बाबू बनारसी दास:एक समर्पित जनसेवक

बाबू बनारसी दास:एक समर्पित जनसेवक नई दिल्ली: राजनीति और राजनीतिक दलों को लेकर आज बहुत तरह की नकारात्मक टिप्पणियां की बाढ़ सी आ गयी है। ऐसी टिप्पणियों का असर यह हुआ है कि राजनेताओं ही नहीं संसद औऱ विधानसभाओं जैसी सबसे बड़ी लोकतांत्रिक संस्थाओं की छवि भी आहत हो रही है। लेकिन ऐसी चर्चा करते समय हम इस बात को भूल जाते हैं कि भारतीय राजनीति का एक गौरवशाली अतीत रहा है।

आज भी सामाजिक सरोकारों के प्रति रात-दिन सजग राजनेता हमारे बीच हैं। लेकिन उनको हम याद भी नहीं करते हैं। इसी दौर में हमें बाबू बनारसी दास जैसे नेता की याद आती है, जिनका आजादी की लड़ाई में तो योगदान था ही राष्ट्रनिर्माण और खास तौर पर उत्तर प्रदेश के विकास में अहम भूमिका रही है। इसी साल उनकी जन्म शताब्दी भी शुरू हो रही है।

बाबूजी के नाम से जनता में विख्यात बनारसी दास ने छात्र जीवन से ही अंग्रेजी राज के खिलाफ मोरचा खोल दिया था। उस दौरान उन्होंने भारी यातनाओं को सहा। लेकिन अपने लक्ष्य से वे न कभी भटके न ही विचलित हुए। कठिन से कठिन माहौल में भी धैर्य और सच्चाई से वे चलते रहे और सामाजिक सरोकारों के प्रति भी वे हमेशा सजग-सचेत रहे।

बुलंदशहर जिले के उटरावली गांव में में 8 जुलाई 1912 को एक प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में जन्मे बनारसी दास की प्राथमिक शिक्षा गांव के ही प्राइमरी स्कूल में शुरू हुई। छठीं कक्षा में उन्होंने बुलंदशहर के राजकीय विद्यालय में प्रवेश लिया। लेकिन वे बहुत कठिन दिन थे और उनको अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए ट्यूशन भी करना पड़ा।

1928 में वे विधिवत भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए जो उस दौर में आजादी की लड़ाई में सबसे अग्रणी भूमिका में थी। स्वतंत्रता संग्राम में वे कई बार जेल गए और भारी यातनाऐं भीं सहीं। वे दिन रात लोगों को स्वाधीनता के लिए संगठित करते रहे और जल्दी ही जनता में बेहद लोकप्रिय हो गए। उनकी लोकप्रियता तथा जनता के बीच सम्मान का अंदाज इससे ही लगाया जा सकता है कि वे 1946 के विधानसभा चुनाव में बुलंदशहर से निर्विरोध चुने गए और इसी साल बुंलदशहर कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष भी बने।

बुलंदशहर में 3 नवंबर 1929 को महात्मा गांधी का आगमन हुआ और उनकी कई सभाओं में भारी भीड़ उमड़ी। इसी तरह नमक सत्याग्रह को लेकर भी गांव-गांव में अलख जगी। इसी दौर में बनारसी दास के युवा मन में भी भारी उथल-पुथल हुई और उन्होंने खुद को देशसेवा के लिए समर्पित करने का व्रत ले लिया। 1 अप्रैल 1930 को उत्तर प्रदेश के तत्कालीन गवर्नर सर मेलकम हेली की बुलंदशहर यात्रा का विरोध करते हुए बाबूजी ने लाठियां खायीं और फिर गांव-गांव युवकों को गोलबंद करने तथा जनजागरण के काम में जुट गए।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में स्वतंत्रता संग्राम में गुलावठी कांड बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। इस कांड के नायक बाबू बनारसी दास ही थे। 12 सितंबर 1930 को गुलावठी में उनके ही नेतृत्व में एक बड़ी जनसभा आयोजित की गयी थी। लेकिन इस शांतिपूर्ण सभा पर पुलिस ने 23 राउंड गोली चलायी और 8 लोग शहीद हो गए। इस कांड में आसपास के गांवों से कुल एक हजार लोगों को  पकड़ा गया और 45 लोगों पर मुकदमा चला। बनारसी दास भी जेल भेजे गए। जेल में उनका झुकाव क्रांतिकारी गतिविधियों की ओर हो गया। 15 फरवरी 1936 को श्रीमती विद्यावती देवी के साथ गाजियाबाद में उनका विवाह भी संपन्न हुआ। श्रीमती विद्यावती देवी ने भी उनका पूरा साथ दिया।

