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ओडिशा यात्रा-घेंस: ऐतिहासिक अतीत, साहित्य संपन्न वर्तमान
जनता जनार्दन संवाददाता ,
Jul 24, 2025, 19:22 pm IST
Keywords: Odisha Tourism News Sahitya and More कृष्णा विकास संस्थान News Sahitya
![]() कृष्णा विकास संस्थान-बरगढ़ के सभागार में हलधर नाग नेशनल सेमिनार के दूसरे एवं अंतिम दिवस के समापन के बाद कवि जी (लोक कविरत्न पद्मश्री हलधर नाग) के जन्मगांव घेंस (बरगढ़) जाने का कार्यक्रम तय हुआ। माली जी ( हलधर नाग के लोक साहित्य के हिंदी के अनुवादक साहित्यकार) ने सूचना दी-" समापन होते ही शाम 5 बजे हम लोग चल देंगे लेकिन समापन होते-होते बज गए सात..। अपनी गाड़ी में माली जी अपनी सवारी के साथ और भिन्न-भिन्न प्रांतों से आए विद्वानो के साथ हम एक इनोवा गाड़ी में। मार्गदर्शन के लिए आईआईएम संबलपुर के प्रोफेसर सुजीत पुरसेठ आगे की सीट में। गाड़ी हाईवे पर पहुंचते ही वे बोले-' ओडिशा में रास्ते आपको इसी तरह चकाचक मिलेंगे हाईवे हो या गांव के लिंक रोड। ओडिशा का यह बदलाव अहम हैं।' वे इस इलाके का प्रथम स्वाधीनता संग्राम से लेकर स्वाधीनता आंदोलन में योगदान की कामेंट्री करते चल रहे थे ताकि हम सब इस इलाके विशेष के इतिहास-भूगोल, साहित्य-संस्कृति और परंपरा रास्ता चलते-चलते जान सके। वीर सुरेंद्र साय से लेकर शहीद माधो सिंह बरिहा तक! उस पानीमोरा गांव के बारे में भी, जिसके सभी पुरुष सदस्य भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में जेल की सलाखों के पीछे डाल दिए गए थे। कोसल/संबलपुर क्षेत्र के खुलते इतिहास के पन्ने यात्रा का रोमांच शहीदों के प्रति श्रद्धा बढ़ाते जा रहे थे। और हां, हर साल बरगढ़ जिला मुख्यालय पर दिसंबर में होने वाली 'धनु यात्रा' के संबंध में भी, जिसे दुनिया का सबसे बड़ा 'ओपन थिएटर' कहा-माना जाता है।
घेंस के वीर माधो सिंह और उनके चार बेटों की शहादत के इतिहास ने सिख धर्म के दसवें गुरु गोविंद सिंह और उनके परिवार के बलिदान की बरबस याद दिला दी। स्वाधीनता संग्राम में ऐसे उदाहरण आमतौर पर नहीं मिलते। प्रथम स्वाधीनता संग्राम के ही हमारे अपने रायबरेली के अमर बलिदानी राना बेनी माधव सिंह की भी। रायबरेली के राना बेनी माधव सिंह ने भी जान कुर्बान कर दी पर झुकना कुबूल नहीं किया। दोनों शहीदों के नाम में साम्यता ने हमें इस एहसास से और भी भर दिया कि शंकरपुर हो या घेंस, हम एक हैं। हमारे रणबाकुरो के सपने समान और हम लोगों के मन में सम्मान भी समान।
