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हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने में बाधक मत बनिए
गोपाल जी राय ,
Sep 14, 2020, 20:03 pm IST
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![]() हिंदी भारत की राजभाषा है। लेकिन यह कब देश की राष्ट्रभाषा बनेगी, इसका इंतजार एक बहुत बड़ी आबादी को है। वो अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए एक अरसे से संघर्ष रत भी हैं। हालांकि कोढ़ में खाज यह है कि जाने-अनजाने में बहुत सारे लोग इस पुनीत उद्देश्य की प्राप्ति में पिछले 7-8 दशकों से बाधक बन रहे हैं।
हमारे देश का अभिजात्य वर्ग अंतरराष्ट्रीय भाषा अंग्रेजी का वर्चस्व बनाए रखने के पक्षधर हैं। इसके लिए वह क्षेत्रीय भाषाओं के हिमायती लोगों को भीतर ही भीतर भड़काता है, ताकि अंग्रेजी भाषा का स्थान लेने को उतावली हिंदी भाषा को विवादास्पद बनाकर अपना उल्लू सीधा किया जा सके। यही वजह है कि हिंदी भाषी राज्यों और गैर हिंदी भाषी राज्यों के बीच भाषाई व क्षेत्रीय सियासत को भड़काया जाता है, जिसका असर राष्ट्र की एकता व अखंडता पर भी पड़ता है।
कुछ लोगों का तर्क है कि भले ही हिंदी देश की सर्वाधिक लोकप्रिय भाषा है, फिर भी लगभग 28 राज्यों और 8 केंद्र शासित राज्यों में से 20 राज्यों और 5 केंद्र शासित क्षेत्रों में हिंदी बोलने वाले की संख्या बहुत ही कम हैं। इसके अलावा, शेष जिन राज्यों को हम हिंदी भाषा-भाषी मान लेते हैं, उनमें भी जनजातीय और क्षेत्रीय भाषाएं बोलने वाले लोग बहुतायत में हैं और वे भी अपनी स्वतंत्र पहचान बनाए रखने को छटपटा रहे हैं।
आधुनिक भारत के इतिहास में यदि झांका जाए तो स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के समर्थक राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी थे। तब इन्होंने एक या दो भाषाओं को पूरे देश की भाषा बनाने की एक मुहिम चला रखी थी। लेकिन तब भी हिंदी भाषा विरोधी गुट इसका नख से सिर तक विरोध कर रहा था और अंग्रेजी को ही राज्य की भाषा बनाए रखने के पक्ष में था। यही वजह है कि 1949 ई. में भारत की संवैधानिक समिति एक ऐतिहासिक समझौते पर पहुंची, जिसे मुंशी-आयंगर समझौता भी कहा जाता है। इसके बाद, जिस भाषा को राजभाषा के तौर पर स्वीकृति मिली, वह हिंदी (देवनागरी लिपि में) थी।
हमारे संविधान में भारत की केवल दो ऑफिशियल भाषाओं का जिक्र था। हालांकि, इसमें किसी 'राष्ट्रीय भाषा' का जिक्र कभी नहीं था। हां, यह सत्य है कि इनमें से ऑफिशियल भाषा के तौर पर अंग्रेजी का प्रयोग अगले पंद्रह सालों में कम करते जाने का लक्ष्य था। इस प्रकार ये पंद्रह साल संविधान लागू होने की तारीख यानी 26 जनवरी, 1950 से अगले 15 साल यानी 26 जनवरी, 1965 को खत्म होने वाले थे। लेकिन संविधान लागू होने के 15 साल बाद भी हिंदी को राजभाषा बनाये जाने के दृष्टिगत भी बहुत बड़ा बवाल हुआ था।
तब हिंदी समर्थक राजनेता, जिसमें बालकृष्ण शर्मा और पुरुषोत्तम दास टंडन शामिल थे, ने अंग्रेजी को अपनाए जाने का भारी विरोध किया और इस जनविरोधी कदम को साम्राज्यवाद का अवशेष बताया। उनलोगों ने केवल हिंदी को ही भारत की राष्ट्रीय भाषा बनाए जाने के लिए विरोध प्रदर्शन भी किए। इसके लिए उन्होंने कई प्रस्ताव भी रखे, लेकिन उनलोगों का कोई भी प्रयास सफल नहीं हो सका। क्योंकि हिंदी तब भी दक्षिण और पूर्वी भारत के राज्यों के लिए एक अनजान भाषा ही थी।
यही वजह है कि 1965 में जब हिंदी को सभी जगहों पर आवश्यक भाषा बना दिया गया तो तमिलनाडु राज्य में हिंसक आंदोलन भी हुए। जिसके बाद कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने तय किया कि भारत के संविधान के लागू हो जाने के 15 साल बाद भी यदि हिंदी को हर जगह लागू किए जाने पर अगर भारत के सभी राज्य राजी नहीं हैं, तो हिंदी को भारत की एकमात्र ऑफिशियल भाषा नहीं बनाया जा सकता है। शायद ऐसा हो जाता तो भारत की यह एकमात्र ऑफिशियल भाषा, राष्ट्रभाषा कही जा सकती थी।