भारत छोड़ो अंदोलन और व्यक्तिगत सत्याग्रह में भी बाबूजी  2 अप्रैल 1941 को गिरफ्तार हुए। उनको पहले 6 माह की सजा तथा 100 रूपए जुर्माना किया गया था,पर बाबूजी ने जुर्माना देने से इंकार कर दिया और तीन माह की अतिरिक्त सजा उनको मिली। इसी तरह अगस्त 1942 में भी बाबूजी को खतरनाक मानते हुए गिरफ्तार कर लिया गया था और उनको नजरबंदी में रखा गया। 21 सितंबर 1942 को बुलंदशहर जेल मे बाबूजी को काफी यातनाऐं दी गयीं। इसके बाद 5 फरवरी 1943 को धारा 52 प्रिजनर्स एक्ट के तहत तत्कालीन अंग्रेजी कलेक्टर हार्डी ने रात को जेल खुलवा कर बाबूजी को बैरक से निकाल कर,उनके  कपड़े उतरवा  कर जामुन के पेड़ से बांध कर तब तक प्रहार किए गए जब तक वह बेहोश नहीं हो गए।

आजादी मिलने के बाद सत्ता के बजाय बाबूजी सेवा मे ही लगे रहे। 1947 में बुलंदशहर में जब 20,000 से अधिक पाकिस्तान से विस्थापित बेघरबार लोग पहुंचे तो अजीब अफरातफरी थी। बाबूजी के नेतृत्व में स्थान-स्थान पर कमेटियां बनीं और उनको ठहराने तथा भोजन आदि का प्रबंध हुआ। बाबूजी के निजी प्रयासों से जिले के बहुत से व्यापारियों और उद्यमियों ने तमाम विस्थपितों को रोजगार देकर उनको नया जीवन दिया।

अपनी संगठन क्षमता, जनाधार तथा योग्यता से बाबू जी लोकसभा, राज्यसभा और विधानसभा के सदस्य तो बने ही देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री, कई विभागों के मंत्री, राज्यसभा के कार्यवाहक सभापति, उत्तर प्रदेश में विधानसभा के अध्यक्ष जैसे अहम पदों पर भी विराजमान रहे। उनकी सबसे बड़ी खूबी यह रही कि वे जिस किसी भी पद पर रहे, एक नजीर कायम की। सबसे पहले वे 1962 से 1966 तक उत्तर प्रदेश के सूचना, श्रम, सहकारिता और संसदीय कार्य जैसे अहम विभागों के मंत्री रहे। इन दौरान राज्य में उन्होंने कई नयी योजनाऐं शुरू कीं।

 बाबूजी 28 फरवरी 1979 से 18 फरवरी 1980 तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। हालांकि यह दौरान राजनीतिक लिहाज से बेहद नाजुक और संवेदनशील था। बाबूजी लेकिन उन्होंने दिन-रात लग कर सराहनीय सेवाऐं प्रदान कीं। उनके इस दौर में ग्रामीण विकास और कुटीर उद्योगों के साथ सहकारिता के विकास की दिशा में कई अहम फैसले लिए गए और काफी काम हुए। उन्होंने मुख्यमंत्री के रूप में विशाल सरकारी कोठी में रहने की जगह कैंट के अपने मकान मे ही रहना पसंद किया और लोगों से पहले जैसे जी उसी मकान में मिलते जुलते रहे। आज छोटा पद पाने पर भी लोगों के व्यवहार को बदलते देर नहीं लगती लेकिन उनमें कभी कोई बदलाव या बनावटी पन नहीं दिखा। इस तरह उन्होंने मितव्ययता की मिसाल भी कायम की।

बाबूजी के व्यक्तित्व की कई खूबियां थी। उच्च शिक्षित न होने के बावजूद उनका ज्ञान भंडार विशाल था। उनकी सूझबूझ और प्रशासनिक पकड़ का लोहा दिग्गज नेता और प्रशासक मानते थे। उनको हिंदी ही नहीं अंग्रेजी भाषा की भी इतनी व्यापक जानकारी थी कि तमाम बड़े विद्दान और अधिकारी उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहते थे। यह बात कम ही लोग जानते है कि उनका अंग्रेजी ज्ञान का विस्तार जेल यात्राओं के दिनों में हुआ। एक बार तत्कालीन राष्ट्र्पति डा.राधाकृष्णन अंग्रेजी में भाषण दे रहे थे, लेकिन उनका अनुवाद करने वाला कोई उपलब्ध नहीं था। बाबूजी उठे और उन्होंने खुद उनके भाषण का बहुत सरल भाषा में अनुवाद करना शुरू कर दिया। इसकी राष्ट्रपति समेत सभी ने सराहना की। बाबूजी को संस्कृत का भी व्यापक ज्ञान था और गीता से लेकर उपनिषदों तक पर उनकी गहरी पकड़ थी।

