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आशीष कौल की 1967 कश्मीर का परमेश्वरी आंदोलन का वरिष्ठ सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री सुरेश प्रभु द्वारा विमोचन
जनता जनार्दन संवाददाता ,
Jul 31, 2023, 17:46 pm IST
Keywords: आशीष कौल कश्मीर का परमेश्वरी आंदोलन पूर्वकेंद्रीय मंत्री सुरेश प्रभु Asish Kaul News State News
![]() एक आंदोलन जो कश्मीर में एक कश्मीरी पंडित बेटी के गुमने से चालू हुआऔर जिसके ख़त्म होते ही जैसे घाटी की फ़िज़ा में बारूद मिलनी शुरू होगयी। एक ऐसा आंदोलन जिसने कश्मीरी पंडितों का पौरुष भी देखा औरदेश के प्रति उसकी प्रतिबद्धता भी।लेखक का दावा है कि 1990 में कश्मीरीपंडितों के जीवन में जो अमावस आयी उसका कृष्ण पक्ष इस आंदोलन केखात्मे के साथ ही शुरू हुआ था। ‘ये महज एक कहानी नहीं है बल्कि समयके उस करवट की दास्ताँ है कि जिसके बाद घाटी में घृणा और अलगाव काबारूद जमा होता चला गया। ‘'1967 कश्मीर का परमेश्वरी आंदोलन ' अपनी इस नई किताब का पहला परिचय लेखक आशीष कौल इस एकपंक्ति से देते हैं। इस किताब का आमुख जाने-माने साहित्यकार व शिक्षाविद डॉक्टरसच्चिदानंद जोशी ने लिखा है और आवरण पृष्ठ चित्रकार नरेंद्र पाल सिंहद्वारा बनाया गया है। डॉ. जोशी का मानना है कि "अब जब कश्मीरी पंडितोंके घाटी में लौटने की राह बन रही है, ऐसे समय में इस किताब का आनासामयिक है। इस किताब को, घटनाओं को समझते हुए पढ़ा जाए तो हरभारतीय देख पाएगा कि इतिहास में चूक कहाँ हुई? इस किताब की सबसेखूबसूरत बात यह है कि इसने पूरे देश को संदेश दिया कि अगर आप मुट्ठीभर भी हैं, तब भी अगर आप एक हैं तो आप बड़े से बड़े पहाड़ हटाने का दमरखते हैं और आपकी उस एकता के आगे सब झुकते हैं। निश्चय ही यहसंदेश आज और हमेशा हर एक भारतीय को गाँठ बाँधकर रख लेना चाहिए, ताकि चंद अलगाववादी या चरमपंथी हममें आपस में दरार पैदा न कर पाएँ।" खूबसूरत श्रीनगर के रैनावारी में 1967 में एक शाम, एक लड़की अचानकगायब हो गई।न कोई धमकी भरा फोन आया, न कोई शिकायतों भरा खत।आई तो सिर्फ एक खबर की वह है तो सही, पर लौटेगी नहीं। ‘हमारी बेटीवापस करो’ के नारों से कश्मीर का आकाश गूंज उठा। लड़की के गुमने सेउठे भावनाओं के ज्वार भाटे ने कैसे एक ऐतिहासिक आंदोलन को जन्म दियाऔर कैसे घाटी में अल्पसंख्यक हो चुके कश्मीरी पंडितों ने एकजुट हो नसिर्फ एक आंदोलन का बिगुल बजाया, बल्कि सदियों से घूम रहे दमन चक्रको भी कुछ दिनों के लिए रोक लिया।श्रीनगर से दिल्ली तक सब कुछ थमसा गया। लेकिन फिर ,राजनीति की चौसर बिछी और शुरू हुआ कश्मीर केइतिहास का वो काला पन्ना, जिसने 1989-90 लिख दिया। आज़ादी के अमृतकाल में जब हम पिछले एक साल से ऐतिहासिकआन्दोलनों को नए परिपेक्ष और समसामयिक सामजिक दृष्टिकोण से देखरहे हैं, तब 1967 में कश्मीर में जन्मे और करीब महीने भर पले-बढ़े 'परमेश्वरीआंदोलन' पर लिखी गयी ये किताब हर मायने में दिलचस्प है। "ये कहानीगायब हुई लड़की की कहानी न होकर कश्मीरी पंडित समुदाय की उसजिजीविषा की कहानी है, जो धोखों के थपेड़ों से कहीं पीछे दब गयी।" लेखक आशीष कौल के अनुसार मुट्ठी भर कश्मीरी पंडित जब अपनी बेटी केलिए एकजुट होकर दहाड़ रहे थे, तब उन दिनों की केंद्र सरकार जो पंडितों केअधिकारों के अतिक्रमण को रोकने और धारा 370 से कश्मीर को निजातपहुंचाने नहीं बल्कि इस आंदोलन को रोकने के लिए तत्कालीन गृहमंत्रीयशवंतराव चव्हाण के रूप में कश्मीर पहुंची थी। 1967 के आंदोलन की 2023 में अब चर्चा और किताब क्यों? इस सवाल केजवाब में बिना एक पल भी गंवाए आशीष कहते हैं कि "साल 1967 और'कश्मीर का परमेश्वरि आंदोलन' ही वो चाभी है जिससे 1990 की घटनाओपर पड़ा ताला खुलेगा। मुझे अच्छे से याद है कि शायद वो साल 2016 थाजब शीतलनाथ मंदिर में बने शहीदी स्मारक पर वही कुछ लोगों से चर्चा केबीच इस अभूतपूर्व आंदोलन की जानकारी ने मुझे परेशान और गौरवान्वितएक साथ किया था। परेशान इसलिए कि मुझे तब तक इसकी पूरीजानकारी क्यों नहीं थी? गौरवान्वित इसलिए कि मैं उसी बहादुर कौम काहिस्सा हूँ कि जिसने 1967 में एक लड़की (जिसको समुदाय के सारे लोगशायद जानते भी न हों) के गायब हो जाने पर उसकी अस्मिता और हक़ केलिए, उसकी माँ का अपनी बेटी को वापिस लाने के संघर्ष में साथ देने केलिए पूरी घाटी ही नहीं रोकी बल्कि अपनी शहादत भी दी। कश्मीरी पंडितजिस तरह 1990 के बाद क्रोध और दर्द का हलाहल पीकर बैठे हैं, उसमेंउनके उस पौरुष को कहना और देश के स्मृतिपटल पर अंकित करना ज़रूरीलगा। " प्रभात प्रकाशन द्वारा प्रकाशित 183 पृष्ठ की यह किताब प्रभात प्रकाशन कीवेबसाइट के साथ-साथ अमेज़ॉन और फ्लिपकार्ट पर भी उपलब्ध है। ज्ञातव्य हो कि इस किताब के लेखक आशीष कौल की कश्मीर पर आधारितये चौथी किताब है। पिछली तीन किताबों को भी पाठकों और मीडिया सेभरपूर सराहना प्राप्त हुई और वो बेस्टसेलर बनी। आशीष द्वारा लिखितरिफ्यूजी कैंप, दिद्दा कश्मीर की योद्धा रानी भी प्रभात प्रकाशन द्वारा प्रकाशितकी गयी थी । |
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