नित्य मानस चर्चाः दैहिक दैविक भौतिक तापा, राम राज नहिं काहुहि व्यापा

नित्य मानस चर्चाः दैहिक दैविक भौतिक तापा, राम राज नहिं काहुहि व्यापा नई दिल्लीः पुलिस सेवा से जुड़े रहे प्रख्यात मानस मर्मज्ञ श्री राम वीर सिंह उत्तर कांड की सप्रसंग व्याख्या कर रहे हैं. राम वीर जी अपने नाम के ही अनुरुप राम कथा के मानद विद्वान हैं.

यह चर्चा भाई भरत और श्री राम जी के मिलाप से जुड़ी हुई है. लेकिन इसमें वह समूचा काल खंड जुड़ा है. भ्रातृ प्रेम, गुरू वंदन, सास- बहू का मान और अयोध्या का ऐश्वर्य...

सच तो यह है कि उत्तर कांड की 'भरत मिलाप' की कथा न केवल भ्रातृत्व प्रेम की अमर कथा है, बल्कि इसके आध्यात्मिक पहलू भी हैं. ईश्वर किस रूप में हैं...साकार, निराकार, सगुण, निर्गुण...

इस तरह के तमाम प्रसंगों और जिज्ञासाओं के सभी पहलुओं की व्याख्या के साथ गोस्वामी तुलसीदास रचित राम चरित मानस के उत्तरकांड से संकलित कथाक्रम, उसकी व्याख्या के साथ जारी है.

उन्हीं के शब्दों में:

* ॐ *     
* नित्य मानस चर्चा *
* उत्तरकांड *
अगली पंक्तियाँ:-
"दैहिक दैविक भौतिक तापा।
राम राज नहिं काहुहि व्यापा।।
सब नर करहिं परस्पर प्रीती।
चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती।।
चारिउ चरन धर्म जग माहीं।
पूरि रहा सपनेहुँ अघ नाहीं।।
रामभगति रत नर अरु नारी।
सकल परमगति के अधिकारी।।
अल्पमृत्यु नहिं कबनिउ पीरा।
सब सुन्दर सब बिरुज सरीरा।।

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      राम राज्य के गुणों का वर्णन चल रहा है। रामराज्य में दैहिक, दैविक और भौतिक ताप किसी को नहीं व्यापते। इसका अर्थ यह नहीं है कि ताप होते ही नहीं। ताप तो होते हैं, लेकिन वे व्यापते नहीं, उनका असर नहीं होता।

     चर्चा में हम पहले कहीं इन तापों के बारे में बात कर चुके हैं। सारे कष्ट जो ग़लत खानपान और संसर्ग से पैदा होते हैं, बुखार, दस्त, दर्द, त्वचारोग आदि दैहिक ताप हैं। मन का अशांत हो जाना भी दैहिक अथवा आध्यात्मिक ताप है। वे सारे कष्ट जो मच्छर, खटमल ,वैक्टीरिया या किसी विषैले जंतु बिच्छू सॉंप आदि या हिंसक जानवर द्वारा पैदा होते हैं, वे भौतिक ताप है। आकाशीय पिंडों के कारण अनाबृष्टि, अति बृष्टि द्वारा बाढ़, सूखा आदि या देवयोनिजनित भूकंप, आग लगना, हैजा चेचक आदि का प्रकोप सब दैविक ताप है।

     यदि आंतरिक जगत की सोचें तो हमारे अंदर अज्ञान जनित निसाचरी प्रवृत्तियाँ बैर भाव भी पैदा कर देती हैं। समाज के बुरे भले सभी लोगों को शांतिपूर्वक सहन करना आध्यात्मिक गुण है। लेकिन डर कर या अपने स्वार्थ की रक्षा के लिए किसी अत्याचारी को या पापी को सहन करना गुण नहीं दुर्गुण होगा। शास्त्रानुसार एक तो स्वधर्म है जिसका आधार वर्णाश्रम है। दूसरा सामान्य धर्म है जिसके कि सत्य, शौच, दया और दान यह चार पैर बताए गए हैं। त्रेता में धर्म का एक पैर सत्य खण्डित हो चुका था जिसके कारण ही वनवास आदि की स्थिति आ गई। राजा राम ने सत्य की दृढता से धर्म की पुनर्स्थापना की। समाज भी मर्यादा में बँध कर सुखी हो गया।

     वर्णाश्रम धर्म और स्वधर्म पर कल आदरणीय दिनेश्वर मिश्रजी का सुन्दर आलेख कल आ चुका है। इस विषय पर उनसे और भी विस्तार करने का आग्रह किया गया है। उनकी सक्षम लेखनी जो भाव निसृत करती है,वह साधारणतया अति दुर्लभ निधि होती है।

"राम भगति रत नर अरु नारी":- यहॉं स्पष्टत: कहा गया है कि सभी पुरुष और स्त्रियॉं भगवान के भक्त होने के कारण परमगति के अधिकारी हो गए। धर्म के क्षेत्र में तो स्त्री पुरुष दोनों के लिए अलग अलग मार्ग हो सकते हैं किंतु परमार्थ के क्षेत्र में सबके लिए मार्ग एक ही है, भक्ति। जीवन की सॉंसें तो सभी पूरी करते हैं। लेकिन जो संयम पूर्वक मर्यादित जीवन जीते हैं, धर्म और नीति की छाया में ही रहते हैं, उनकी रुचि भक्ति की ओर हो ही जाती है।

       धर्म के मार्ग पर चलने का फल भी बता रहे हैं। बाल्यावस्था या युवावस्था में मृत्यु होना पूर्व जन्म के पापों का फल बताया गया है। निरंतर परमात्म भाव के चिंतन से पूर्व जन्म के पापों का भी क्षय होता है। इसलिए न किसी को शारीरिक कष्ट, रोग, पीड़ा होती है न अल्पमृत्यु। जब सबकी काया निरोगी है तो सब सुन्दर भी हैं, स्वस्थ भी हैं। (क्रमश: )
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