJD) से शुरू हुआ. उन्होंने 2005 में मोकामा विधानसभा सीट से चुनाव लड़ा और जीत हासिल की. धीरे-धीरे उन्होंने खुद को बिहार की राजनीति के “मजबूत चेहरों” में शामिल कर लिया.

हालांकि उनका नाम कई आपराधिक मामलों में भी जुड़ता चला गया, जिनमें हत्या, रंगदारी, और धमकी जैसे गंभीर आरोप शामिल रहे. कई बार जेल गए, लेकिन हर बार चुनाव जीतकर या कानूनी रास्तों से वापसी करते रहे.

लोग उन्हें “छोटे सरकार” के नाम से जानने लगे, जो बिहार के बाहुबलियों के दौर में एक आम उपनाम था.

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