किस्सा-ए-बैरागी जी! गौरव अवस्थी की श्रद्धांजलि

किस्सा-ए-बैरागी जी! गौरव अवस्थी की श्रद्धांजलि देश के सुप्रतिष्ठित कवि और उससे भी अधिक हंसमुख एवं सभी के सहयोग में तत्पर रहने वाले सरलता से हमेशा लबरेज रहने वाले आदरणीय बालकवि बैरागी जी हमारे पिता की तरह थे. जो स्नेह हमें अपने पिता से मिला वही बैरागी जी से भी लगातार मिलता रहा. ऐसे स्नेहिल स्वभाव के बैरागी जी से जुड़ा यह किस्सा डॉ शिवमंगल सिंह सुमन के मुंह से कभी बाल्यकाल में सुना था. आप सबसे वही साझा कर रहा हूं बैरागी जी के प्रति स्मृताअंजलि के रूप में ..

बैरागी जी मध्यप्रदेश शासन में उपमंत्री हुआ करते थे. उस वक्त उन्नाव-झगरपुर के मूल रूप से रहने वाले देश के बहुत ख्यातिलब्ध साहित्यकार एवं कवि डॉ शिवमंगल सिंह सुमन विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन के वाइस चांसलर थे यह सुमन जी ही थे जिन्होंने बहुत गरीबी से आगे बढ़ने वाले शिव बैरागी जी के उच्च शिक्षा का रास्ता साफ किया था दूसरे शब्दों में बैरागी जी सुमन जी के शिष्य थे यह बात वह बहुत गर्व से नितांत निजी बातचीत में कहते भी थे एक तरह से वह अपनी शिक्षा-दीक्षा में डॉ सुमन जी का एहसान मानते थे.

उप मंत्री के रूप में बैरागी जी का उज्जैन जाना हुआ उन्होंने अपने गुरुदेव डॉक्टर सुमन से मिलने की इच्छा भी उस समय के अपने प्रशासनिक अफसरों के बीच व्यक्ति की प्रशासन की तरफ से इंतजाम भी हुए डॉक्टर सुमन को बैरागी जी के विश्वविद्यालय पहुंचने की सूचना आधिकारिक रूप से भेजी गई.

अपने मंत्री शिष्य की अगवानी के लिए डॉ शिवमंगल सिंह सुमन जी विश्वविद्यालय के अपने कार्यालय के द्वार पर नियत समय पर खड़े हो गए. सुमन जी के शब्दों में-" दूर से लकदक धोती कुर्ता पहने बैरागी साइकिल से आते दिखाई दिए पोर्टिको में अपनी साइकिल खड़ी कर वह अपने गुरु डॉक्टर सुमन के चरणों में गिर गए."

सुमन जी बैरागी के यह भाव देखकर भाव विभोर हो गए वह अक्सर साहित्यिक महफिलों में इस घटना का जिक्र खासकर करते थे. वह बड़े गर्व से बताते थे बैरागी जी किस बड़े व्यक्तित्व के धनी कवि साहित्यकार थे.

इसी किस्से में यह भी आता है कि बैरागी जी शासन की लाल बत्ती वाली कार से लोक निर्माण विभाग के डाक बंगले में पहुंचे और अधिकारियों से साइकिल मंगाई मंत्री के साइकिल बनाने की बात पर अधिकारी भी हंसते रहे लेकिन इंतजाम करना था तो किया ही. वैरागी जी ने साफ कहा कि मंत्री बैरागी नहीं शिष्य बैरागी अपने गुरुदेव से मिलने जा रहा है इसलिए वह साइकिल से ही विश्वविद्यालय तक जाएंगे.
आप सोच सकते हैं इस युग में ना ऐसे शिष्य मिलेंगे और ना ऐसे गुरु.

किस्सा नंबर दो-
यह साल वर्ष 2005 था हम लोग आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी स्मृति संरक्षण अभियान को गति देने के लिए रायबरेली में एक नए कार्यक्रम की शुरुआत कर रहे थे. पिताजी श्री कमला शंकर अवस्थी के गहरे मित्र होने के नाते आचार्य दिवेदी स्मृति एकल काव्य पाठ "एक शाम बैरागी के नाम" से आयोजित की. व्यवधान के बाद भी विशेष रूप से पितातुल्य बैरागी जी शाम को रायबरेली पहुंच गए.