लेकिन उनके व्यक्तित्व की सबसे अहम खूबी उनकी सांप्रदायिकता विरोधी सोच थी। वे सांप्रदायिकता के मुखर विरोधी और अमन तथा भाईचारे के प्रबल पैरोकार थे। बहुत बेबाकी से वे आम आदमी और गरीबों के प्रगति के साथ सामाजिक एकता की पैरोकारी करते रहे। उनका कहना था कि-
लोकतंत्र में जिस प्रकार का समाज बनाने की कल्पना हम करते हैं ,जिस तरह गरीब आदमी तक समाजिक न्याय और प्रगति के अवसरों को पहुंचाने का लक्ष्य हम रखते है ,वह सामाजिक एकता, भाईचारे और आगे बढऩे की दृढ़ इच्छा के बिना संभव नहीं हो सकता है।

राजनेताओं में आज कल दलीय राजनीति की बदलती शैली के चलते साहस की काफी कमी देखी जा रही है। लेकिन बाबू बनारसी दास में साहस कूट-कूट कर भरा था।  चाहे प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू हों या उत्तर प्रदेश के दिग्गज नेता चंद्रभानु गुप्ता,  सबके समक्ष उन्होने वे बातें कहीं जो उनको सही लगीं। हालांकि उनकी साफगोई और स्पष्टवादिता ने उन्हें कई बार राजनीतिक तौर पर घाटे में रखा लेकिन उन्होंने इसकी परवाह नहीं की। उनके साहस ने उन्हें कई दिग्गज नेताओं का प्रिय भी बनाया।

1939 में कांग्रेस अधिवेशन में बाबूजी ने बड़े पदाधिकारियों को छोटे मकानो में रहने का सुझाव दिया था। 1952 में कांग्रेस के खुले अधिवेशन में उन्होंने पंडित जवाहर लाल नेहरू के प्रस्ताव का खुला विरोध करने का साहस किया। नेहरू जी उनके विचारों से इतना प्रभावित हुए कि उन्हें संसदीय सचिव बनाने का फैसला कर लिया।

बाबू बनारसी दास ने दलितोद्धार आंदोलन में भी अहम भूमिका निभायी थी और तमाम कठिन मौंकों पर समाज के सबसे दबे-कुचले तबकों के साथ वे खड़े हुए। उनके चलते कई जगहों पर दलित-वंचित तबकों को सार्वजनिक कुओं से पानी लेने औऱ मंदिरों तथा धर्मशालाओं में प्रवेश का मौका मिला। इसी दौरान सहभोज का आयोजन करने के साथ, उनकी बस्तियों में सफाई अभियान चला तथा अनेठ पाठशालाऐं उनके बच्चों को शिक्षित बनाने के लिए खोली गयीं। उनका मानना था कि -

हरिजनों तथा अन्य कमजोर वर्गोके उत्पीडऩ तथा अस्प्रश्यता को लेकर झगड़े हमार समाजिक जीवन पर कलंक हैं। इसे दूर करनेके लिए महात्मा गांधी ने  संपूर्ण समाज को एक पूर्ण इकाई के रूप में विकसित करने का आव्हान किया था। जिसमें ऊंच नीच तथा भेदभाव की भावना न हो और सब मिल कर भाई-भाई की तरह अपना अपना काम करें।

गांवो के ठोस विकास के प्रति वे बेहद सजग रहते थे। जब भी उनको मौका मिला उन्होंने कई अहम कामों को अंजाम दिया। उनका बहुत साफ मत था कि -
हिंदुस्तान गांवों के अंदर रहता है और जब तब गांवो की तरक्की नहीं होती,तब तक शहरों की तरक्की नहीं हो सकती है। गांवों की क्रयशक्ति को बढाने के लिए हमको कारगर कदम उठाने होंगे। हमें ऐसी योजना और कार्यक्रम चलाने होंगे जिससे अत्याधिक लाभ निर्धन लोगों को मिले। वे स्वालंबन की भावना से ओतप्रोत हों और अपने पैरों पर खडे हो सकें।

