बैसवारा का महानायक: राणा बेनी माधव

जनता जनार्दन संवाददाता , Jun 22, 2011, 19:00 pm IST
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 बैसवारा का महानायक: राणा बेनी माधव

उ.प्र.के मौजूदा रायबरेली तथा उन्नाव जिले के एक बड़े हिस्से में 1857 में क्रांति की जो मशाल जली थी, उसके महाननायक थे राणा बेनीमाधव जिन्होने हजारों किसानो, मजदूरों की मदद से अंग्रेजी राज के दंभ को 18 महीने तक चूर-चूर कर दिया था। तमाम घेराबंदी के बाद भी अंग्रेज राणा तक नहीं पहुंच सके। उस जमाने की  संपन्न और ताकतवर रियासत शंकरपुर के शासक राणा बेनीमाधव प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अगली कतार के प्रमुख नेता और महान संगठनकर्ता थे। राणा बेनीमाधव का समाज के सभी वर्गो पर असर था। व्यापक जनसमर्थन के सहारे ही अवध के ह्दयस्थल में उन्होने अंग्रेजों के खिलाफ जो गुरिल्ला जंग छेड़ी थी,उसकी काट तलाशने के अंग्रेजों को न जाने कितना जतन करना पड़ा था। आखिरी सांस तक राणा लड़ते रहे और उन्होने अंग्रेजों के आगे हथियार नहीं डाले।

राणा आज भी इस अंचल में घर-घर याद किए जाते हैं और लोगों के दिलों में रचे बसे हैं। लेकिन यह स्थानीय निवासियों के लिए कम पीड़ा की बात नहीं है कि रायबरेली की सांसद और यूपीए की मुखिया जिस सोनिया गांधी के जबान खोलते ही बड़े बड़े कारखाने लग जाते हैं, करोड़ों  की परियोजना रायबरेली पहुंच जाती है, उनको राणा की याद की फुरसत नहीं है। अगर होती तो वह वायदा करने के बाद कम से कम राणा की याद में एक स्मारक डाक टिकट तो जारी ही करा सकती थीं। कैसे-कैसे लोगों पर डाक टिकट इस समय जारी हो रहे हैं, यह तो वे जान ही रही हैं।

राणा बेनीमाधव के अधीन रायबरेली 1857-58 में 18 माह तक आजाद रहा और लखनऊ की स्वाधीनता में भी उनके सैनिको की विशिष्ट भूमिका रही। उनकी वीरता से बेगम हजरतमहल भी इतनी प्रभावित थीं कि उनको दिलेरजंग की उपाधि से नवाजते हुए आजमगढ़ की सूबेदारी प्रदान की थी। बेगम ने 7 जुलाई 1857 को जब अवध के शासन की वास्तविक बागडोर अपने हाथ में ली थी तो राणा व उनकी छापामार टोली ही असली मददगार बनी। रायबरेली की जनक्रांति 10 जून 1857 को राणा बेणीमाधव के नेतृत्व में शुरू हुई। पर रायबरेली के अभियान के पूर्व 30 मई 1857 को राणा  लखनऊ में अंग्रेजी सेना के छक्के छुड़ाने के लिए 15,000 जांबाजों के साथ पहुंचे थे। इसी जंग में वह दिलेरजंग बने थे।

राणा ने शंकरपुर के अलावा कई जगहों पर भारी फौज के साथ अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी और छक्के छुडा़ए.राणा के भाई जोमराज सिंह भी अपने 700 सैनिकों के साथ आजादी की जंग में शहीद हुए। यही नहीं एक अन्य आजादी के बहादुर सिपाही वाकर खां 21 साथियों के साथ रायबरेली के टाउनहाल में फांसी के फंदे को चूमते हुए शहीद हुए। राणा बेनीमाधव आजादी के महान नायकों के लगातार संपर्क मे थे और जब उनकी ताकत कमजोर मानी जा रही थी तो जून 1858 में उन्होने बैसवारा में 10,000 पैदल और घुड़सवार सेना फिर से संगठित कर ली थी।

