उत्तर प्रदेश चुनाव में बदलते राजनीतिक मुद्दे

उत्तर प्रदेश चुनाव में बदलते राजनीतिक मुद्दे
विगत 3 अक्टूबर को लखीमपुर में घटित जघन्यतम घटना के पश्चात् राजनीतिक घटनाक्रम एवं नैरेटिव बहुत तेजी से बदल रहा है, जिसकी गूँज 2022 में प्रस्तावित उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड एवं पंजाब के चुनाव में अवश्य सुनाई देगी. जातिगत एवं धर्मगत ध्रुवीकरण के मुद्दे पिछले 30 वर्षों में पहली बार असफल होते दिखाई दे रहे हैं. और इसकी जगह महंगाई, बेरोजगारी, कोरोना जनित आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक समस्याएं एवं किसान आन्दोलन ने वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में नैरेटिव गढ़ना शुरू कर दिया है. छः महीने पहले तक असंभव सी दिखने वाली विपक्षी राजनीति सत्ता पक्ष के साथ टकराने की मुद्रा में आ गयी है. परन्तु इसका श्रेय विपक्षी दलों को उनकी संघर्ष क्षमता के कारण नहीं, वरन किसानों द्वारा लगातार चलाये जा रहे सत्ता विरोधी आन्दोलन को जाता है. इस पूरे संघर्ष में लखीमपुर हत्याकांड ने आग में घी का काम किया है. हरियाणा, पंजाब, दिल्ली और पश्चिम उत्तर प्रदेश से फैलता हुआ यह आन्दोलन आज मध्य और पूर्वी उत्तर प्रदेश की ओर बढ़ चला है. सत्ता पक्ष पहली बार रक्षात्मक मुद्रा में नज़र आने लगी है. 
     
शहीद किसानों की याद में 12 अक्टूबर को आयोजित अंतिम अरदास में किसी भी दल के नेता को मंच पर स्थान नहीं दिया गया. पिछले 11 महीने से जारी आन्दोलन में भी किसी राजनीतिक नेता को मंच पर स्थान नहीं दिया गया है. यह इस बात का साफ़ सन्देश है कि किसानों की लड़ाई अब किसान खुद लड़ेंगे और ‘सतही राजनीतिक सहयोग’ से परहेज करेंगें, जब तक कि राजनीतिक दल ईमानदारी से अपने एजेंडे में कृषि सुधार सम्बन्धी संकल्प नहीं लेते हैं. संभवतः स्वतंत्र भारत में यह आन्दोलन एक नवीन लोकतांत्रिक युग की सूत्रपात करने की स्थिति में आ गया है, बशर्ते कि विभिन्न राजनीतिक दल इस बात को समझ सके. आज कोई भी दल इस हैसियत में नहीं है कि एक आहवान पर बड़ी संख्या में लोगों को इकट्ठा कर सकें. यह इस बात का द्योतक है कि राजनीतिक दलों पर से लोगों का विश्वास कम हुआ है. मोदी ने प्रारंभ में एक उम्मीद भरी आशा भी जगाई थी, परन्तु सात साल से ज्यादा के कार्यकाल में न सिर्फ संभावनाएं ख़त्म हुई हैं, वरन प्राथमिकताएं हीं बदल चुकी हैं. निजीकरण और विनिवेशीकरण के वशीभूत वर्तमान सरकार पूरे ‘आर्थिकी, संरचना और परिवेश’ को बदल देना चाहती है. उसे इस बात की परवाह नहीं है कि क्या भारतीय समाज इतने दुत्र गति से हो रहे आर्थिक बदलाव को आसानी से स्वीकार कर लेगा? और फिर विकास का मतलब सिर्फ निजीकरण हीं नहीं होता है. यथोचित स्वीकार्य वातावरण निर्माण के साथ परिवर्तनगामी परिस्थितियों के लिए जनमानस को तैयार करना सबसे ज्यादा जरूरी होता है. प्रारंभ में जनता ने विमुद्रीकरण और जीएसटी के द्वारा लाये जा रहे बदलाव को काफी सकारात्मक तरीके से लिया, परन्तु बाद के वर्षों में इन परिवर्तनों द्वारा उपजी परिस्थितियों ने तमाम सारे सवाल खड़े करने शुरू कर दिए हैं. निर्बाध गति से पेट्रोल और डीज़ल के दाम सर्वकालिक उंचाईयों पर पहुँचने के बाद तथा 3 लोकसभा और 29 विधानसभाओं के उपचुनाव में भाजपा द्वारा अपेक्षित सफलता प्राप्त नहीं होने के कारण इनके उत्पाद शुल्क में मजबूरन कुछ कटौती करनी पड़ी. जिसे दीपाली गिफ्ट कहकर भी प्रचारित किया जा रहा है. सवाल यह उठता है कि यदि सरकार की तेल सम्बन्धी नीति सही है तो, फिर इसमें कटौती नहीं होनी चाहिए थी. परन्तु यदि यह चुनावी राजनीति से जुड़ा खेल है तब तो पूरे के पूरे आर्थिक नीतियों पर सवाल खड़ा होना स्वाभाविक हीं है. अक्टूबर 21 में जीएसटी कलेक्शन भी एक लाख तीस हज़ार करोड़ से ऊपर जा चुका है, और पिछले चौदह महीने में सिर्फ जून को छोड़कर हरेक बार एक लाख करोड़ के ऊपर जीएसटी कलेक्शन हुआ है. फिर भी कोरोना के द्वितीय लहर से उपजे परिस्थितियों का हवाला देकर तेल के दामों में अभूतपूर्व खेल खेला गया. पी.एम केयर्स फण्ड में भी करोड़ों रुपये कोरोना के नाम पर जमा किये गए. बावजूद इसके महंगाई आज सर्वकालिक उंचाई पर पहुँच गए हैं. 
    
