बस्तर मे जीवित हैं पाषाणकाल की परंपराएं

बस्तर मे जीवित हैं पाषाणकाल की परंपराएं रायपुर: बस्तर में माड़िया जनजाति की जीवन शैली ने पाषाण युगीन कई परिपाटियों को अब भी बचा कर रखा है। इस समाज में मृतक स्मृति चिन्ह आज भी एक परंपरा के रूप में जीवित है। इतना ही नहीं, अबूझमाड़िया मुख्यत: स्थानांतरित खेती करते हैं तथा इनकी कृषि परंपरा को दाही कहा जाता है। यह भी एक पुरा-परंपरा है जिसका संबंध पाषाण काल से ही है।

माड़िया जनजाति का बस्तर क्षेत्र में बाहुल्य है तथा इस क्षेत्र में उन्हें खदेड़े जाने तथा दुर्गम क्षेत्रों में समेटे जाने जैसे कथनों को मात्र अवधारणा ही कहा जाएगा, क्योंकि आर्यो के आगमन से बहुत पहले से यह अबूझमाड़ माड़ियाओं की भूमि रही है।

बिना विवेचना किए एक नव-पुरापाषाण कालीन दृश्य की परिकल्पना कीजिए, जब कबीलों के आक्रमण तथा हिंसक पशुओं से सुरक्षा पाने के लिए आदिम समाज ने अपने आवास के इर्दगिर्द पत्थरों की बाड़ बनाकर उसे सुरक्षित करना आरंभ किया होगा। नुकीली लकड़ी से मिट्टी खोद कर बीज बोना और पत्थर के हंसिये से फसल काटना आरंभ किया होगा। इस ²श्य को आज भी अबूझमाड़िया साकार करते हैं।

माड़िया समाज में खेती पर पूरे गांव का अधिकार होता है यही कारण है कि जमीन संबंधी विवाद उनके बीच नहीं देखे जाते।

परंपरागत है विवस्त्र जीवनशैली :
पुराकाल से इस समुदाय का एक और अंर्तसबंध भी दृष्टिगत होता है। यह है अमूझमाड़ की विवस्त्र जीवनशैली। महिलाओं का वक्षस्थलों को ढककर न रखकर सहज रहना भी अतीत से जुड़ी हुई कड़ी ही है।

तथाकथित आधुनिक चिंतकों ने हालांकि इसे अपनी ही दृष्टि से देखा परखा है और इस बारे में जो राय दी है उसका आज के कथित सभ्य समाज से तो रिश्ता बनता है, लेकिन ऐतिहासिकता की कसौटी पर खड़े नहीं उतरते।

अरुं धति राय ने अपने एक लेख 'वाकिंग विद द कामरेड्स' में वनवासी परंपराओं की झूठी दास्तान प्रस्तुत की है। इस लेख में व्यक्त उनके विचारों को शहरी जिंदाबाद-मुर्दाबादवादी वर्ग नें बिना तर्क के हजम भी कर लिया गया। 'आउटलुक' पत्रिका ने ऐतिहासिक संदर्भो की जांच के बगैर इस लेख को प्रकाशित भी कर दिया।

अरुंधति लिखती हैं, "एक शाम अलाव के पास बैठी एक बूढ़ी औरत उठी और उसने दादा लोगों के लिए एक गीत गाया। वह माड़िया वनवासी थी जिनके बीच रिवाज था कि औरतें शादी के बाद चोलियां उतार दें और छातियां खुली रखें..। औरतों के खिलाफ यह पहला मामला था जिसके खिलाफ पार्टी ने अभियान चलाने का फैसला किया।"

यह वाक्यांश असत्य है। पहली और महत्वपूर्ण बात है कि माड़िया स्त्रियों में शादी के पहले या शादी के बाद चोली (ब्लाउज शब्द का प्रयोग अरुं धति ने किया है) पहनने का चलन पुरा-काल से ही नहीं है। इस तरह रहने के पीछे उनकी हजारों साल की जीवन शैली है।

