भारत के रत्न- बाबू बनारसी दास (1912-1985)
अरविंद कुमार सिंह ,
Aug 03, 2013, 13:45 pm IST
Keywords: भारत स्वाधीनता संग्राम राष्ट्र निर्माण ऐतिहासिक योगदान बाबू बनारसी दास Babu Banarasi Das Banarasi Das India's Freedom Struggle Nation Building Historical Contributions Indian Leader Political Values Traditions
3 अगस्त पुण्य तिथि और जन्म शताब्दी पर
भारत के स्वाधीनता संग्राम और फिर राष्ट्र निर्माण में जिन महान जननायकों ने ऐतिहासिक योगदान दिया और अपने कामों से एक आदर्श और प्रेरक के रूप में स्थापित हुए, उनमें बाबू बनारसी दास का नाम बहुत सम्मान से लिया जाता है। इसी नाते आम जन मानस ने उनको बाबूजी जैसा बेहद सम्मानजनक संबोधन दिया जो देश में नेताजी सुभाष चंद्र बोस, डा. राजेंद्र प्रसाद और बाबू जगजीवन राम जैसे कुछ बिरले नेताओं को ही हासिल हो सका था। स्वयं में एक चलती फिरती संस्था बाबू बनारसी दास ने मूल्यों और परंपराओं की रक्षा जीवन भर की। बाबू बनारसी दास के मन में बचपन से ही देश की स्वाधीनता का जज्बा पैदा हो गया था। स्वाधीनता संग्राम में एक दौर में उन्होंने क्रांति की राह भी पकड़ी लेकिन जल्दी ही समझ गए कि जनजागरण और महात्मा गांधी की राह पर चलते हुए ही देश को आजादी मिल सकती है। छात्र जीवन से ही वे सामाजिक विसंगतियों, छुआछूत और तमाम कुप्रथाओं के खिलाफ लड़ना शुरू किया और जीवन भर लड़ते रहे। जो उनको सही लगा वे उसी मार्ग पर चले भले ही इसमें उनको राजनीतिक नुकसान क्यों न हुआ हो।उन्होंने हमेशा जन सरोकारों को प्राथमिकता दी और स्वाभिमान से कभी समझौता नहीं किया। एक विधायक से लेकर मुख्यमंत्री और विधान सभा अध्यक्ष तक, सांसद से लेकर राज्य सभा के कार्यवाहक सभापति तक और उत्तर प्रदेश में कैबिनेट मंत्री समेत जिस भूमिका में वे रहे, उन्होंने एक मिसाल कायम की। उनके बनाए सहकारिता माडल ने ही उत्तर प्रदेश में तमाम क्षेत्रों में बदलाव की बुनियाद रखी। कुशल संगठनकर्ता होने के साथ उनमें तमाम खूबियां थीं। वे अगर सादगी का पाठ लोगों को पढ़ाते थे तो खुद सादगी भरा जीवन जीते थे। उनका जीवन एक खुली किताब की तरह रहा है। उन्होंने मुख्यमंत्री रहते हुए भी सरकारी कोठी नहीं ली, न तामझाम रखा। बाहर की यात्राओं के दौरान भी सरकारी साधनों के उपयोग की जगह वे अपने मित्रों के घरों पर रुकते थे। कठिन से कठिन माहौल में भी धैर्य और सच्चाई के साथ चलते हुए बाबूजी ने कभी मूल्यों से समझौता नहीं किया। बड़े से बड़े पदों के प्रलोभन ने उनको प्रभावित नहीं किया। स्वाधीनता संग्राम में भूमिका पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जिले के उटरावली गांव में 8 जुलाई 1912 को बाबू बनारसीदास का जन्म हुआ था। बुनियादी तालीम गांव में हासिल करने के बाद बुलंदशहर के सरकारी स्कूल में छठीं की पढाई के लिए नाम लिखाया। लेकिन देश की दशा को देख कर उनका बाल मन बहुत चिंता में डूब गया। उन्होंने 1927 तक अपने को स्वतंत्रता संग्राम में समर्पित कर दिया और 1928 में नौजवान भारत सभा और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वे सक्रिय कार्यकर्ता बन गए। बुलंदशहर में आजादी के आंदोलन को गति तथा नयी दिशा 3 नवंबर 1929 को महात्मा गांधी के दौरे के बाद मिली। फिर 1930 में नमक सत्याग्रह ने तो गांव-गांव में एक लहर पैदा कर दी। 