 महंगाई के साथ साथ लोगों के रोजगार पर भी बहुत बुरा असर हुआ है. रोजगार ख़त्म होने एवं बेरोजगारी बढ़ने के साथ लोगों की क्रय शक्ति में क्रमशः ह्रास हुआ है. इस बात की तस्दीक सरकार द्वारा चलाये जा रहे मुफ्त अनाज वितरण से भी लगाया जा सकता है. आज लगभग 80 करोड़ की जनसँख्या अथवा 60 प्रतिशत को मुफ्त अनाज का वितरण किया जा रहा है. लगभग 20 करोड़ और लोग पुनः गरीबी रेखा में प्रवेश कर गए हैं. सवाल यह उठता है कि ऐसे विपरीत समय में सरकार तेल (खाद्य एवं अखाद्य) सम्बन्धी नीतियों में इतनी हठधर्मिता क्यों दिखा रही है. क्या यह सिर्फ कोरोनाजनित परिस्थितियों का परिणाम है अथवा ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ का असर? परन्तु ‘तेल के खेल’ का बहुत बुरा प्रभाव सामान्य जनता के ऊपर पड़ रहा है. यह और बात है कि सरकार इसके लिए भी विपक्षी दलों को हीं जिम्मेवार ठहरा रही है. ज्ञातव्य है कि पूरे विश्व में तेल उत्पादों पर सबसे ज्यादा टैक्स भारत में हीं है. 35 रुपये लागत वाली तेल 120 रुपये पर बिके, यह अर्थशास्त्र सभी के समझ से परे है. कोरोना से केवल भारत हीं नहीं वरन पूरा विश्व बुरी तरह प्रभावित हुआ है. परन्तु यह तो जनता के ऊपर चौतरफा मार है. आगामी 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव पर सबसे ज्यादा प्रभाव महंगाई और किसान आन्दोलन का हीं होने जा रहा है. चूँकि उत्तर प्रदेश का चुनाव ज्यादा महत्वपूर्ण है 2024 के लोकसभा चुनाव के दृष्टिकोण से; तो तत्काल सरकार को तेल सम्बन्धी अपनी नीतियों में लचीलापन रवैये के साथ साथ बढ़ते हुए महंगाई पर रोक लगाना सर्वोपरि प्राथमिकता होनी चाहिए. वर्ना उत्तर प्रदेश का चुनाव जीतना भाजपा के लिए बहुत हीं टेढ़ी खीर साबित होने वाला है. 
     