पं. केदारनाथ ठाकुर ने 1908 में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'बस्तर भूषण' में माड़िया स्त्री की जीवन शैली का उल्लेख किया है। वे लिखते हैं 'साधारण लोग रस्सी से गुहाद्वार और उपस्थ के सामने पत्ते बांध लेते हैं। इसी प्रकार स्त्रियां शरीर खोले रहती हैं..चाहे राजा महाराजा आवैं इनका मामूली यही ठाठ है।

डा. नारायण चौरे नारायणपुर और निकटवर्ती क्षेत्रों का अध्ययन कर अपनी किताब 'आदिवासियों के घोटुल' में लिखते हैं, "गले में रंग बिरंगी लाल-सफेद घुंघचियों की माला, मोतियों की, कांच की, रंगीन गुरियों की, लाख या कौड़ी की, घास की बीजों की मालाएं पहनती हैं। इनके स्तन खुले रहते हैं।"

अवशेषों में छिपा है इतिहास :
बस्तर का अतीत कितना पुराना है इसका अनुमान यहां के प्राचीन अवशेषों में छिपा है। प्रागैतिहासिक काल से ही यहां मानव रह रहा है। इंद्रावती, नारंगी और कांगेर नदियों के किनारों से पुरा-पाषाण काल के मूठदार छुरे मिले हैं। उस समय का आदमी जिन उपकरणों से पशुओं की खाल या पेड़ों की छाल उतारता था, हड्डी तोड़ने, मांस काटने या चमड़े में छेद करने में काम आने वाले उसके जो औजार थे, वे यहां मिले हैं।

इसके बाद का समय मध्य-पाषाणकाल के अवशेषों की तलाश के लिए इन्द्रावती नदी तो खजियों के लिये खजाना साबित हो सकती है। फ्लिट, चार्ट, जैस्पर, अगेट जैसे पत्थरों से बनाए गए तेज धार वाले हथियार इंद्रावती नदी के किनारों पर खास कर खड़क घाट, कालीपुर, भाटेवाड़ा, देउरगांव, गढ़चंदेला, घाटलोहंगा के पास मिले हैं।

नारंगी नदी के किनारे भी गढ़बोदरा और राजपुर के आसपास ऐसे औजार और हथियार देखे जा सकते हैं। खोजने वालों को इन जगहों से कई तरह के खुरचन के यंत्र, अंडाकार मूठ वाला छुरा और छेद करने वाले औजार मिल रहे हैं।

बस्तर और इसके आसपास के उत्तर-पाषाण युग का आदमी अच्छे किस्म के पत्थरों से कई कामों को एक साथ करने वाले उपकरण और औजार बनाने लगा। इस समय दांत वाले हड्डियों से बने हंसिये का उपयोग फसल काटने के लिये किया जाता था।

विकास लगातार चलने वाली प्रक्रिया है इसीलिए इतिहास का हर अगला काल बेहतर औजारों का काल होता गया। उत्तर-पाषाणकाल का आदमी छोटे और प्रयोग करने में आसान हथियार बनाने लगा था। इनको लकड़ी, हड्डी या मिट्टी की मूठों में फंसा कर बांधा जाता था। हथियार तो चर्ट, जैस्पर या क्वाट्र्ज जैसे मजबूत पत्थरों से ही बनाए जाते थे। इनके अवशेष भी इन्द्रावती नदी के किनारों पर मिलते हैं।

नव पाषाणकाल के मानव हो गए थे चित्रकार :
नव पाषाणकाल तक आते आते यहां के निवासी चित्रकार हो गए थे। कई गुफाए मिल चुकी हैं जिनकी छतों पर शिकार करने, शहद इकट्ठे करने, नाचने-गाने, जानवरों की लड़ाईयां, आग की पूजा, पेड़-पौधों से संबंधित बहुत से चित्र बने मिलेंगे। जैसा जीवन वे जी रहे थे उसे चित्र में व्यक्त करते गए।

नड़पल्ली पहाड़ी दक्षिण बस्तर में है जहां लगभग चार हजार फुट की उंचाई पर एक नव-पाषाणकाल की गुफा है जिसमें हिरणों की आकृतियां बनी हुई हैं। इन्द्रावती नदी के किनारे, मटनार गांव के पास भी इस समय के बने गुफा-चित्र मिलते हैं जिसमें जानवरों की आकृतियां बनाई गई हैं।