1930 उनके जीवन का अहम पड़ाव था। 1 अप्रैल,1930 को संयुक्त प्रांत (आज का उत्तर प्रदेश) के तत्कालीन गवर्नर सर मेलकम हेली की बुलंदशहर यात्रा का बाबूजी के नेतृत्व में छात्रों और युवाओं ने जोरदार विरोध किया। विरोध का पुलिस ने जम कर दमन किया और युवाओं पर जमकर लाठियां बरसीं। लेकिन इससे युवा बनारसी दास का उत्साह फीका नहीं पड़ा, वे अंग्रेजी राज के खात्मे के लिए जोर-शोर से जुट गए। कभी पैदल तो कभी साइकिल पर गांव-गांव जाकर युवकों को गोलबंद करते रहे। उनके प्रयासों से एक मजबूत संगठन खड़ा हुआ। 12 सितंबर 1930 को हुए गुलावठी कांड ने बाबूजी को अंग्रजों के आंख की किरकिरी बना दिया। बाबू बनारसी दास के आव्हान पर गुलावठी में एक विशाल जनसभा आयोजित हुई। यह शांतिपूर्ण थी लेकिन पुलिस ने उस पर हमला कर 23 राउंड गोली चलायी जिस नाते आजादी के 8 दीवाने शहीद हो गए। इसके बाद उग्र किसानों ने पुलिस पर भी हमला किया। इस कांड में पुलिस ने करीब एक हजार लोगों गिरफ्तार किया और भारी यातनाएं दीं। बाबूजी समेत 45 लोगों पर मुकदमा चला। 2 अक्तूबर, 1930 को उनको मथुरा से गिरफ्तार करके बुलंदशहर लाया गया। लेकिन जिला औऱ सेशन जज ने युवा बनारसी दास को 14 जुलाई 1931 को मुक्त कर दिया। बाद में 1937 में पहले कांग्रेस मंत्रिमंडल के फैसले के बाद काकोरी के साथ गुलावठी कांड के बंदी मुक्त हो सके। लेकिन गुलावठी कांड के बाद बाबूजी क्रांति की राह पर अग्रसर हो गए और 1935 में अजमेर डीडवाना में क्रांतिकारी अंजुम लाल के साथ वे राष्ट्रीय विद्यालय के सूत्रधार बने। इसी दौरान वे महान क्रांतिकारी सरदार भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद के संपर्क में भी आए। स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय भागीदारी के चलते बाबूजी ने 16 साल की आयु से लेकर कई मौकों पर अंग्रेजी राज की यातना भरी काराओं में कैद रहे। 1930 से 1942 के दौरान ही बाबूजी चार बार जेल रहे और बेड़ी तनहाई से लेकर बेतों की सजा तक पायी। भारत छोड़ो आंदोलन और व्यक्तिगत सत्याग्रह आंदोलन में वे 2 अप्रैल, 1941 को गिरफ्तार हुए। पहले तो उनको छह महीने की सजा दी गयी फिर 100 रूपए का जुर्माना किया गया था। लेकिन जुर्माना देने से इंकार करने पर तीन माह की और सजा मिली। इसी तरह अगस्त 1942 में भी बाबूजी को खतरनाक मानते हुए गिरफ्तार कर लिया गया था और उनको नजरबंदी में रखा गया। 21 सितंबर,1942 को बुलंदशहर जेल मे बाबूजी को ऐसी यातनाऐं दी गयी थीं कि उसकी चर्चा देश भर में हुई। 