पुरी-संबलपुर-रायपुर नेशनल हाईवे पर करीब 20 किलोमीटर दूर ओडिशा-छत्तीसगढ़ की सीमा पर ओडिशा के अंतिम नगर/कस्बा सोहिला के घेंस मोड़ के 'गांधी चौक' पर गाड़ी रुक गई। यहीं से ऐतिहासिक अतीत से गर्विले साहित्यिक रूप से संपन्न वर्तमान तक जुड़े 'घेंस' गांव का रास्ता मुड़ता है। छोटे से इस कस्बे के इस चौक पर गांधी जी के साथ 11 वैसी ही आकर्षक मूर्तियां हैं, जैसी देश की राजधानी नई दिल्ली के लुटियन जोन में आप देखते हैं। यह मूर्तियां चौक की खूबसूरती को बया तो कर ही रहीं थीं साथ ही अपने पूर्वजों के प्रति सम्मान भाव का प्रकटीकरण भी। मूर्तियां और मूर्तिस्थल का रखरखाव स्थानीय प्रशासन और नागरिकों की सजगता का जीता-जागता प्रमाण। कुछ यात्रियों की चाय की तलब और खाने की इच्छा हम सबको खींच ले गई साहू टी स्टाल..। चाय समोसा तो उत्तर भारत वाला लेकिन बड़ा और पनीली चटनी शुद्ध क्षेत्रीय स्वाद लिए। कुछ ने भरपेट खाया और कुछ ने नाम का। समापन हुआ स्वाद से भरपूर मिठाई विशेष- छैनापोड़ा से। नागपुर से आई डॉ पूनम मिश्रा मैम ने तो घर के लिए बंधवा भी ली। यह सब करते हुए बज चुके थे रात के नौ।
आज का अंतिम पड़ाव घेंस था। गाड़ियों के पहिए इस दिशा में दौड़ने शुरू हो चुके थे। इतिहास रोमांच पैदा कर ही चुका था। थोड़ी ही देर में हम सब घेंस गांव में दाखिल हो गए क्योंकि यह रास्ता भी डिवाइडर रोड वाला ही था। गांव में प्रवेश करते ही गाड़ियां रुकी। बाएं हाथ पर शहीद माधो सिंह का स्मारक और वीर स्तंभ। शहीद कुंजल सिंह क्लब ने 1993 में यह स्मारक बनवाया और तत्कालीन मुख्यमंत्री बीजू पटनायक ने उद्घाटन। स्थान छोटा पर शहादत बड़ी। 72 साल के विद्रोही वीर आदिवासी जमींदार शहीद माधो सिंह बरिहा को अंग्रेजी फौज ने 31 दिसंबर 1857 को संबलपुर जेल चौक पर सरेआम फांसी पर लटका दिया। स्मारक पर माथा टेक कर ही दिल श्रद्धा से भर गया। मोबाइल टोर्च की रोशनी में वीर माधो सिंह की तलवार के साथ सुशोभित आदमकद प्रतिमा को हम निहारते ही रह गए। स्तंभ पर ओडिया भाषा में लिखे शिलालेख का अर्थ बताया-इस ऐतिहासिक गांव आने की योजना और क्रियान्वयन को अंतिम रूप देने वाले श्रीमान अशोक कुमार पुजाहरी ने।
स्मारक परिसर में ही उन लाल जोगेंद्र सिंह बरिहा की आवक्ष प्रतिमा भी स्थापित है, जो घेंस के अंतिम जमींदार थे। देश आजाद होने के बाद उन्होंने अपनी सारी संपत्ति सरकार को दान में दे दी। करीब 6000 की आबादी वाले घेंस गांव में खुले अस्पताल और सरकारी स्कूल सब दान की जमीनों पर ही बने हैं। हालांकि दान में दी गई जमीन पर बने स्कूल का नामकरण वीर माधो सिंह के नाम पर किए जाने की उनकी इच्छा आज भी अधूरी है। ओडिशा सरकार इस बलिदान दिवस को 'वीरता दिवस' के रूप में मनाती जरूर है लेकिन बलिदान के अनुरूप स्मारक न स्मृति! यह शहीद परिवार सरकारी सम्मान का हकदार था, है और रहेगा। राज्य की भाजपा सरकार को वीरवार माधो सिंह की स्मृति को सुरक्षित-संरक्षित करने की ओर ध्यान देना ही होगा।
