'कहीं न कहीं' का इस्तेमाल: आत्मविश्वास की कमी

'कहीं न कहीं' का इस्तेमाल: आत्मविश्वास की कमी नई दिल्ली: टेलीविजन माध्यम में बहुधा ‘कहीं न कहीं’ बोला जाता है। टेलीविजन दर्शकों की संख्या बढ़ी है, बढ़ रही है। अखबार और पत्रिकाओं का देह-सौंदर्य छपे शब्द या स्थितिज चित्र होते हैं। टेलीविजन में चित्र चलते हैं, शब्द बोले जाते हैं। इसलिए दृश्य-श्रव्य का प्रभाव ज्यादा होता है। शब्द भी महत्वपूर्ण हैं। राजनीति, पत्रकारिता और साहित्य में शब्दों की ही मार है।

टेलीविजन राजनेता को बोलते हुए पकड़ लेता है। राजनेता विवादित बयान से पिंड छुड़ाने के लिए खंडन-मंडन करते हैं। टीवी मूल बयान की बोलती छवि फिर से दोहरा देते हैं। टीवी ने राजनेता के शब्दों की घेराबंदी में अच्छी सफलता पाई है, लेकिन टीवी के कार्यक्रम संचालक या एंकर अपने शब्दों को दोबारा नहीं दिखाते।

वे भी अपने कथन में आरोपों के हवाले इसे या उसे भ्रष्टाचारी, दबंग या गुंडा बताते हैं। कानूनी भाषा वाली तफ्तीश तहकीकात, जांच या विवेचना भी कर डालते हैं और बहुधा अपना निष्कर्ष भी सुना देते हैं।

निष्कर्ष सुनाते या आरोप लगाते समय वे ‘कहीं न कहीं’ शब्द का प्रयोग बहुतायत से करते हैं। ‘कहीं न कहीं’ में कहीं न कहीं आत्मविश्वास की कमी झलकती है।

‘कहीं न कहीं’ का प्रयोग प्राय: समाचार प्रस्तुतिकरण में ही होता है। इस प्रयोग में अपनी बात कह भी दी जाती है और अपनी ओर से संशय या संदेह भी प्रकट कर दिया जाता है। ‘कहीं न कहीं’ जोड़ने का अर्थ है- टीवी एंकर भी आश्वस्त नहीं है और उसके पास तथ्यों की जांच का समय भी नहीं है। दर्शक और श्रोता सूचना पर विश्वास करें या न करें, उनकी मर्जी।

एक साबुन कंपनी का लोकप्रिय विज्ञापन है- ‘पहले इस्तेमाल करें, तब विश्वास करें।’ समाचार विश्लेषण में इसका सदुपयोग कुछ इस तरह है कि पहले ‘कहीं न कहीं’ लगाएं, तब बोलें। दर्शक शंका करें, जांचें तब सूचना या समाचार पर विश्वास करें। छपे शब्द वाले समाचार माध्यम में ऐसी गुंजाइश प्राय: नहीं होती, बेशक ‘सुना जाता है’ जैसे वाक्य प्रयोग पिंट्र माध्यम में भी होते हैं।

‘भरोसेमंद सूत्र ने अपना नाम न जाहिर करने की शर्त पर सूचना दी है’ जैसे वाक्य भी होते हैं, लेकिन ‘कहीं न कहीं’ का मजा ही कुछ और है। अपनी ही बात को संशय या संदेह के साथ कहना ‘कहीं न कहीं’ सही भी है।

टीवी धारावाहिकों में हास्य प्रधान हास्यास्पद कार्यक्रमों की बाढ़ है। शब्द प्रयोग और भावभाव से उदात्त हास्य का पैदा करना गंभीर सृजन कार्य है। श्लील में मर्यादा का संयम होता है और अश्लील में मर्यादा का हनन। श्लील प्राचीन काल से ही संकोची रहा है। इस पर लज्जा, ग्लानि और भय के तीन पहरेदार भी रहे हैं।

यूरोपीय-अमेरिकी सभ्यता के हल्ले-हमले से श्लील समाप्तप्राय हो रहा है। श्लील का क्षेत्र लघुतम हो रहा है। अश्लील की सहज स्वीकृति बढ़ी है। सौंदर्यबोध पर नग्नदेह प्रदर्शन का अतिक्रमण है। मर्यादा और लज्जा पिछड़ेपन के प्रतीक हो गए हैं।

एक लोकप्रिय हास्य कार्यक्रम का उल्लेख करते हुए लज्जा आती है। हिंदी सिनेमा के अतिचर्चित बिंदास एक हीरो भी इस कार्यक्रम में लज्जित दिखाई पड़े। कथित श्रोताओं दर्शकों में से एक युवती ने उनसे पूछा, ‘आप अपनी फिल्मों में जीरो साइज पतली कमर वाली लड़कियों से रोमांस करते हैं।

मेरी जैसी मोटी लड़की के बारे में आपका क्या ख्याल है? हीरो के पास उत्तर नहीं था। युवती ने कहा, ‘क्या आप मुझे बाहों में ले सकते हैं?’ हीरो तब भी निरूत्तर। युवती मंच पर आई, उन्होंने उसे गले लगाया। वे संकोच में रहे। युवती प्रसन्न थी। कहीं न कहीं लज्जा मुक्त, शीलहीन और प्रजेंट परफेक्ट!