5 फरवरी,1943 को धारा 52 प्रिजनर्स एक्ट के तहत तत्कालीन अंग्रेजी कलेक्टर हार्डी ने रात को जेल खुलवा कर बाबूजी को बैरक से निकाल कर एक पेड़ से बांध कर तब तक प्रहार जारी रखा, जब तक वे बेहोश नहीं हो गए। लेकिन जेलों में रहने के दौरान भी बाबूजी लगातार पढ़ाई लिखाई और अन्य सार्थक कामों में लगे रहे। जेल यात्राओं ने युवा बनारसी दास को युवाओं का नायक बना दिया। इसी दौरान बाबूजी अपने कामों और संगठन क्षमता से पंडित जवाहर लाल नेहरू, सरदार बल्लभ भाई पटेल, मौलाना आजाद, लाल बहादुर शास्त्री, के. कामराज, सरोजिनी नायडू, गोविंद बल्लभ पंत और सरहदी गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान समेत तमाम चोटी के नेताओं के संपर्क में आ चुके थे। इन्हीं उथल-पुथल भरे दिनों में ही बाबूजी का विवाह गाजियाबाद में 15 फरवरी, 1936 को श्रीमती विद्यावती देवी के साथ संपन्न हुआ। विधान सभा में निर्विरोध निर्वाचन बाबू बनारसी दास की लोकप्रियता तथा जनता के बीच उनके प्रति सम्मान का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि वे 1946 के विधानसभा चुनाव में बुलंदशहर से निर्विरोध चुने गए। इसी साल वे बुंलदशहर कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष भी बन गए। लेकिन सत्ता ने उनको सेवा से विलग नहीं किया। आजादी मिलते ही सबसे पहले बाबूजी ने पाकिस्तान से भारत आए विस्थापितों को सहारा देने में अपने को झोंक दिया और समाज के सामने एक बेहतर उदाहरण प्रस्तुत किया। 1947 में बुलंदशहर में जब 20,000 से अधिक पाकिस्तानी विस्थापित पहुंचे तो जिले भर में अजीब अफरातफरी का आलम था। ये कहां रहेंगे, कैसे रहेंगे, इनको कौन संभालेगा, ये सारी बातें सबके जेहन में तैर रही थीं। लेकिन उनकी सहायता के लिए बाबू बनारसी दास सबसे आगे खड़े थे और उन्होंने सबको गले लगाया। बाबूजी ने जिले के बहुत से व्यापारियों और उद्यमियों को प्रेरित करके विस्थापितों को रोजगार देकर और बसा कर नया जीवन दिया। यह काम सरकारी मदद से नहीं बल्कि समाज की मदद से साकार हुआ। 1946 में आवश्यक वस्तुओं का भारी अकाल था। बाबूजी ने माहौल को समझा और उनके नेतृत्व में कांग्रेसजनों ने राशन कार्ड बनवाने से लेकर सुपात्रों तक कपड़े पहुंचाने की व्यवस्था सुनिश्चित करायी। चीनी और मिट्टी का तेल भी राशनकार्डों के साथ बांटा गया। यहां चोरी और काला बाजारी नहीं हुई। बाद में यही सफल व्यवस्था पूरे प्रदेश में राज्य सरकार ने लागू की। महान संसदविद और कुशल प्रशासक बाबू बनारसी दास अपनी संगठन और प्रशासनिक क्षमता, व्यापक जनाधार तथा योग्यता से लोकसभा,राज्यसभा और विधानसभा के सदस्य तो बने ही, तमाम अहम भूमिकाओं में रहे। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री, कई विभागों के मंत्री, राज्यसभा के कार्यवाहक सभापति, उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष समेत जिसी किसी पद पर वे विराजमान रहे, वहां अपने कामकाज की अमिट छाप छोड़ी। जनता को बेहतर शासन देने के लिए अगर कानूनों को शिथिल करना या कड़ा बनाना पड़ा तो वहां उन्होंने वैसा ही किया। स्वाधीनता संग्राम के सैनिकों और गरीब लोगों की मदद के लिए उनसे जो भी बन पड़ा वे हमेशा करते रहे। 