स्मारक दर्शन के बाद हम सब पहुंचे शहीद माधो सिंह के किलेनुमा कोठी में। इस किले में उनके वंशज रंजीत सिंह और उनकी पत्नी राजकुमारी सिंह आज भी निवास कर रहे हैं। इस कोठी की खास मरम्मत और देखरेख ओडिशा सरकार ने साल 2015-16 में अतीत की यादों को सुरक्षित रखने के लिए ही कराई थी। शहीद माधो सिंह के वंशज ने भी पूर्वजों की स्मृतियों को जीवंत बनाए रखने के लिए बड़े से बरामदे को फोटो गैलरी में तब्दील कर रखा है। इस फोटो गैलरी के बीचोबीच शहीद की बड़ी फोटो सभी को आकर्षित करती है। किले के एक पूजा जैसे स्थान कक्ष में शहीद माधो सिंह द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में इस्तेमाल किए गए अस्त्र-शस्त्र और बंदूके सुरक्षित रखी हैं। एक बंदूक की तो केवल नली थी। नली इतनी भारी कि हममें से कोई भी थोड़ी देर तक उसका बोझ सहन न कर पाए। इनको चलाना और निरंतर दुश्मनों से लड़ना कितना दुश्वार होगा? यह आप इस नली को हाथ में लेकर ही समझ सकते हैं, ऐसे नहीं! किला परिसर में स्थित शिव मंदिर की पूजा का जिम्मा संभालने वाले पंडित अश्विनी महापात्र ने अस्त्र-शस्त्र के बारे में विस्तार से सभी को जानकारियां दी। अशोक पुजाहरी ने विस्तार दिया-'शहीद माधो सिंह को फांसी के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने घेस गांव को जला दिया। यहां के तालाब को 'पुड़ीवन' कहा जाता है। कोसली भाषा में पुड़ी का अर्थ है जला हुआ और वन का तालाब। यानी 'जला हुआ तालाब'। देशज भाषा का यह शब्द ही अंग्रेज सैनिकों के हम सब के पूर्वजों के साथ 'पिशाची कृत्य' बताने को काफी है। बाद में बगल की जमीन पर घेस की नई बस्ती बसी। आज यही गांव आबाद है।'
इतिहास में दर्ज है, शहीद माधो सिंह घेस-बिंझाल के जमींदार थे। उन्हें अपने पिता से जमींदारी में 20 गांव मिले थे। मुगलों को परास्त कर भारत को अपने चंगुल में लेने वाले अंग्रेजों को कई गुना अधिक राजस्व वसूल कर देने से इनकार करने वाले शहीद माधो सिंह ने अपने जीवित रहते ब्रिटिश हुकूमत के कई बार छक्के छुड़ाए। हजारीबाग जेल तोड़कर फरार हुए वीर सुरेंद्र साय की सुरक्षा के लिए शहीद माधो सिंह ने छत्तीसगढ़ सीमा पर सिंघोड़ा घाट के दर्रे पर डेरा जमाकर अंग्रेजी फौज को संबलपुर पहुंचने न देने के लिए जान की बाजी लगा दी। अंग्रेज़ अफ़सर कैप्टन वुड ब्रिज, कैप्टन वुड और शेक्सपियर ने दर्रे को पार करने की कोशिश की लेकिन माधो सिंह ने कैप्टन शेक्सपियर को पराजित कर दिया। माधो सिंह के नेतृत्व में विद्रोही सेना के साथ लड़ाई में कैप्टन वुड ब्रिज भी मारे गए। दस महीने बाद, एन्सिंग वार्लो नाम के एक और अंग्रेज़ कैप्टन ने अपने आदमियों के साथ सिंघोड़ा घाट की ओर कूच किया लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी और अंग्रेज़ सैनिकों की सिर कटी और नग्न लाशों के साथ ही कैप्टन वुड ब्रिज का शव दर्रे पर पेड़ों से लटका देखकर दंग रह गए। फ़ॉस्टर नाम के अंग्रेज़ सेना के एक मेजर ने बदला लेने के लिए घेस एस्टेट के पहले से ही खाली पड़े गाँवों को जला दिया। दर्रे पर अपने कब्ज़े के दौरान माधो सिंह ज़्यादातर समय तक अंग्रेज़ों की गिरफ़्त से दूर रहे। 72 वर्ष की आयु में जंगलों में महीनों तक लड़ते-लड़ते थक जाने के कारण आराम के लिए मटियाभाटा गाँव जाने की कोशिश के दौरान गद्दारों की सूचना की वजह से मेजर फ़ॉस्टर की कमान में अंग्रेज़ सेना ने उन्हें पकड़ लिया और संबलपुर के जेल चौक पर फाँसी दे दी।
