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स्वाधीनता की गौरव-गाथा: 'अग्निकन्या' पार्वती गिरि ने जब ब्रिटिश कोर्ट पर किया कब्जा
लेखक: प्रो. सुजीत पृसेठ; अनुवाद- दिनेश कुमार माली ,
Aug 10, 2025, 19:16 pm IST
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![]() पश्चिम ओड़िशा के बरगढ़ में एक तरफ जीरा नदी बारिश के पानी से उफान पर थी। उसकी परवाह किए बिना ही वह उफनती जीरा नदी को पार करते हुए बरगढ़ शहर के एसडीओ कार्यालय में पहुंची। ब्रिटिश शासन काल में एसडीओ के कार्यालय में हर समय नौकरी पाने वालों की भीड़ लगी रहती थी। भीड़ को काटते हुए वह एसडीओ बी मुखर्जी के सरकारी कार्यालय में पहुंची। 'बाएरी' ने एसडीओ की सरकारी कुर्सी पर कब्जा करके सरकारी कार्यालय को बेदखल कर दिया। अपना परिचय देते हुए कहा, 'मैं महात्मा गांधी की सैनिक हूँ'।' उसके बाद 'बाएरी' ने उपस्थित पुलिसकर्मियों को एसडीओ को बांधकर लाने का निर्देश दिया। उस दिन पार्वती गिरि की 'बाएरी' की विशिष्ट पहचान 'अग्निकन्या' के रूप में बनी। पार्वती गिरि का जन्म 19 जनवरी, 1926 को धनंजय गिरि के घर सम्लेईपदर गांव में हुआ था। गिरि ने चौदह वर्ष की आयु से ही स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेना शुरू कर दिया था। उतनी कम उम्र में स्वतंत्रता संग्राम और रचनात्मक कार्यों का प्रशिक्षण लेने हेतु पुण्यपीठ वरी आश्रम में योगदान देने लगी। वरी आश्रम से संबलपुर जेल। वहां से रिहा होने के बाद पार्वती गिरि महाराष्ट्र के वर्धा में महात्मा गांधी द्वारा परिकल्पित आश्रम सेवाग्राम पहुंचीं। पार्वतीगिरि को उनके दृढ़ संकल्प, त्याग, कड़ी मेहनत और अथक परिश्रम और सेवाभाव के कारण सभी प्यार करते थे। उन्होंने सेवाग्राम में सेवा और रचनात्मक कार्य का प्रशिक्षण प्राप्त किया। सन 1949 में डॉ. हरेकृष्ण महताब से प्रेरणा पाकर उच्च शिक्षा हेतु प्रयाग महिला विद्यापीठ में भर्ती हुई। वहाँ उन्हें हिन्दी साहित्य की अनुपम कवयित्री महादेवी वर्मा का सान्निध्य लाभ हुआ। पार्वतीगिरि के सेवाभाव, अथक और दृढ़ परिश्रम और असीम साहस ने कवि महादेवी वर्मा को बहुत प्रभावित किया। कालांतर में देश की आजादी के बाद पार्वतीगिरि ने गोपबंधु चौधरी और रमादेवी की सलाह पर असहायों की मदद और सेवा को अपने जीवन में व्रत के रूप में स्वीकार कर लिया। सम्लेईपदर से आरंभ कर पार्वतीगिरि ने ओडिशा और महाराष्ट्र के कई हिस्सों का दौरा किया। उन्होंने गरीबी के कहर को बहुत करीब से देखा। गरीबी से त्रस्त छोटे बच्चों, असहाय महिलाओं के दयनीय जीवन से वह परिचित हुई। ममतामयी पार्वतीगिरि का दिल अनाथ नन्हें बच्चों, असहाय महिलाओं की आंखों में आंसू देखकर कराह उठता था। उनकी सहायता के लिए उन्होंने आश्रम की स्थापना करने का निर्णय लिया। श्री नृसिंहनाथ के निकट अपने हाथों से जंगली झाड़ी साफ कर पाइकमाल में कस्तूरबा गांधी मातृ निकेतन की स्थापना कर अनाथ बच्चों और असहाय महिलाओं के लिए आशा और विश्वास की प्रतीक बनीं। सम्लेईपदर की 'बाएरी' अपने अंतर्मन की चेतना की प्रेरणा से रूपांतरित हो गई करुणामयी 'बड़ी माँ' के रूप में। महात्मा गांधी की बहादुर सैनिक पार्वती गिरि देखभाल करने वाली माँ के रूप में असहाय महिलाओं और बच्चों के लिए सम्मानजनक जीवन सुनिश्चित करने लगी। पश्चिम उड़ीसा में पार्वती गिरी को मदर टेरेसा की तरह माना जाता है। इससे पहले 1954-55 की एक घटना पार्वतीगिरि की निस्वार्थ सेवा और बलिदान की ज्वलंत उदाहरण प्रस्तुत करती है। उस समय पार्वतीगिरि बारपाली परियोजनाओं में सेवाएं प्रदान कर रही थीं। एक मेघाच्छादित शाम में पार्वतीगिरि को खबर मिली कि एक मफसली गाँव में एक महिला को प्रसव के लिए मदद और दवा की ज़रूरत है। आसमान में गहने काले बादलों की घड़घड़ाहट के साथ बहुत जोर बिजली चमक रही थी। जल्द से जल्द मदद पहुंचाने की जरूरत थी। जंगल के रास्ते से तेज बारिश के भीतर वह मफसली बंदपाली गांव पहुंच गई। छोटी-सी झोंपड़ी के अंदर रस्सी वाले खाट पर प्रसूता महिला बिस्तर पर लेटी थी। चेहरे पर पसीना और विवशता के भाव थे। पास में एक डिबरी जल रही थी। डिबरी की मंद रोशनी में पार्वती गिरि ने कुटिया में चारों तरफ देखा। घर में बच्चे के प्रसव के लिए आवश्यक चीजें तो दूर की बात कपड़े का एक टुकड़ा भी नजर नहीं आया। पार्वती गिरि ने तुरंत अपनी पतली बुनी हुई खादी साड़ी को दो टुकड़ों में फाड़ दिया। फाड़ी हुई साड़ी से प्रसव करवाया और फिर पार्वती ने नव जननी के नवजात बच्चे को उसमें लपेटकर अपने बसेरे में लौट आयीं। निस्वार्थ भाव से परोपकार का व्रत धारण करने वाली पार्वतीगिरि के प्रति नवजननी की आंखों से कृतज्ञतावश आंसू छलक पड़े। प्रकृति कवि गंगाधर मेहर की भाषा में: 'परोपकार पुण्यमय व्रत, पालते हैं महतजन उर्वी दिवाकर परोपकारार्थ, देते हैं शस्य किरण' झोंपड़ी के बाहर अंधेरा, चमकती बिजली,बारिश की बड़ी-बड़ी बूंदें। फटी साड़ी को संभालते हुए बहुत कष्ट से वह अपने बसेरे में लौटी। बारिश में भीगकर अंधेरे में लौटने वाली करुणामयी पार्वती गिरि का चेहरा दीप्तिमान था। लेखक: प्रो. सुजीत पृसेठ, आईआईएम-संबलपुर / अनुवाद- दिनेश कुमार माली |
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