1962 से 1966 के दौरान बाबू बनारसी दास उत्तर प्रदेश के सूचना, श्रम, सहकारिता, बिजली और सिंचाई के अलावा संसदीय कार्य मंत्री रहे। इन सभी विभागों में उन्होंने कई नयी योजनाऐं शुरू कीं। सूचना विभाग ने उनके निर्देश पर जिलावार स्वाधीनता सेनानियों का विवरण खोज कर प्रकाशित किया। वहीं श्रम विभाग में उनके कार्यकाल में आईटीआई का जाल बिछा और कुशल जनशक्ति के प्रशिक्षण की बुनियाद तमाम पिछड़े जिलों में रखी गयी। मुख्यमंत्री का कार्यकाल बाबूजी 28 फरवरी, 1979 से 18 फरवरी, 1980 तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे थे। यह सभी जानते हैं कि उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री भारत में प्रधानमंत्री के बाद सबसे बड़ा ओहदा माना जाता है। लेकिन उन्होंने अपने सीमित मुख्यमंत्री काल में भी तमाम परंपराएं कायम कीं। बाबूजी प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री थे जिन्होंने कालिदास मार्ग की मुख्यमंत्री की सरकारी कोठी हासिल करने के बजाय कैंट के अपने मकान में ही रहना पसंद किया। उसी तरह मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने न लंबा तामझाम रखा न सुरक्षा। हमेशा उऩका प्रयास रहा कि आम आदमी उनसे आसानी से मिल सके। उन्होंने पहली बार मुख्यमंत्री विवेकाधीन कोष को पारदर्शी बनाने के लिए उसके आडिट करने का आदेश दिया। बाबू बनारसी दास राजनीतिक आजादी को ही नाकाफी मानते थे। उनका विचार था कि - राजनीतिक आजादी तो महज एक साधन मात्र है। हमारे सामने सबसे बड़ा सवाल आर्थिक और सामाजिक आजादी हासिल करने का है। असली आजादी है,जनता की अभाव और भय से आजादी। जब तक आम जनता को भय और अभाव से आजादी नहीं मिलती तब तक हमारी मंजिल अधूरी है। इसके लिए हमे निंरंतर आगे बढते हुए गंभीर प्रयास जारी रखने हैं। सामाजिक सरोकारों के प्रति समर्पण आजादी के आंदोलन का कठिन दौर हो या फिर स्वाधीनता के बाद का माहौल, बाबू बनारसी दास ने सामाजिक सरोकारों के साथ अपना जुड़ाव बनाए रखा और दलितोद्धार आंदोलन में भी अहम भूमिका निभायी। वे समाज के वंचित, उपेक्षित और कटे लोगों के साथ हमेशा खड़े रहे। बुलंदशहर जिले के दलित समुदाय को सार्वजनिक कुओं से पानी लेने, मंदिरों तथा धर्मशालाओं में प्रवेश आदि का मौका उनके प्रयासों से मिला। इसी दौरान उनके साथ सहभोज का आयोजन करने के साथ, दलित बस्तियों में साफ-सफाई अभियान भी चलाया गया और अनेठ पाठशालाऐं भी बच्चों को शिक्षित बनाने के लिए खोली गयीं। उन्होंने महज 14 साल की आयु में अपने गांव में आर्य कन्या पाठशाला स्थापित की और बालिकाओं को स्वयं पढ़ाना शुरू किया। 