अंग्रेजी दस्तावेज बताते हैं कि 1858 के मध्य में वह कानपुर रोड पर भारी खतरा बन गए थे और उनके समर्थकों की संख्या 85,000 तक पहुंच गयी थी। जाहिर है इनमें अधिकतर ठेठ किसान ही थे। तमाम मोरचों के बाद 11 नवंबर 1858 को राणा बेनीमाधव के किले पर हमले के लिए जब जनरल होप ग्रांट पहुंचा तो राणा ने बिना किसी प्रतिरोध के उसे सौंप दिया। होप को लगा कि राणा आत्मसमर्पण के मूड में हैंस,पर राणा ने जनरल को कहा कि मैं किले की सुरक्षा में लाचार था इस नाते इसे आपको सौंप दिया पर खुद को मैं आपके हवाले नहीं कर सकता क्योंकि मेरा व्यक्तित्व मेरे सम्राट की संपत्ति है। राणा 1500 लोगों के साथ किले से कूच कर गए और डुडिया खेड़ा में और जंगलों में उनका डेरा पड़ा।  24 नवंबर 1858 को राणा बहादुरी से लड़े,पर अंग्रेज भारी पड़े।

अवध के दिलेर बागियों में दिसंबर 1858 तक राणा बेनीमाधव,नरपत सिंह और गुलाब सिंह लड़ते रहे। 17 दिसंबर 1858 को यहीं के भीरा गोविंदपुर में राणा और अंग्रेजों के बीच जोरदार मुकाबला हुआ। इस लड़ाई में राणा काफी घायल हो गए थे पर उनका प्यारा घोड़ा सज्जा उनको हिफाजत से मन्हेरू गांव के पास जंगलों में ले गया और उनकी रात भर रखवाली करता रहा। राणा बेहोश थे। सुबह राणा के मित्र और मन्हेरू के जागीरदार लालचंद स्वर्णकार ने संयोग से ही घायल राणा को देखा तो उनको अपने घर लाए और उनकी सेवा की। पर इसकी खबर अंग्रेजों तक पहुंच गयी। लालचंद की मदद से अंग्रेज राणा की खोज करना चाहते थे लिहाजा उनको जागीर तक का प्रलोभन दिया गया पर लालचंद के आगे कुछ नहीं चली।

अंग्रेज सिपाही उनको पकड़ कर ब्रिगेडियर इवली के पास ले गए और भारी यातना दी गयी। पर लालचंद ने कहा कि मुझसे ज्यादा देश को राणा की जरूरत है। मैं प्राण दे दूंगा पर राणा का पता नहीं बताऊंगा। लालचंद ने राणा के लिए खुद को शहीद कर दिया। यही नहीं  लालचंद के दोनो पुत्र ठाकुर प्रसाद और गोविंद नारायण राणा के बलिदानी जत्थे में पहले ही शामिल हो गए थे। जब लालचंद की गिरफ्तारी की खबर मिली तो उनकी पत्नी रामा देवी ने खुद को कटार मार कर शहीद कर लिया। राणा को बचाने के लिए इस परिवार ने जो बलिदान दिया उसकी आज भी मिसाल दी जाती है और राणा के साथ हमेशा लालचंद को भी याद किया जाता है। हर साल 26 दिसंबर को लालचंद बलिदान दिवस मनाया जाता है। यह राणा के प्रति इलाकाई लोगों के प्यार का एक प्रतीक है। राणा को पासी ,अहीर, कुर्मी लोध, सुनार समेत सभी वर्गो का व्यापक समर्थन था।