इसके बाद, सरकार ने राजभाषा अधिनियम, 1963 लागू किया, जिसे वर्ष 1967 में संशोधित किया गया। जिसके जरिए भारत ने एक द्विभाषीय पद्धति को अपना लिया। इसकी दोनों भाषाएं पहले वाली ही थीं, यानी कि अंग्रेजी और हिंदी। हालांकि, तबतक क्षेत्रीय भाषाओं के पहचान पाने की चिंता काफी बढ़ चुकी थी। यही वजह है कि वर्ष 1971 के बाद, भारत की भाषाई पॉलिसी का सारा ध्यान क्षेत्रीय भाषाओं को भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में जोड़ने पर रहा। जिसका मतलब यह था कि ये भाषाएं भी ऑफिशियल लैंग्वेज कमीशन में जगह पाएंगी और उस स्टेट की भाषा के तौर पर इस्तेमाल की जाएंगी। यह कदम बहुभाषाई जनता का भाषा को लेकर गुस्सा कम करने के लिए उठाया गया था। आजादी के वक्त इसमें 14 भाषाएं थीं, जो 2007 तक बढ़कर 22 हो गई थीं।
वर्तमान एनडीए सरकार ने भी इस दिशा में बहुत सी आशाएं जगाई थीं। 2014 में, सरकार ने आते ही अपने अधिकारियों और मंत्रियों को सोशल मीडिया पर सरकारी पत्रों में हिंदी का प्रयोग करने का आदेश दिया था। स्वयं प्रधानमंत्री मोदी भी अंग्रेजी में सहज होते हुए भी अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी हिंदी में बोलते दिख जाते हैं। फिर भी हिंदी के राष्ट्रभाषा बनने की संभावना बहुत कम ही है। क्योंकि दरअसल जितना बताया जाता है उतने लोग भी हिंदी नहीं बोलते हैं। वहीं, 25 जनवरी, 2010 को गुजरात हाई कोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा था, कि भारत की बड़ी जनसंख्या हिंदी को राष्ट्रीय भाषा मानती है। ऐसा कोई भी नियम रिकॉर्ड में नहीं है। न ही कोई ऐसा आदेश पारित किया गया है जो हिंदी के देश की राष्ट्रीय भाषा होने की घोषणा करता हो।
अमूमन कहा जाता है कि करीब 136 करोड़ की जनसंख्या वाले भारत में 50 फीसदी से ज्यादा लोग हिंदी बोलते हैं। साथ ही, गैर हिंदी भाषी जनसंख्या में भी करीब 20 फीसदी लोग हिंदी समझते हैं। इसलिए हिंदी भारत की आम भाषा है। लेकिन कई भाषाविदों का कहना है कि हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ के जिन लोगों को हिंदी भाषियों में गिन लिया जाता है, वे लोग भी हिंदी भाषी नहीं हैं, और उनमें से बहुत से लोगों की भाषा जनजातीय या क्षेत्रीय है। ऐसे में इन्हें हिंदी भाषी के तौर पर गिन लेना सही नहीं है।
इसके अलावा, भारत के दक्षिण में केरल, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक; पश्चिम में गोवा, महाराष्ट्र और गुजरात; भारत के उत्तर-पश्चिम में पंजाब और जम्मू-कश्मीर; पूर्व में ओडिशा और पश्चिम बंगाल; उत्तरपूर्व में सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, त्रिपुरा, नगालैंड, मणिपुर, मेघालय और असम। ये इस देश के 28 राज्यों और 8 केंद्र शासित प्रदेशों में से 20 राज्य और 5 केंद्र शासित क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें हिंदीभाषी बहुत कम हैं। ऐसे में हिंदी राष्ट्रभाषा हो ही नहीं सकती। जबकि यह कारोबारी भाषा बनने की ओर अग्रसर है। इसके अलावा, भारत में ही हिंदी से कहीं पुरानी भाषाएं तमिल, कन्नड़, तेलुगू, मलयालम, मराठी, गुजराती, सिंधी, कश्मीरी, ओड़िया, बांग्ला और असमिया हैं। ऐसे में हिंदी जैसी नई भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा दे देने के प्रयास को जो लोग सही नहीं बताते, वो उससे भी नई भाषा अंग्रेजी के बर्चस्व को तोड़ने के सवाल पर खामोश हो जाता हैं। यह दोमुंही नीति सही नहीं है। इस तरह से हिंदी का विरोध कदापि उचित नहीं है। # गोपाल जी राय/वरिष्ठ पत्रकार व लेखक |
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