1928 में महज 16 साल की आयु में सहभोज में भाग लेने के कारण सारे गांव ने बाबूजी औऱ परिवार के लोगों का बहिष्कार किया। लेकिन वे अपने अभियान से पीछे रहने वाले नहीं थे और आलम यह रहा कि 1930 तक उटरावली गांव में अस्पृश्यता का लोप हो गया। उनकी मान्यता थी कि- हरिजनों तथा अन्य कमजोर वर्गो का उत्पीड़न और अस्प्रश्यता को लेकर होने वाले झगड़े हमारे समाजिक जीवन पर कलंक हैं। इसे दूर करने के लिए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने संपूर्ण समाज को एक पूर्ण इकाई के रूप में विकसित करने का आह्वान किया था। जिसमें ऊंच-नीच तथा भेदभाव की भावना न हो और सब मिल कर भाई-भाई की तरह अपना अपना काम करें। बाबूजी सामाजिक सरोकारों से जुड़ी कई संस्थाओं के जन्मदाता थे और राजनीतिक व्यस्तता के बावजूद समाज सुधार के कामों के लिए समय निकाल ही लेते थे। खादी और ग्रामोद्योग के विकास के लिए भी उन्होंने बहुत सी योजनाएं चलायीं। दलितों के कल्याण को तो वे यज्ञ के समान मानते थे। वे कई सालों तक उत्तर प्रदेश हरिजन सेवक संघ के अध्यक्ष रहे। वे 1977 से खादी ग्रामोद्योग चिकन संस्थान के संस्थापक तथा अध्यक्ष रहे और जनसेवा ट्रस्ट बुलंदशहर के संस्थापक अध्यक्ष भी। ये संस्थाऐं आज भी काम कर रही हैं। उनके पुत्र राज्य सभा वरिष्ठ सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री डा. अखिलेश दास गुप्ता के मार्गदर्शन में भी कई संस्थाएं उत्तर प्रदेश में काम कर रही हैं। अनूठी संगठन क्षमता बाबू बनारसी दास की संगठन क्षमता अनूठी थी। कांग्रेस संगठन में जमीनी स्तर से लेकर सबसे बड़ी नीति निर्धारक संस्था तक के वे सदस्य जैसी भूमिकाओं में वे रहे। इस तरह उनके पास जिले से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक संगठन में काम करने का व्यापक अनुभव था। उनकी संगठन क्षमता का लोहा उनके धुर राजनीतिक विरोधी भी मानते थे। लेकिन संगठन में वे कितने भी बड़े ओहदे पर रहे हों, आम कार्यकर्ता से वे लगातार संपर्क में रहते थे और उनको ही वे संगठन की असली शक्ति मानते हुए भरपूर आदर देते थे। बाबूजी की संगठन क्षमता का लोहा 1960 में ही देश के तमाम दिग्गज नेताओं ने एक बड़ी घटना के बाद मान लिया था। वह था केंद्रीय नेतृत्व और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के व्यापक समर्थन के बावजूद उनके उम्मीदवार मुनीश्वर दत्त उपाध्याय की हार। उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष पद के ऐतिहासिक चुनाव में बाबू बनारसी दास की संगठन क्षमता के चलते ही बाबू चंद्रभान गुप्ता विजयी हुए। उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री डा. संपूर्णानंद तो श्री उपाध्याय की विजय के प्रति इतने आश्वस्त थे कि उन्होंने सार्वजनिक घोषणा कर दी थी कि अगर उनके उम्मीदवार की पराजय हुई तो वे मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे देंगे। संगठन चुनाव में हुई करारी हार के नाते मुख्यमंत्री डा. संपूर्णानंद को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा और उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक नया अध्याय आरंभ हुआ। संगठन या सरकार के