रायबरेली के बाद राणा गोमती पार कर फैजाबाद पहुंचे जहां कनर्ल हंट ने उनका रास्ता रोकना चाहा पर वह मारा गया। इसके बाद बहराइच के आसपास राणा गुरिल्ला पद्दति से अंग्रेजों को छकाते रहे। राणा बेनीमाधव को अंग्रेजों ने काफी खोजा और उनको तमाम प्रलोभन देकर माफी मंागने को कहा पर राणा ने इंकार कर दिया और आजादी की बलिबेदी पर शहीद होना बेहतर समझा।   महारानी विक्टोरिया की घोषणा के बाद भी राणा के नेतृत्व में रायबरेली के बहादुर सैनिको ने जंग जारी रखी। आखिर में राणा ने नेपाल की तराई में अपने परिवार की महिलाओं और बच्चों को बेगम हजरत महल के संरक्षण में सौंप दिया। कहा जाता है कि आखिरी समय में राणा के साथ कुल 250 लोग बचे थेे,जिनके सामने राणा ने अपनी सारी धन दौलत रख कर कहा कि जो भी जाना चाहे मनचाहा धन लेकर लौट जाये और जो वीरतापूर्वक मरना चाहे मेरे साथ रहे। पर दो लोगों को छोड़ कर बाकी सब जंग में आखिर तक रहे। भले ही इस जंग में राणा का परिवार तबाह हो गया और तंगहाली में जीता रहा पर आखिरी सांस तक राणा ने जंग लडी। उनके पास अंग्रेजों की तुलना में हथियार नाम मात्र के थे पर देश की आजादी की जज्बा उनमें था और इसी मनोबल के सहारे वे लड़ते रहे। 

मार्टिन के मुताबिक नेपाल के राणा जंगबहादुर की सेना से मुकाबला करते हुए वे नेपाल की तराई में नवंबर 1859 में शहीद हो गए । हालांकि राणा के आखिरी दिनो के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती है। किस्से कहानियों में बहुत सी बातें कही जाती हैं। कुछ लोग बताते हैं कि आखिरी दिन राणा ने सन्यासी के रूप में बिताया था और बैसवारा भी आए थे। यह भी उल्लेखनीय है कि राणा बेनीमाधव सिंह के पत्र रघुराज सिंह का विवाह बिहार के महान सेनानी बाबू कुंवर सिंह की बेटी से हुआ था।
राना बेनी माधव बैसवाड़ा के गौरव के रूप में कथा-कहानियों तथा लोकगीतों के नायक बने हुए हैं। उनकी दिलेरी के लोकगीत गांवो मे गाए जाते हैं। वे इतने लोकप्रिय हैं कि उनकी याद में केवल लोकगीत ही नहीं भजन तथा कीर्तन और होली गीत तक बन गए हैं। एक लोकगीत खास तौर पर गाया जाता है---

अवध में राना भयो मरदाना
पहिला लड़ाई भई भीरा मा बूढ़े सुरन मैदाना
तोपन की झनकारन महिमा हुइगै गीध मसाना
दुसर लड़ाई भै सिमरी मा पूरवा भवा मैदाना
बेहडा में बेनीमाधौ आय काटि किहिन खरिहाना.
हाथ सिरोही,बगल मे भाला घोड़ा चलै मनमाना
कहै दुलारे सुन पिया प्यारे दक्किन किहो पयाना.


2005 में रायबरेली प्रेस क्लब तथा उसके बाद 2006 और 2007 में फीरोज गांधी कालेज और ऊंचाहार प्रेस क्लब के आमंत्रण पर मैं राना बेवीमाधव की कर्मभूमि शंकरपुर का दौरा किया और राणा से संबंधित बहुत सी जानकारियां एकत्र कीं। वरिष्ठ पत्रकार फीरोज नकवी तथा आशीष कुमार सिंह मेरे साथ थे। रायबरेली प्रेस क्लब के अध्यक्ष प्रेम नारायण द्विवेदी तथा हिंदुस्तान के संवाददाता गौरव अवस्थी ने काफी प्रयास करके राणा बेनीमाधव की याद को स्थाई बनाने के लिए एक डाक टिकट जारी कराने के लिए खुद और कई संस्थाओं की ओर से संचार मंत्री और यूपीए अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी को पत्र लिखा। पूर्व संचार मत्री दयानिधि मारन ने एक बातचीत में मुझसे कहा था कि टिकट जारी होगा। लेकिन 30 जुलाई 2008 को डाक भवन में संपन्न फिलैटली सलाहकार समिति की बैठक में 2008 के बाकी और 2009 के लिए जारी होनेवाले टिकटों का जो कार्यक्रम तय किया गया उसमें राना पर किसी टिकट जारी करने की बात नहीं है।

