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आईएएस आशुतोष अग्निहोत्री पुस्तक मैं बूँद स्वयं, खुद सागर हूँ का लोकार्पण
जनता जनार्दन ,
Jun 21, 2025, 11:50 am IST
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![]() हाल ही में आयोजित एक अत्यंत भावनात्मक और विचारोत्तेजक साहित्यिक समारोह में वरिष्ठ सिविल सेवक आशुतोष अग्निहोत्री, आईएएस द्वारा लिखित पुस्तक "मैं बूँद स्वयं, खुद सागर हूँ" का लोकार्पण माननीय केंद्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री द्वारा विधिवत् रूप से किया गया। यह अवसर साहित्य, सिविल सेवा, अकादमिक जगत और नीति-निर्माण के क्षेत्र से जुड़े अनेक प्रतिष्ठित व्यक्तित्वों की उपस्थिति से गौरवान्वित हुआ, जिन्होंने प्रशासनिक अनुभव और साहित्यिक संवेदनशीलता के इस अनोखे संगम का उत्सव मनाया।
यह पुस्तक, जिसका शीर्षक ही अत्यंत भावप्रवण और विचारशील है, वर्षों की सार्वजनिक सेवा, आत्मचिंतन और सांस्कृतिक संवाद से उत्पन्न अंतर्दृष्टियों से बुनी गई एक ध्यानात्मक प्रस्तुति है। इसका मूल संदेश है कि हम अपनी भाषिक और सभ्यतामूलक पहचान को गर्व और विनम्रता दोनों के साथ अपनाएं। आशुतोष अग्निहोत्री के शब्द: अपने नए काव्य संकलन के विमोचन कार्यक्रम में मैं आपका हृदय की गहराइयों से स्वागत करता हूँ। किसी भी लेखक के लिए उसके लिखे शब्दों का प्रकाशित होना विशेष अर्थ और महत्व रखता है।
ये मेरा परम सौभाग्य है कि माननीय गृह मंत्री जी का स्नेह और आशीर्वाद मुझे प्रचुर मात्रा में मिला। गृह मंत्रालय में अपने पाँच वर्ष के कार्यकाल में ऐसे अनेक अवसर आए जब उनके अंदर के प्रवीण राजनीतिज्ञ और रणनीतिकार से इतर उनके व्यक्तित्व के और पहलू भी दिखे, उनके संवेदनशील व्यक्तित्व के और आयामों से परिचय हुआ- विशेषकर हिंदी के प्रति उनका गहरा लगाव, भारत के इतिहास और उसके दर्शन की गहरी और सूक्ष्म समझ और कला का सही मर्म- ये लोगों को शायद दूर से नज़र ना आए लेकिन जो भी संपर्क में आया है वो सर के इन गुणों से सिर्फ़ प्रभावित और चमत्कृत हुआ है। यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है कि हिंदी कविताओं के चौथे संकलन, मैं बूँद स्वयं ख़ुद सागर हूँ का विमोचन सर के कर कमलों से हो रहा है। इससे बड़ा आशीर्वाद और मैं क्या चाह सकता था। आपने इतना मान दिया, इतना स्नेह दिया कि मैं अभिभूत हूँ। आपको धन्यवाद भी दूँ तो किन शब्दों में। शब्दों की असमर्थता और अपूर्णता का बोध इतना अधिक मुझे पहले कभी नहीं हुआ। इस कार्यक्रम में आपका ऊष्म स्वागत और इसे इतना विशेष बनाने के लिए अशेष आभार सर। साथ ही मैं आदरणीय गृह सचिव महोदय और आप सब, स्वजनों का आदरपूर्वक स्वागत करना चाहूँगा क्योंकि आपकी स्नेहिल और गरिमामयी उपस्थिति मेरे शब्दों और उनकी यात्रा को अर्थपूर्ण बना रही हैं। साथ ही अनवरत आगे बढ़ने की , कुछ सुंदर गढ़ने की प्रेरणा भी दे रही है। मेरे लिए साहित्य मनुष्य को मनुष्य बनाए रखने का सबसे सशक्त माध्यम है। साहित्य मनुष्य को उस ईश्वरीय सत्ता से भी परिचित करवाता है जो