अंग्रेजों के खिलाफ छापमार लड़ाई में उनकी शहादत के पहले ही उनके एक बेटे ऐरी सिंह ( उदय सिंह) शहीद हो चुके थे। ऐरी सिंगोरा दर्रे के विद्रोहियों को रसद पहुँचाने के प्रभारी थे और वीर सुरेन्द्र साय के साथ संचार माध्यम के रूप में काम करते थे। विद्रोही समूहों के कुछ गद्दारों ने साहेबा डेरा में तैनात अंग्रेज़ सैनिकों के एक समूह को ऐरी के ठिकाने के बारे में बता दिया। सिंगोरा दर्रे के पास मौके पर पहुंचे सैनिकों को कोई नहीं मिला लेकिन लौटते समय गद्दारों ने ऐरी के वफादार कुत्ते की पहचान की जो अचानक एक खाई से बाहर चला आया था। ऐरी के गड्ढे में छिपे होने का यकीन करते हुए गद्दारों ने उसमें सूखे पत्ते और लकड़ी भर कर उसे एक बड़े पत्थर से ढक कर आग लगा दी। जिसके परिणामस्वरूप ऐरी सिंह अपने ठिकाने के अंदर दम घुटने से शहीद हो गए। माधो सिंह की मृत्यु के बाद उनके तीन जीवित पुत्र हटी सिंह, कुंजल सिंह और बैरी सिंह ने अंग्रेजों से लड़ाई जारी रखी। अंग्रेज सेना ने कुंजल सिंह को गिरफ्तार करके फांसी पर लटका दिया। बैरी सिंह जिंदा रहने तक जेल में रहे। बीमारी की वजह से उनकी जेल में ही मृत्यु हुई। तीसरे हटी सिंह ने आत्मसमर्पण कर दिया। हुकूमत ने उन्हें अंडमान निकोबार में कालापानी की सजा दी। तब सेल्यूलर जेल बनी भी नहीं थी। कहा जाता है कि वहीं जेल में उनकी भी मृत्यु हुई।
ऐतिहासिक अतीत से रूबरू होने के बाद हम पहुंचे पद्मश्री हलधर नाग ( कवि जी) के जन्मस्थान। यह स्थान ही गांव की वर्तमान चर्चित पहचान है। 31 मार्च 1950 को जन्मे पद्मश्री हलधर नाग का लोक साहित्य दुनिया के तमाम देशों में शोध का विषय है।यात्री दलों के सभी सदस्यों के लिए कोसल प्रदेश के घेंस गांव की यात्रा एक यादगार है। इस मायने में भी कि, यात्रा के आयोजक-प्रायोजक अशोक कुमार पुजाहरी जी के घर के सहन में स्थित भव्य-दिव्य मंदिर में जगन्नाथ स्वामी की प्रतिमा के दर्शन का भी सौभाग्य भी बिना पुरी जाए प्राप्त हुआ और घर के सदस्यों से मिलने का सुयोग भी। बाकी देश और दुनिया के लिए पुरी के जगन्नाथ स्वामी ही है लेकिन ओडिशा के गांव गांव में जगन्नाथ मंदिर स्थापित है। हर गांव में जगन्नाथ रथ यात्रा अपने के समय से निकलती और रूकती है। घेंस गांव में भी दो दिन पहले जगन्नाथ यात्रा निकल चुकी थी और सजाधजा रथ शहीद माधो सिंह की कोठी के बाहर प्रकाशमान था।
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