अनेक लोग यूरोपीय-अमेरिकी रीति-रिवाजों को आधुनिक बनाते हैं। मुगल शासकों ने भारतीय संस्कृति को वैसी क्षति नहीं पहुचाई, जैसी क्षति यूरोपीय सभ्यता ने पहुंचाई है। मुगलों से बेशक लड़ाइयां हुईं, पर उन्होंने हमारे संगीत, स्थापत्य व सौंदर्यबोध से समन्वय बनाया। यूरोपीय सभ्यता ने हमको स्वसंस्कृति के प्रति आत्महीन बनाया।

संप्रति मर्यादा, लज्जा, उदात्तभाव, आस्तिकता और श्रद्धा संवेदना से युक्त भारतीय सौंदर्यबोध पर यूरोपीय आधुनिकता से लैस इलेक्ट्रानिक तरंगों की बमबारी है। इस्लामी बादशाहत के दौर में ऐसे सांस्कृतिक आक्रमण नहीं थे। अंग्रेजी सत्ता की तुलना में इस्लामी सत्ता तीन गुना लंबी समयावधि तक रही।

अपने चरमवैभव के समय भी इस्लामी सत्ता भारतीय संस्कृति का कोई नुकसान नहीं कर सकी, लेकिन अंग्रेजी सत्ता भारत से विदाई के बावूजद सांस्कृतिक रूप में पहले से ज्यादा बड़ी चुनौती के रूप में हमारे सामने है।

आधुनिकता सच्चाई है। समाज जड़ नहीं होते। गतिशील होना जगत का मूल गुण है। भारत का समाज भी आधुनिक है, उसे और भी आधुनिक होना चाहिए। लेकिन आधुनिकता का अर्थ जीवन मूल्यों का यूरोपीयकरण या अमेरिकीकरण नहीं होता।

कपड़ा-लत्ता, भाषा, व्यवहार और खानपान, रहन सहन का अंधानुकरण ही आधुनिक नहीं कहा जा सकता। आखिरकार ‘सेक्सी’ कहे जाने को सुंदर कैसे कहा जा सकता है?

सुंदर मनभावन होता है और सेक्सी उन्मादी। सुंदर समय सापेक्ष होकर भी सत्य और शिव होता है। लेकिन सेक्सी अल्पकालिक उन्माद होता है। कहीं न कहीं उजड्डपन। भारतीय आधुनिकता को सुंदर ही होना चाहिए। सेक्सी नहीं। हमारा सौंदर्यबोध रूप से अरूप प्रेम की ओर उध्र्वगामी रहा है।

प्रेम गदराया अधपके फल जैसा और भक्ति प्रीति पके समधुर फल जैसी। भारतीय आधुनिकता किसी अन्य देश की सभ्यता या संस्कृति की अश्लील अनुकृति नहीं हो सकती, लेकिन दुर्भाग्य से हमारा समय अमेरिका या यूरोप की घड़ियों की सुई से जुड़ गया है। हम भारतीय अपने कालबोध से दूर हो रहे हैं।

समाज के गठन और पुनर्गठन में शब्द प्रयोग की महत्ता है। साहित्य समाज को सुंदर बनाने की शब्द विधा है। राजनीति में भी शब्दों का ही हल्ला होता है। दर्शन पर शब्द विलासी होने के आरोप पुराने हैं। विचार, शक्ति और सौंदर्यबोध को प्रकट करने में भी शब्द की महत्ता है।

शब्द संसार बड़ा है। प्रत्यक्ष विश्व में लाखों जीव, वनस्पति, नदी, पर्वत और करोड़ों आकाशीय पिंड हैं। हरेक रूप के लिए अलग नाम हैं। प्रत्येक नाम शब्द है। भाषाएं भी ढेर सारी। सो प्रत्येक रूप के अनेक नाम हैं। शब्दों का संसार प्रत्यक्ष संसार से बड़ा है।

भारतीय चिंतन में शब्द ब्रह्म है। शब्द का प्रयोग, दुरुपयोग और सदुपयोग संभव है। जब शब्द पर्याप्त हैं, तब अपशब्द प्रयोग की आवश्यकता क्या है? शब्द प्रयोग सभ्य या असभ्य बनाते हैं।

भाषा संस्कृति की संवाहक होती है। भारतीय भाषा में सभ्य का अर्थ अति गहरा है। यह अंग्रेजी के ‘सिविलाइज्ड’ का अनुवाद नहीं। सिविलाइज्ड का अर्थ ‘नागरिक भाव से युक्त’ होता है। वैदिक साहित्य में सभा और समिति नाम की दो संस्थाएं हैं।

सभा में भाग लेने के योग्य व्यक्ति को ‘सभ्य’ और ‘सभेय’ कहा गया है। संसदीय परंपरा में संसदीय और असंसदीय शब्दों पर लोकसभा, राज्यसभा व विधानमंडल के अध्यक्षों/सभापतियों के निर्णय है।

असंसदीय कथनों को कार्यवाही से निकालने की परंपरा भी है। कई बार सदस्यों को अपना कहा वापस भी लेना पड़ता है। प्रसन्नता, क्षोभ या गुस्सा प्रकट करने के लिए हमारी भाषाओं का शब्द कोष बड़ा है। टीवी माध्यम को ऐसे सुंदर शब्दों का समुचित प्रयोग करना चाहिए। लोक प्रचलन में भी हजारों शब्द हैं।

अपशब्द प्रयोग निंदनीय है। जनतंत्र सर्वसमावेशी जीवन पद्धति है। पत्रकारिता और राजनीति के चालू शब्द भारत के संसदीय जनतंत्र का चेहरा हैं। शब्द, अपशब्द, शालीन और अशालीन वाक्य देश के लोगों द्वारा ध्यान से देखे सुने जाते हैं।

तेज रफ्तार इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के इस समय में शब्द और अपशब्द मर्यादित प्रदर्शन व अश्लील हावभाव तेज रफ्तार चलते हैं। मित्रों को सभी अभिव्यक्तियों में सतर्क रहना चाहिए।
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