उसे अपने अंदर और चारों और सहजता से दिखायी दे जाती है। जो व्यक्ति को, समाज को उठाये, उसे और बेहतर, और सुंदर बनाये वही साहित्य है। कला कला के लिए या साहित्य साहित्य के लिए -इस धारणा का मैं पक्षधर नहीं। साहित्य में अगर जीवन और समाज का असुंदर और भयावह पक्ष ही प्रस्तुत हो तो वह मेरी दृष्टि में साहित्य का आधा अधूरा प्रस्तुतीकरण है। साहित्य में तो जीवन को मुस्कुराना चाहिए। कहीं दर्द हो, पीड़ा हो, अभाव हो, जटिलता हो , तो भी जीवन मुस्कुराए , तभी साहित्य सार्थक होगा। वैसे तो साहित्य की सभी विधाएँ महत्त्वपूर्ण हैं लेकिन कविता, विशेष रूप से मेरे लिए ईश्वर की अनुभूति है। कम शब्दों में किसी गंभीर विचार या गहरी भावना की ऐसी अभिव्यक्ति जो किसी दूसरे की पीड़ा की अनुभूति दे और अपनी करुणा और संवेदना का विस्तार कर दे - यह सामर्थ्य कविता का ही है। वैसे तो बिना ईश्वर की अनुकंपा के साँस लेना भी संभव नहीं, किंतु सृजन कार्य के लिए उनकी विशेष कृपा की आवश्यकता होती ही है। । अज्ञेय ने कहा है, बिना पीड़ा के जन्म नहीं होता। ये पीड़ा व्यष्टि और समष्टि के बीच की दूरी या टकराव हो सकती है। ये पीड़ा बाहरी और भीतरी दुनिया का द्वंद्व हो सकता है। ये पीड़ा दूसरों की पीड़ा में सह सहानुभूति अनुभव करने की सामर्थ्य हो सकती है। साहित्य, कविता, कला, इस पीड़ा को सुंदर और कल्याणकारी बनाने की प्रक्रिया का नाम है। कहने को तो हम अपने आप को कवि और लेखक कह देते हैं लेकिन सच में रचता वही है, सिर्फ़ माध्यम चुनता है। यह संकलन कई मायनों में मेरा ख़ुद का वृत्तांत है, मेरे भाव जगत का, मेरे बाहरी और भीतरी संसार का दर्पण। कोशिश की है कि दर्पण से जितनी धूल हटा सकूँ उतना अच्छा क्योंकि जितना साफ़ मैं आप को दिखाई देना चाहता हूँ, उससे ज़्यादा मैं ख़ुद अपने आप को । मेरी कई कविताओं का जन्म रामायण महाभारत, भागवत और उपनिषदों से जुड़े प्रसंगों को नए सिरे से देखने और समझने की कोशिश से हुआ है। इस संकलन में कुछ कविताएँ हैं जो महाभारत के प्रसंगों और पात्रों से प्रभावित हैं जैसे कि यक्ष के प्रश्न, अभिमन्यु का उत्सर्ग और कर्ण के अंतिम शब्द ।
आज इस अवसर पर इस संकलन की अपनी प्रिय कविता कर्ण के अंतिम शब्द सुना रहा हुँ उसकी मृत्यु निकट हैं तथा वह अर्जुन को संबोधित करते हुए अपने अंतिम शब्द कह रहे हैं ।
गृह सचिव के विचार अपने संबोधन में भारत सरकार के गृह सचिव ने हिंदी और उसकी समसंबंधी भाषाओं की यात्रा को एक विद्वत्तापूर्ण और चिंतनशील श्रद्धांजलि दी। उन्होंने सरल लेकिन गूढ़ शब्दों में हिंदी की ऐतिहासिक विकासयात्रा को रेखांकित किया और बताया कि यह भारत की समन्वित सभ्यता का प्रतीक रही है। उन्होंने स्मरण दिलाया कि भारतीय भाषाएँ—हिंदी, बांग्ला, तमिल, कन्नड़, उड़िया, मराठी आदि—19वीं सदी तक न्यायालयों, घरों, काव्य और राजनीति में समृद्ध थीं, लेकिन उपनिवेशकालीन नीतियों और सामाजिक-राजनीतिक बदलावों के चलते धीरे-धीरे हाशिये पर चली गईं। उन्होंने भारतीय साहित्यकारों के महत्त्वपूर्ण योगदानों का उल्लेख किया, जिन्होंने