बाबू बनारसी दास एक जुझारू पत्रकार भी थे। उनके  संपादन में प्रकाशित साप्ताहिक हमारा संघर्ष उनके निर्भीक संपादक के रूप का दर्शन कराता है। यही नहीं देश के कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित उनके लेख उनके ओजस्वी विचारों की सहज अभिव्यक्ति करते हैं। अपने मुख्यमंत्री काल में बाबूजी ने उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों के स्वतंत्रता सेनानियों के परिचय ग्रंथों को प्रकाशित करने का आदेश दिया। इससे इतिहास में तमाम भूले-बिसरे सेनानियों की जीवन गाथा पर प्रकाश पड़ सका। वे चाहते थे कि नयी पीढी खास तौर पर जाने कि कितने बलिदानों के बाद यह आजादी मिली है. इससे वे इसकी कीमत समझेंगें औऱ इसकी रक्षा की ललक हमेशा उनमें बरकरार रहेगी।

बाबू बनारसी दास को हमेशा व्यापक जन समर्थन लगातार मिला जिसके नाते वे चुनावों में जीतते रहे। हालांकि उनके मुकाबले लडऩे वाले हमेशा धनबल और ताकत में उनसे बीस ही दिखते थे। उनकी निजी प्रतिष्ठा कितनी थी, इसका अंदाज 1983 के बुलंदशहर लोकसभा उपचुनाव से लगाया जा सकता है जिसे उन्होंने निजी प्रभाव से जीता। 1984 में भी बुलंदशहर से उनको चुनाव लडऩे को कहा गया लेकिन उन्होंने विनम्रता से अपनी अनिच्छा व्यक्त कर दी। बाबूजी कहा करते थे कि राजनीति मे भी सेवानिवृत्ति की सीमा तय कर देनी चाहिए ताकि नीचे के कार्यकर्ता ऊपर के नेताओं की मृत्यु की राह न देखनी पड़े। शायद अपनी इसी भावना के तहत ही उन्होंने 72 साल के आयु में चुनावी राजनीति से सन्यास ले लिया था।

ग्रामीण उद्योगों के विकास के प्रति भी उनकी काफी दिलचस्पी थी। उन्होंने 1977 में खादी ग्रामोद्योग चिकन संस्थान की स्थापना की। उन्होंने कई सामाजिक संस्थाएं भी बनायीं जो आज भी काम कर रही हैं। बाबू बनारसी दास का स्वर्गवास 3 अगस्त 1985 को हो गया था। वैसे तो तमाम जगहों पर नेताओं की प्रतिमाऐं सरकार लगवाती हैं,पर बुलंदशहर के नागरिकों ने उनकी याद में खुद प्रतिमा लगवा कर उनके प्रति अनुराग और आत्मीयता का अनूठा परिचय दिया।



अरविंद कुमार सिंह
अरविंद कुमार सिंह 7 अप्रैल 1965 को उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में जन्मे अरविंद कुमार सिंह ने पत्रकारिता और लेखन की दुनिया में बड़ा नाम कमाया है। पत्रकारिता की शुरूआत 1983-84 में दैनिक जनसत्ता से। चौथी दुनिया, अमर उजाला, जनसत्ता एक्सप्रेस, इंडियन एक्सप्रेस (लखनऊ संस्करण) तथा दैनिक हरिभूमि में लंबे समय तक कार्य। आकाशवाणी, दूरदर्शन, लोकसभा टीवी और कई अन्य टीवी चैनलों पर नियमित विषय विशेषज्ञ । दिल्ली सरकार की प्रेस मान्यता समिति समेत कई समितियों के सदस्य भी रहे। विभिन्न विश्वविद्यालयों में अतिथि प्राध्यापक और परीक्षक। 'भारतीय डाक: सदियों का सफरनामा' पुस्तक हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू तथा कई भारतीय भाषाओं में एन.बी.टी. द्वारा प्रकाशित। पुस्तक का एक खंड एनसीईआरटी द्वारा आठवीं कक्षा के हिंदी पाठ्यक्रम में। हिंदी अकादमी द्वारा साहित्यकार सम्मान (पत्रकारिता), इफ्को हिंदी सेवी सम्मान-2008, विद्याभाष्कर पुरस्कार, गणेश शंकर विद्यार्थी स्मृति समाजोत्थान और रचनात्मक पत्रकारिता पुरस्कार समेत दर्जन भर पुरस्कारों से सम्मानित।