कामों में व्यापक व्यस्तता और रात को 12 से 1 बजे तक बिस्तर पर जाने के बावजूद सुबह पांच बजे जग जाते थे और 6.30 तक लोगों से मिलना-जुलना फिर से चालू हो जाता था। जो काम उनके सामने आय़ा गुण-दोष के आधार पर अगर उसमें दम होता था तो उसे वे तत्काल करने को तत्पर होते थे। लेकिन वे कभी गलत सिफारिश नहीं करते थे और ऐसा करने का आग्रह करने वालों से साफगोई से कह देते थे कि भाई यह काम मैं नहीं कर सकता। इसी साफगोई के नाते उनको राजनीतिक विरोधी भी बहुत आदर करते थे। अगर वे कहीं किसी स्तर का अऩ्याय देखते थे तो तत्काल सड़क पर आ जाते थे। 1984 के सिख दंगों के दौरान रानीगंज (लखनऊ) में एक सिख मिस्त्री की दुकान पर उसके मकान मालिक ने जबरन कब्जा कर लिया। बाबूजी को खबर मिली तो वे सीधे वहीं पहुंचे और ताला तोड़ कर उसे कब्जा दिलाया और कहा कि नाका थाने पर जाकर सूचना दे देना कि बनारसी दास ने खुद ताला तोड़ कर मुझे मेरा हक दिलाया है। बहुआयामी व्यक्तित्व बाबू बनारसी दास के व्यक्तित्व की कई खूबियां थी। आजादी की लड़ाई में बचपन में ही कूद जाने के नाते वे सीमित शिक्षा हासिल कर सके। लेकिन वे जहां मौका पाते थे सीखने और समझने में लगे रहते थे। तभी उनकी सूझबूझ तथा प्रशासनिक पकड़ का लोहा दिग्गज नेता और प्रशासक भी मानते थे। वे हिंदी या उर्दू ही नहीं अंग्रेजी भाषा के भी बड़े जानकार थे। वे शिक्षा के विकास के लिए लगातार सक्रिय रहे और मानते थे कि अगर हम शिक्षित नहीं होंगे तो अपनी स्वतंत्रता की रक्षा नहीं कर सकेंगे। इसी नाते वे जीवन भर गरीब बच्चों को निःशुल्क शिक्षा और बालिकाओं की शिक्षा की पैरोकारी करते रहे। साथ ही व्यवसायपरक उच्च तकनीकी शिक्षा के भी वे पक्षधर थे। बाबू बनारसी दास को संस्कृत का भी गहरा ज्ञान था। गीता से लेकर उपनिषदों तक पर उनकी गहरी पकड़ थी। गांधी जी के साहित्य से लेकर तमाम महत्वपूर्ण किताबों और संसदीय नियम प्रक्रिया का तो उनको इतना ज्ञान था कि वे पेज नंबर और लाइन तक बता देते थे। यहां तक कि यंग इंडिया में गांधी जी ने किस अंक में क्या खास कहा। इसी तरह अपनी कही बातें और वायदे उनको हमेशा याद रहता था। उनको पूरा करने का वे लगातार प्रयास करते थे। जब तक वह पूरा न हो जाये उनको चैन नहीं पड़ता था। चलते फिरते कंप्यूटर सरीखे थे बाबू बनारसी दास। एक और अहम पक्ष यह भी था कि उन्होंने इंग्लैंड, अमेरिका, इटली, जमैका, कैरो, रोम समेत दुनिया की तमाम जगहों के विकास माडल समेत तमाम पक्षों को करीब से देखा था। भारत के तमाम हिस्सों पर तो उनकी व्यापक समझ थी ही। वे जहां गए उस देश को उन्होंने बहुत करीब देखने के साथ बहुत कुछ समझने का प्रयास किया। उनके कामकाज पर इन व्यापक अनुभवों की छाप रही और उन्होंने अपने कामों से मील का पत्थर बनाया। सांप्रदायिक सौहार्द्र के पक्षधर बाबू बनारसी दास किसी भी तरह की सांप्रदायिकता के कट्टर विरोधी और भाई-चारे और अमन के महान पैरोकार थे। सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ वे कड़ा से कड़ा फैसला लेने से भी कभी नहीं हिचके। ऐसा करते समय उन्होंने राजनीतिक नफे-नुकसान की भी कभी परवाह नहीं की। सांप्रदायिकता के मसले पर उनकी बहुत साफ और बेबाक राय थी। उनकी मान्यता थी कि - लोकतंत्र में जिस प्रकार का समाज बनाने की कल्पना हम करते हैं, जिस तरह गरीब आदमी तक सामाजिक न्याय और प्रगति के अवसरों को पहुंचाने का लक्ष्य हम रखते है,वह सब सामाजिक एकता,भाईचारे और आगे बढऩे की दृढ़ इच्छा के बिना संभव नहीं हो सकता है। साहसी राजनेता, बेलाग प्रशासक बाबूजी में साहस कूट-कूट कर भरा था। अगर कहीं उनका किसी से वैचारिक मतभेद रहा तो उन्होंने अपने राजनीतिक कैरियर या पद प्रतिष्ठा के प्रति कोई परवाह किए बिना मन की बात कहने में संकोच नहीं किया । चाहे प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू रहे हों या उत्तर प्रदेश के शिखर नेता और लौह पुरुष कहे जाने वाले बाबू चंद्रभान गुप्ता, सबके समक्ष उन्होंने बेबाकी से वही बातें कहीं जो उनको सही लगीं। हालांकि उनकी यही साफगोई और स्पष्टवादिता ने उनको कई बार भारी राजनीतिक नुकसान पहुंचाया वहीं कई दिग्गज नेताओं का प्रिय भी बनाया। कांग्रेस के खुले अधिवेशन में बाबूजी ने प्रधानमंत्री समेत सभी बड़े ओहदे वालों को छोटे मकानों में रहने का सुझाव दे डाला दिया था। और 1952 में बाबूजीने पंडित जवाहर लाल नेहरू के प्रस्ताव का खुला विरोध करने का साहस किया। लेकिन इस विरोध के बाद भी उनके विचारों से पंडित नेहरू इतना प्रभावित हुए कि उनकी सहमति से ही गोविंद बल्लभ पंत ने उनको संसदीय सचिव बनाने का फैसला किया। यही सब कारण हैं कि जो लोग वैचारिक आधार पर बाबू बनारसी दास के राजनीतिक विरोधी रहे वे भी उनके सच्चरित्र, विचारों की बेबाकी, सच्चाई और अनुशासनप्रियता आदि के नाते उनकी सराहना करते थे। ग्रामीण विकास के प्रति समर्पण बाबू बनारसी दास देश के सर्वांगीण विकास के पक्षधर थे। लेकिन उऩका मानना था कि सबसे पहले ग्रामीण भारत का विकास जरूरी है। देश की संपन्नता का रास्ता गांवों की पगडंडियों और खड़ंजों से होकर गुजरता है। वे ग्रामीण विकास के प्रति बेहद सजग रहते थे। जहां जिस भूमिका में वे रहे इस बात का हमेशा ध्यान रखा कि किसानों और मजदूरों की यथासंभव मदद की जाये। उनका बहुत साफ मत था कि - हिंदुस्तान गांवों के अंदर रहता है और जब तब गांवो की तरक्की नहीं होती,तब तक शहरों की तरक्की नहीं हो सकती है। गांवों की क्रयशक्ति को बढाने के लिए हमको कारगर कदम उठाने होंगे। हमें ऐसी योजना और कार्यक्रम चलाने होंगे जिससे अत्याधिक लाभ निर्धन लोगों को मिले। वे स्वालंबन की भावना से ओतप्रोत हों और अपने पैरों पर खडे हो सकें। जुझारू पत्रकार और लेखक स्वाधीनता संग्राम के कई बड़े नायकों यानि बाल गंगाधर तिलक से लेकर गांधीजी तक ने अखबार निकाले और कई नायक तो बड़े लेखक और पत्रकार भी थे। बाबू बनारसी दास भी एक कर्मठ और जुझारू पत्रकार की भी भूमिका में थे। उनके नेतृत्व में