मुख्यमंत्री योगी की महत्वाकांक्षी परियोजना ‘पूर्वांचल एक्सप्रेस-वे’ का 16 नवम्बर के उद्घाटन के साथ हीं उत्तर प्रदेश की राजनीति पुनः 20– 20 क्रिकेट की तरह भाजपा की तरफ झुकने लगा है. इसके साथ हीं पूरे भारत का 28 प्रतिशत एक्सप्रेस-वे उत्तर प्रदेश में समाहित हो गया है. निश्चित तौर पर यह उपलब्धि आगामी चुनाव में भाजपा हेतु एक संजीवनी का कार्य करेगा. एक बात अब और भी स्पष्ट हो गई है कि भाजपा आगामी चुनाव पुनः मोदी- योगी के जोड़ी पर हीं लड़ेगी तथा अमित शाह संगठनात्मक तौर तरीके से विपक्ष को कमजोर और परास्त करने के रणनीति पर कार्य करेंगे. जिसका ताज़ा तरीन उदाहरण सपा के चार विधानपरिषद सदस्यों को भाजपा में शामिल करना है. इस प्रकार की कवायद चुनाव तक और भी जोर पकड़ेगा. इस कार्य हेतु पार्टी ने एक स्क्रीनिंग कमिटी भी बना दी है, जिससे की शामिल होने वाले नेतागण के इतिहास की अच्छे तरीके से परख हो जाए. वहीँ दूसरी ओर किसान आन्दोलन के एक वर्ष पूरे होने पर 22 नवम्बर को लखनऊ में प्रस्तावित किसान महापंचायत तथा 29 नवंबर को संसद मार्च काफी हद तक आगामी चुनाव की तस्वीर साफ़ कर देगा. परन्तु जिस प्रकार से लोगों में लखीमपुर हिंसा के पश्चात् क्षोभ एवं निराशा बढ़ी है, वो सरकार के लिए काफी मुश्किलें भी पैदा करने जा रहा है. संसद के शीतकालीन सत्र में इस घटना की गूँज बहुत जोर से सुनाई देने वाली है. रही बात विपक्ष की तो, सपा और कांग्रेस बहुत तेजी से चुनावी फिज़ा के लिए अपने आपको तैयार कर रहे हैं. बसपा लगातार पिछड़ते जा रही है. बसपा के वोट बैंक में अच्छी खासी गिरावट देखने को मिल सकती है. इसका फायदा स्पष्ट रूप से सपा और कांग्रेस को हीं मिलता दिखाई दे रहा है. ऐसा लगता है कि प्रियंका गांधी के नेतृत्व में मृत कांग्रेस में नयी जान फूंक दी गयी हो. परन्तु आगामी विधानसभा चुनाव में सीटों के हिसाब से अभी भी कोई फायदा होता दिख नहीं रहा है. हाँ, यह बात अवश्य है कि नए सिरे से पार्टी कैडर का निर्माण बहुत तेजी से जारी है, जो निश्चित हीं वोट प्रतिशत में इजाफ़ा करने का काम करेगा. इसका फायदा पार्टी को 2024 के लोकसभा चुनाव में मिल सकता है. समाजवादी पार्टी में भी लगातार बसपा और अन्य दलों से नेताओं का आगमन हो रहा है, जो इस बात का निर्विवाद द्योतक है कि मुख्य लड़ाई भाजपा और सपा के बीच हीं होने जा रहा है. तमाम सर्वे भी लगातार किये जा रहे हैं, जो महीने दर महीने भाजपा के ग्राफ में गिरावट का संकेत दिखा रहा है. परन्तु सर्वे अक्सर ग़लत साबित होते हैं. मेरा स्पष्ट मानना है कि चुनाव अंततः परसेप्शन और कन्सेप्शन पर हीं लडे जाते हैं. इस बार का चुनाव ‘धर्म, कर्म और मर्म’ पर आधारित होने जा रहा है. और इसी सन्दर्भ में जाति, कोरोना, किसान आन्दोलन, महंगाई और दल-बदल सबसे बड़ी भूमिका में देखे जा सकते हैं.   
 
 
 
#डॉ संजय कुमार
एसो. प्रोफेसर एवं चुनाव विश्लेषक 
सी.एस.एस.पी, कानपुर
sanjaykumarydc@gmail.com
MO- 8858378872, 7007187681
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