शंकरपुर जगतपुर विकास खंड के तहत आता है। इसका ऐतिहासिक महत्व है। महान नायक राना बेनीमाधव का ऐतिहासिक किला तथा भवानी मंदिर दर्शनीय है। किला कभी जो कभी छह किलोमीटर में फैला था, अंग्रेजों द्वारा तहस नहस कर दिया गया। राणा बेनी माधव की राजधानी शकरपुर रायबरेली से करीब 20 किलोमीटर की दूरी पर है,पर यहां राणा की यादें खंडहर में बदल चुकी हैं । केवल दुर्गा मंदिर बचा है जिसके बारे में कहा जाता है कि इसकी मूर्ति स्थापना खुद राणा ने करायी थी। इसी नाते यह मंदिर दूर-दूर तक सरनाम है और लोग मंदिर दर्शन के बहाने बड़ी संख्या में आकर राणा की भी याद करते हैं। उनकी याद में मंदिर के सामने एक इंटर कालेज भी है और रायबरेली जिला अस्पताल का भी उनके नाम पर है। 30 जुलाई 2007 को राणा के सम्मान में आयोजित एक कार्यक्रम में सोनिया गांधी भी पहुंची थी। मंदिर से ही कुछ दूरी पर उण्डवा गांव में राना की जन्ममभूमि है। इस गांव में भी राना ने चतुर्भुज मंदिर व एक पोखरा बनवाया था। आज भी राणा की याद दिलाता है।  पर गांव काफी गरीब है। राना का महल तोपों  से जमींदोख कर दिया गया था वहां आज झोपडिय़ां पड़ी हैं। आज भी रायबरेली में राणा जन-जन में इस कदर समाए हैं कि स्थानीय लेखक व कवि उन पर लगातार कलम चला रहे हैं।

अरविंद कुमार सिंह
अरविंद कुमार सिंह 7 अप्रैल 1965 को उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में जन्मे अरविंद कुमार सिंह ने पत्रकारिता और लेखन की दुनिया में बड़ा नाम कमाया है। पत्रकारिता की शुरूआत 1983-84 में दैनिक जनसत्ता से। चौथी दुनिया, अमर उजाला, जनसत्ता एक्सप्रेस, इंडियन एक्सप्रेस (लखनऊ संस्करण) तथा दैनिक हरिभूमि में लंबे समय तक कार्य। आकाशवाणी, दूरदर्शन, लोकसभा टीवी और कई अन्य टीवी चैनलों पर नियमित विषय विशेषज्ञ । दिल्ली सरकार की प्रेस मान्यता समिति समेत कई समितियों के सदस्य भी रहे। विभिन्न विश्वविद्यालयों में अतिथि प्राध्यापक और परीक्षक। 'भारतीय डाक: सदियों का सफरनामा' पुस्तक हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू तथा कई भारतीय भाषाओं में एन.बी.टी. द्वारा प्रकाशित। पुस्तक का एक खंड एनसीईआरटी द्वारा आठवीं कक्षा के हिंदी पाठ्यक्रम में। हिंदी अकादमी द्वारा साहित्यकार सम्मान (पत्रकारिता), इफ्को हिंदी सेवी सम्मान-2008, विद्याभाष्कर पुरस्कार, गणेश शंकर विद्यार्थी स्मृति समाजोत्थान और रचनात्मक पत्रकारिता पुरस्कार समेत दर्जन भर पुरस्कारों से सम्मानित।

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