प्रकाशित साप्ताहिक हमारा संघर्ष उनके निर्भीक संपादक के रूप का दर्शन कराता है। साठ के दशक के आखिर में इस अखबार का प्रकाशन आरंभ हुआ औऱ इसके हरेक अंक में तत्कालीन परिस्थितियों का बहुत बेबाकी और साहस के साथ विश्लेषण देखने को मिलता था। इस पत्र के माध्यम से बड़े से बड़ा सत्ताधीशों पर भी बाबूजी ने समय समय पर प्रहार किया और उनकी गलत नीतियों का विरोध किया। इतना ही नहीं देश के कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित उनके लेख उनके ओजस्वी विचारों की सहज अभिव्यक्ति करते हैं। बाबूजी स्वाध्यायी थे। वे जहां भी रहते स्थानीय अखबारों को भोर में ही देख लेते थे। भोजनोपरांत भी वे बाहर के अखबार देखते थे। इससे वे पूरी तरह अपडेट रहते थे। राजनीति हो या समाज को प्रभावित करने वाली घटनाएं सब पर उनकी पैनी निगाह रहती थी। 10 अक्तूबर 1979 को दैनिक जागरण के लखनऊ संस्करण का उद्घाटन बाबू बनारसी दास ने किया और मीडिया की भूमिका पर आधा घंटा धारा प्रवाह बोले तो उनके मीडिया ज्ञान पर कई महारथी चकरा गए। उन्होंने रोटरी मशीन का बटन दबाया तो कुछ ही देर बाद उनके हाथ में अखबार था जिसमें उनके भाषण का पूरा अंश और तस्वीर भी छपी थी। उन्होंने सारी मशीनों की जानकारी ली और तमाम नयी प्रौद्योगिकी को समझने में काफी समय लगाया। बाबू बनारसी दास का स्वर्गवास 3 अगस्त 1985 को हो गया था। वैसे तो तमाम जगहों पर नेताओं की प्रतिमाऐं सरकार लगवाती हैं, पर बुलंदशहर के नागरिकों ने उनकी याद में खुद प्रतिमा लगवा कर उनके प्रति अनुराग और आत्मीयता का अनूठा परिचय दिया। आज भी देश औऱ विशेष कर उत्तर प्रदेश के लोग उनके किए गए ऐतिहासिक कार्यों को याद करते हैं और उनके जीवन से प्रेरणा लेते हैं।
अरविंद कुमार सिंह
7 अप्रैल 1965 को उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में जन्मे अरविंद कुमार सिंह ने पत्रकारिता और लेखन की दुनिया में बड़ा नाम कमाया है। पत्रकारिता की शुरूआत 1983-84 में दैनिक जनसत्ता से। चौथी दुनिया, अमर उजाला, जनसत्ता एक्सप्रेस, इंडियन एक्सप्रेस (लखनऊ संस्करण) तथा दैनिक हरिभूमि में लंबे समय तक कार्य। आकाशवाणी, दूरदर्शन, लोकसभा टीवी और कई अन्य टीवी चैनलों पर नियमित विषय विशेषज्ञ । दिल्ली सरकार की प्रेस मान्यता समिति समेत कई समितियों के सदस्य भी रहे। विभिन्न विश्वविद्यालयों में अतिथि प्राध्यापक और परीक्षक।
'भारतीय डाक: सदियों का सफरनामा' पुस्तक हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू तथा कई भारतीय भाषाओं में एन.बी.टी. द्वारा प्रकाशित। पुस्तक का एक खंड एनसीईआरटी द्वारा आठवीं कक्षा के हिंदी पाठ्यक्रम में। हिंदी अकादमी द्वारा साहित्यकार सम्मान (पत्रकारिता), इफ्को हिंदी सेवी सम्मान-2008, विद्याभाष्कर पुरस्कार, गणेश शंकर विद्यार्थी स्मृति समाजोत्थान और रचनात्मक पत्रकारिता पुरस्कार समेत दर्जन भर पुरस्कारों से सम्मानित।
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