मटनार में एक चित्र में आदमी की हथेलियों से किसी अलौकिक शक्ति की पूजा का संकेत मालूम पड़ता है। फरसगांव के पास आलोर गांव में भी पक्षी के चित्र बने हुए हैं। ये गुफा चित्र ही बताते हैं कि तब इन्द्रावती नदी में नाव चलाई जाने लगी थी और मछली का शिकार किया जाने लगा था।

बस्तर और इसके आसपास नव पाषाणकाल में मानव सभ्यता का ठीक-ठाक विकास हो गया था। उस समय का आदमी खेती करने लगा था। जानवर पालना जान गया था। घर बना कर रहने लगा था। बर्तन बनाना जान गया था।

खेती का हुआ विकास :
इसी समय से आदमी जंगल जला कर, खाली हुई जमीन को नुकीली लकड़ी से खोद कर खेती करने लगा था। वह अपनी फसल बचाने के लिये झोपड़ी बना कर रहने लगा होगा। अनाज और पानी जमा करने के लिए इस्तेमाल आने वाले मिट्टी के बर्तनों के अवशेष कई जगहों पर मिले हैं। नव-पाषाण काल के पेड़ काटने के लिये बनाए गये पत्थर के औजार तो देखने लायक हैं।

समय के साथ अनाज, जानवरों और औजारों के लिए कबीलों में आपसी झगड़े भी हुए। घरों और पालतू जानवरों को हिंसक जानवरों से बचाने के लिए पत्थर की बाड़ लगाई जाने लगी।

उसूर, छोटे ड़ोंगर, गढ़चंदेला और गढ़धनोरा में नवपाषाणकाल के अवशेष और उपकरण देखे जा सकते हैं। गढ़चंदेला, गढ़धनोरा और वोदरा में तो उँची पहाड़ी पर नवपाषाण काल के बने आवास स्थल भी देखने को मिल जाएंगे।

पाषाणयुग के बाद ताम्र और लौह युग आये। सभ्यता के इन युगों की बहुत सीमित जानकारी ही मिल पाई है। इन युगों के कुछ उपकरण दक्षिणी बस्तर में मिले हैं। इनमे खास है नुकीले बेट वाली एक कुल्हाड़ी।

ईसा पूर्व से ही है शवागारों का प्रचलन :
बी.डी. कृष्णास्वामी अपनी कृति 'प्री हिस्टोरिक बस्तर' में उल्लेख करते हैं कि ईसा से लगभग एक सहस्त्राब्दि पूर्व महापाषाणीय शवागारों का प्रचनल था। शवों को गाड़ने के लिए बड़े शिलाखंडों का प्रयोग किया जाता था। इस प्रकार के शवगारों के उस समय के अवशेष करकेली, सकनपल्ली, हांदागुडा, गोंगपाल, नेला-कांकेर तथा राये में मिल जाएंगे।

उन दिनों भी शव के साथ कब्र में अन्न, जल, अस्त्र-शस्त्र और मिट्टी के बर्तन जैसी चीजें रखी जाती थी। आज भी बस्तर के माड़िया ठीक यही करते हैं। इसी तरह शवागारों के उपर स्तंभों को गाड़ते हैं। यह परंपरा बहुत खूबसूरती से हजारों हजार वर्ष का सफर तय करती हुई आज तक पहुंची है।

समय के साथ मृतक स्तंभ नक्काशीदार खंबों में भी परिवर्तित हुए। अस्त्र-शस्त्र, चिडिया, जानवर या आदमी की आकृतियों नें इन मृतक स्तंभों में जगह बनाना आरंभ किया।

अबूझमाड़ एक जीवित संग्रहालय है जहां अब सोच की खुली ऑक्सीजन कम हो गई है। जंगल के भीतर आंध्र और निकटवर्ती राज्यों से घुस आए तथाकथित क्रांतिकारियों ने बिना विचार किए जीवन शैली तथा परंपराओं में जो बदलाव लाने की कोशिश की है वह संवेदनहीनता है।
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