भाषा को समृद्ध किया और समाज की नैतिक दिशा को भी गढ़ा। उन्होंने केवल विगत के क्षरण पर शोक नहीं जताया, बल्कि भारतीय भाषाओं के नवोत्थान का आह्वान किया। शहरीकरण, शिक्षा में विशिष्टतावाद और वैश्विक समरूपीकरण जैसी आधुनिक चुनौतियों को स्वीकार करते हुए उन्होंने कहा कि साहित्य और सांस्कृतिक पुनर्जागरण भारत की आत्मा को फिर से स्वर प्रदान कर सकते हैं। उनका यह संबोधन केवल अतीत की चर्चा नहीं था, बल्कि भाषिक गौरव को फिर से अपनाने के लिए एक मृदु लेकिन स्पष्ट आह्वान था।
गृह मंत्री का वक्तव्य
मुख्य भाषण में माननीय केंद्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री ने भाषा और साहित्य की शक्ति को अत्यंत भावपूर्ण श्रद्धांजलि दी। उन्होंने कहा, “जब देश अंधकार में था, तब साहित्य ने हमारे धर्म, स्वतंत्रता और संस्कृति के दीप जलाए रखे। सरकारें बदलने से भारतवासियों पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ा, लेकिन जब किसी ने हमारे धर्म, संस्कृति और साहित्य को छूने की कोशिश की, तो समाज एकजुट होकर खड़ा हुआ और उन्हें परास्त किया। साहित्य हमारे समाज की आत्मा है।”
उन्होंने भारतीय परंपरा को स्मरण कराया, जहाँ साहित्य केवल संप्रेषण का माध्यम नहीं, बल्कि प्रतिरोध, सहनशीलता और पहचान का साधन रहा है—भक्ति और सूफी काव्य से लेकर स्वतंत्रता संग्राम की क्रांतिकारी गद्य रचनाओं तक, साहित्य ने ही नैतिक और आध्यात्मिक चेतना को जीवित रखा।
भाषिक आत्मगौरव को दोहराते हुए उन्होंने कहा, “हमारी संस्कृति, हमारा इतिहास और हमारा धर्म विदेशी भाषाओं में नहीं समझे जा सकते। आत्मगौरव के साथ हम अपने देश को अपनी भाषाओं में चलाएंगे और विश्व का नेतृत्व भी करेंगे।” यह वक्तव्य भारत की मानसिकता को उपनिवेशवाद से मुक्त करने का आह्वान था—विशेषकर शासन, ज्ञान-सृजन और शिक्षा के क्षेत्रों में। यह वैश्विक भाषाओं का विरोध नहीं था, बल्कि विचार और अभिव्यक्ति में आंतरिक सामंजस्य और प्रामाणिकता का आग्रह था।
उन्होंने आशावाद के साथ कहा, “हम अपनी भाषाओं पर गर्व के साथ देश चलाएंगे, विचार करेंगे, अनुसंधान करेंगे, निर्णय लेंगे और दुनिया का नेतृत्व भी करेंगे। इसमें किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए... हमारी भाषाएँ हमें 2047 तक विश्व शिखर पर पहुँचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएँगी। मैं मानता हूँ कि हमारी भाषाएँ हमारी संस्कृति के रत्न हैं। इनके बिना हम सच्चे भारतीय नहीं रह सकते।”
एक विशेष क्षण में माननीय गृह मंत्री ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा आज़ादी के 75वें वर्ष पर दिए गए ‘पंच प्रण’ का उल्लेख करते हुए कहा, “2047 तक हमें शिखर पर पहुँचना है और हमारी भाषाएँ इस यात्रा में प्रमुख भूमिका निभाएँगी। उन्होंने स्पष्ट किया कि जब तक हम औपनिवेशिक मानसिकता के अवशेषों को नहीं मिटाते, अपने गौरव पर गर्व नहीं करते और एकजुट नैतिक नागरिकता के साथ कार्य नहीं करते, तब तक एक विकसित भारत का निर्माण संभव नहीं। इस सन्दर्भ में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं का पुनरुत्थान मात्र भाषिक पहल नहीं है, बल्कि यह 'अमृत काल' की आध्यात्मिक, बौद्धिक और सांस्कृतिक पुनर्रचना की आधारशिला है।
