कोसली-अवधी मिलकर लड़ें संवैधानिक दर्जे की लड़ाई : गौरव

जनता जनार्दन संवाददाता , Jul 02, 2025, 10:23 am IST
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कोसली-अवधी मिलकर लड़ें संवैधानिक दर्जे की लड़ाई : गौरव
नई दिल्ली: ओडिशा के बरगढ़ मुख्यालय के कृष्णा विकास संस्थान सभागार में 28 और 29 जून को संपन्न हुए दो दिवसीय हलधर नाग के साहित्य पर केंद्रित नेशनल सेमिनार में उनके साहित्य पर विस्तार से चर्चा के साथ केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान के सामने कोसली-संबलपुरी भाषा को संवैधानिक दर्जे की मांग भी उठी। 
  
नेशनल सेमिनार में वक्ता के तौर पर आमंत्रित आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी स्मृति न्यास के संयोजक गौरव अवस्थी ने अनुवाद विषय पर विस्तार से रिसर्च पेपर प्रस्तुत करते हुए कोसली और अवधी भाषा को संवैधानिक दर्जे की लड़ाई संयुक्त रूप से लड़ने का आह्वान किया। उन्होंने कहा कि अवधी-कोसली एक परिवार की भाषा है। अवधी भाषा भगवान श्रीराम की मातृभाषा है और कोसली उनकी ननिहाल की मातृभाषा है। उड़ीसा पश्चिमांचल का संबलपुरी समाज भगवान राम की माता कौशल्या का जन्म इसी क्षेत्र में मानता है इसीलिए वहां की क्षेत्रीय भाषा को संबलपुरी के साथ-साथ कोसली भी कहा जाता है। 
 
दोनों भाषाओं के बीच साम्यता को रेखांकित करते हुए श्री अवस्थी ने कहा कि अवधी उत्तर प्रदेश के 18 जनपदों में पूर्ण एवं 7 जनपदों में आंशिक रूप से और कोसली भाषा उड़ीसा के पश्चिमांचल के 10 जनपदों में बोली जा रही है। दोनों ही भाषाओं का साहित्य पूरे भारत में विशेष स्थान रखता है। कोसली बोलने वाले करीब डेढ़ करोड़ और अवधी भाषियों की संख्या 10 करोड़ से अधिक है। दोनों ही भाषा-भाषी समाज एक लंबे अर्से से संवैधानिक दर्जे के लिए अलग-अलग संघर्षरत हैं। श्री अवस्थी ने कहा कि समय की मांग है कि अवधी और कोसली भाषाओं को संवैधानिक दर्जा दिए जाने का संघर्ष अवध और कौशल प्रदेश के समाज संयुक्त रूप से लड़ें। 
   
नेशनल सेमिनार से लौटे अवस्थी ने बताया कि उनके इस आह्वान से नेशनल सेमिनार की आयोजन संस्था अभिमन्यु साहित्य सांसद के सर्वेसर्वा अशोक पुजाहरी, सुशांत कुमार मिश्रा, दिनेश कुमार माली समेत कौशल-संबलपुरी के तमाम साहित्यकार सहमत दिखे। सेमिनार के बाद संयुक्त संघर्ष की रूपरेखा पर भी विचार किया गया। 
 
अनुवाद की महत्ता पर भी डाला प्रकाश
 
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी स्मृति न्यास के संयोजक गौरव अवस्थी ने सेमिनार के पांचवें सत्र में अनुवाद विषय पर अपना शोध पत्र प्रस्तुत करते हुए कहा कि आचार्य द्विवेदी ने हिंदी भाषी समाज के पिछड़े लोगों को प्रगति पर रास्ते पर लाने के लिए ही सवा सौ साल पहले अन्य भारतीय भाषाओं के साथ-साथ अंग्रेजी और संस्कृत के ग्रंथों और पुस्तकों का अनुवाद किया था। इसी अनुवाद की बदौलत वह हिंदी भाषा-भाषी समाज को तरक्की के रास्ते पर लेकर चल पाए। इसीलिए सरस्वती के उनके संपादन के 18 वर्षों को हिंदी में 'द्विवेदी युग' के रूप में जाना जाता है। नोबेल पुरस्कार विजेता बंगाल के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि गुरुदेव रविंद्र नाथ टैगोर के साहित्य से हिंदी भाषी समाज का प्रथम परिचय आचार्य द्विवेदी ने ही कराया था। उन्होंने कोसली के साहित्यकारों से भी अन्य भाषाओं के साहित्य के अनुवाद का अनुरोध किया।
 
केंद्रीय शिक्षा मंत्री ने किया सेमिनार का उद्घाटन
दो दिवसीय सेमिनार का उद्घाटन केंद्रीय शिक्षा मंत्री एवं संबलपुर के सांसद धर्मेंद्र प्रधान ने खचाखच भरे हाल में किया। उन्होंने सभी क्षेत्रीय भाषाओं की महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा कि भारत की सभी भाषाएं राष्ट्रभाषाएं हैं। राष्ट्र के उत्थान में सभी भाषाओं का योगदान है। इनमें फर्क नहीं किया जा सकता। भारत सरकार की नई शिक्षा नीति भी भारतीय भाषाओं और बोलियों का सम्मान बढ़ाने को प्रेरित करती है। उन्होंने अनुवादक डॉक्टर दिनेश कुमार माली एवं डॉक्टर सी जयशंकर बाबू द्वारा हिंदी में संपादित-अनुवादित
 
'हलधर ग्रंथावली' का विमोचन भी किया। उद्घाटन सत्र को ओडिशा के उच्च शिक्षा एवं संस्कृति मंत्री सूरज सूर्यवंशी बरगढ़ के सांसद प्रदीप कुमार पुरोहित, कृष्ण विकास संस्थान के अध्यक्ष डी मुरली कृष्णा ने भी संबोधित किया.
 
 
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