उस वक्त तक रायबरेली शहर में एकल काव्य पाठ सुनने सुनने का कोई संस्कार नहीं था अतिउत्साह में हम लोगों ने आयोजन तो कर डाला था लेकिन कई तरफ से सुनने के बाद की यह एकल काव्यपाठ क्या होता है हम लोगों का दिल बैठने लगा था हम सब मित्रगण सोचने भी लगे कि कहीं पहला प्रयास ही फ्लॉप गया तो क्या होगा?

खैर बैरागी जी आए और एकल काव्य पाठ में ऐसा समा बांधा की आचार्य जी की स्मृति आयोजनों का सिलसिला चल निकला यह आज तक जारी है. इसके बाद तो रायबरेली शहर में गोपालदास नीरज आदरणीय बेकल उत्साही अशोक चक्रधर आज तमाम से स्वनामधन्य कवियों के एकल काव्य पाठ आयोजित हुए दूसरे शब्दों में कहें कि यहां के लोगों में एकल काव्य पाठ में सिर्फ और सिर्फ एक कवि को सुनने का संस्कार पनप गया. रायबरेली के लोग आज भी वैरागी जी द्वारा राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर श्रद्धा स्वरूप सुनाई गई वह कविता भूल नहीं पाए है.

किस्सा नंबर-3

बैरागी जी के आगमन से हम लोगों का जोश खूब बड़ा एकल काव्य पाठ से आचार्य स्मृतियों से जुड़ा कार्यक्रम बढ़कर सम्मान समारोह तक पहुंच गया. हम लोगों ने देश के श्रेष्ठ पत्रकारों में गिने जाने वाले डॉ वेदप्रताप वैदिक का सिर्फ नाम ही सुना था तय किया कि उन्हें आचार्य द्विवेदी युग प्रेरक सम्मान समर्पित किया जाए. वैदिक जी की स्वीकृति के लिए अपना अनुरोध बैरागी जी के पाले में डाला और बैरागी जी के एक फोन पर वैदिक जी हम लोगों के बीच पधारें और आचार्य जी की स्मृतियों से जुड़ा सम्मान खुशी खुशी ग्रहण करके हम लोगों के उत्साह में चार चांद लगाएं.

बैरागी जी से पिता जी का संबंध हमारी उम्र से अधिक पुराना था कविता सुनने का संस्कार हम लोगों को समझ विकसित होने के पहले ही प्राप्त हो चुका था उसकी वजह यह थी कि पिताजी ने वर्ष 1952 में उन्नाव में पहला कवि सम्मेलन अटल बिहारी इंटर कॉलेज के परिसर में आयोजित किया. 60 वर्ष तक चली इस मुझे समारोह की परंपरा में बैरागी जी लगभग हर साल पधारते थे और उनका रुकना भी घर पर ही होता था यहीं से संपर्कों का सिलसिला अटूट संबंधों में बदलता चला गया.

ऐसे पितातुल्य बैरागी जी को शत-शत नमन. उनके जाने से साहित्य जगत को तो अपूरणीय क्षति हुई ही है अवस्थी परिवार की निजी क्षति भी हुई है.

किस्सा नंबर-4

मंगता बिरादरी से ताल्लुक रखने वाले बालकवि बैरागी जी कभी भी अपने इस रूप को छुपाते नहीं थे कवि सम्मेलन के मंच तक से वह यह कहते थे कि हमारी पृष्ठभूमि मांग कर खाने वालों में से की पिता का साया पहले ही उठ गया था बचपन में आंख खुली तो घीसट कर चलने वाली मां ने पेट के वास्ते हाथ में कटोरा थमा दिया था. मांग कर खाने पढ़ने और जीवन में आगे बढ़ने वाले बैरागी जी को कैसी कैसी परिस्थितियों से गुजरना पड़ा.

वह बताते थे कि कभी कभी कुछ भी ना मिलने पर मां और बेटे को किस तरह भूखों राते गुजारनी पड़ती थी. अपने जीवन के उन दिनों का वह जिक्र बिना संकोच किया करते थे. उनका हमेशा ही कहना रहा कि अपनी पुरानी पृष्ठभूमि में झांक कर देखने से उन्हें ऊर्जा मिलती है जीवन के उन्हीं दिनों ने बैरागी जी में संवेदनशीलता कूट कूट कर भर दी थी.
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