हिंदी पर सामान्य विमर्श से आगे बढ़ते हुए गृह मंत्री ने प्रशासनिक अधिकारियों के प्रशिक्षण में सुधार की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने कहा, प्रशासनिक अधिकारियों के प्रशिक्षण में क्रांतिकारी परिवर्तन की आवश्यकता है। उन्हें शायद ही कभी सिस्टम में सहानुभूति लाने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है—शायद यह ब्रिटिश युग की प्रेरित प्रणाली का परिणाम है। लेकिन यदि कोई प्रशासक सहानुभूति के बिना शासन करता है, तो वह शासन का वास्तविक उद्देश्य प्राप्त नहीं कर सकता। यह दृष्टिकोण नीति और काव्य के मध्य एक सेतु बनाता है। साहित्य मात्र सांस्कृतिक तत्व नहीं, बल्कि सहानुभूति का प्रशिक्षणस्थल है। एक ऐसा प्रशासक जो पढ़ता है, जो सोचता है, जो जनता के दुःख और आकांक्षाओं को समझता है—वह केवल शासन नहीं करता, बल्कि सेवा करता है। गणराज्य की आत्मा केवल काग़ज़ों में नहीं, बल्कि मानवीय निर्णयों में बसती है। मैं बूँद स्वयं, खुद सागर हूँ केवल एक काव्यात्मक शीर्षक नहीं, बल्कि एक गूढ़ दार्शनिक उद्घोषणा है। यह अद्वैत वेदांत के उस शाश्वत उद्घोष को प्रतिध्वनित करता है, जिसे आदि शंकराचार्य ने कहा—"अहं ब्रह्मास्मि"। इसका आशय यह है कि जीवात्मा और परमात्मा एक ही हैं—कोई भिन्नता नहीं। यह शीर्षक सीमित और असीमित के बीच की दूरी को मिटा देता है। 'बूँद' व्यक्ति है—छोटा, विनम्र, पृथक दिखने वाला; 'सागर' सम्पूर्ण अस्तित्व है—अनंत, व्यापक। जब कोई कहता है कि वह बूँद भी है और सागर भी, तो वह यह स्वीकार करता है कि अन्ततः सब कुछ एक ही चेतना का विस्तार है। यह दर्शन मात्र सिद्धांत नहीं, एक अनुभव है। शंकराचार्य ने सिखाया कि मोक्ष बाह्य क्रियाओं से नहीं, आंतरिक बोध से प्राप्त होता है। बूँद पहले से ही सागर है; आत्मा पहले से ही दिव्य है। आवश्यकता केवल जागरूकता की है। यह शीर्षक एक दार्शनिक दर्पण बनकर पाठक को भीतर झाँकने का आमंत्रण देता है। जब यह दृष्टिकोण शासन के क्षेत्र में प्रवेश करता है, विशेष रूप से अशुतोष अग्निहोत्री जैसे अधिकारियों के संदर्भ में, तब यह अत्यंत प्रासंगिक बन जाता है। यह बताता है कि विनम्रता और आत्मचिंतन कमजोरी नहीं, बल्कि सच्चे नेतृत्व की नींव हैं। जब एक प्रशासक स्वयं को ‘बूँद’ और ‘सागर’ दोनों के रूप में देखता है—तो वह शासन को एक पवित्र उत्तरदायित्व बना देता है। गृह मंत्री ने अपने संबोधन का समापन इस विचार के साथ किया कि मैं बूँद स्वयं, खुद सागर हूँ का लोकार्पण केवल एक साहित्यिक आयोजन नहीं था, बल्कि यह एक सभ्यतागत चिंतन, सांस्कृतिक आत्मविश्लेषण और प्रशासनिक कल्पना का संगम था। इस कृति और उससे जुड़ी गूंजती हुई वक्तव्यों के माध्यम से यह संदेश स्पष्ट हुआ: भारत का भविष्य—नैतिक, बौद्धिक और वैश्विक नेतृत्व—अपनी आत्मा की भाषा में लिखा जाएगा। जब हम अपनी भाषाओं को पुनर्जीवित करते हैं, तो हम केवल अतीत को नहीं संजोते—बल्कि 2047 तक विकसित भारत की यात्रा को दिशा देते हैं—एक ऐसा भारत जो अपनी जड़ों पर गर्व करता है और विश्व नेतृत्व के लिए तैयार भी है। लेखक के बारे में
आशुतोष अग्निहोत्री भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) के वरिष्ठ अधिकारी हैं, जिनकी पहचान एक सक्षम अधिकारी के साथ-साथ एक संवेदनशील लेखक और कवि के रूप में भी है। वे असम-मेघालय कैडर के 1999 बैच के अधिकारी हैं और विभिन्न सरकारी पदों पर अपनी सशक्त भूमिका निभाते आ रहे हैं…
आशुतोष अग्निहोत्री ने असम राज्य में तीन महत्वूर्ण ज़िलों के ज़िलाधिकारी के अतिरिक्त , गृह , उद्योग , परिवहन , योजना , पर्यटन जैसे विभागों के सचिव के रूप में भी कार्यरत रहे। भारत सरकार के गृह मंत्रालय में बतौर संयुक्त सचिव और फिर अपर सचिव के रूप में पाँच वर्ष काम किया … और वर्तमान में वो भारतीय खाद्य निगम के प्रबंध निदेशक के पद पर कार्यरत होकर भारत सरकार को अपनी सेवाएँ दे रहे है।
एक सक्षम प्रशासक के अतिरिक्त आशुतोष जी की कविता, लघु कथा और आध्यात्मिक लेखनी में गहरी रुचि है। उन्होंने अंग्रेज़ी और हिंदी दोनों भाषाओं में साहित्य सृजन किया है। उनकी रचनाओं से आध्यात्मिक चिंतन और मानवीय संवेदनाओं का गहन भाव प्रतिबिंबित होता है। उनकी मुख्य रचनाओं में आप आध्यात्मिक और प्रकृति से जुड़े चिंतन का व्यापक संग्रह पायेंगे।आशुतोष जी की रचनाओं में रामायण , महाभारत , उपनिषद इत्यादि की प्रेरणा साफ़ दिखाई पड़ती है , या यूँ कहें कि भारत के महाकाव्यों के महान चरित्रों के सजीव चित्रण को आप उनकी लेखनी में अनायास ही महसूस कर सकते हैं.. शिव हों.. श्रीराम हों.. कृष्ण या फिर हनुमान…. उनके भावों और भावना से भरी रचनाओं के माध्यम से आप इन सभी व्यक्तित्वों को बड़ी प्रबलता से आप अपने आसपास अनुभूति कर पाएंगे। उनके व्यक्तित्व को समग्रता के साथ संक्षेप में बस यही कह के व्यक्त किया जा सकता है कि प्रशासन और जीवन के बहुआयामी भावों के संतुलन के साथ वो अपनी यात्रा को आगे बढ़ा रहे हैं।
पुस्तक के बारे में
मैं बूँद स्वयं, ख़ुद सागर हूँ आशुतोष अग्निहोत्री का चौथा कविता संग्रह है। इस संग्रह की रचनाओं के माध्यम से उन्होंने प्रकृति, ईश्वर, समाज , परिवार और देश ने उनको जो दिया ,उसके प्रति अपनी कृतज्ञता के भावों को शब्दों में पिरोने का प्रयास किया है। हमें पूरा विश्वास है कि पाठक इस संग्रह को पढ़ने के दौरान शब्दों के माध्यम से व्यक्त किए गए इन भावों को अपने भावों से अनायास ही जोड़ के उसे अनुभव कर पाएंगे और ये भाव पाठकों को इन कविताओं को बार बार पढ़ने के लिए प्रेरित करेंगे… इस कविता संग्रह को लेकर इस बात का पूर्ण विश्वास है कि आशुतोष जी की इस लेखन यात्रा के पथ पर आप सब उनसे अनायास ही जुड़ के अनवरत रूप से.. निर्बाध… ऐसे ही बहते और बढ़ते रहेंगे , कुछ और बेहतर , कुछ और सुंदर करने के लिए। |
क्या आप कोरोना संकट में केंद्र व राज्य सरकारों की कोशिशों से संतुष्ट हैं? |
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