मिस्र– अधूरी क्रांति का पूरा सपना

मिस्र– अधूरी क्रांति का पूरा सपना मिस्र में कत्लेआम जारी है। सात सौ से ज्यादा लोगों के मरने की खबर है। चारों तरफ हाहाकार मचा है। किसी को नहीं पता कि आगे क्या होगा? दो साल पहले भी इसी तरह के हालात थे। मिस्र की तानाशाह सरकार के खिलाफ अवाम ने विद्रोह कर दिया था। तब भी खून-खराबा हुआ था। अंतत: तानाशाह हुस्नी मुबारक को पद छोड़ना पड़ा। अदालती कार्रवाई के दौरान पिंजरे में कैद उनकी तस्वीर पूरी दुनिया ने देखी। जनता जीत गई, तानाशाह हार गया। जो पश्चिम एशिया में कभी नहीं हुआ था, वह हो गया। मिस्र में चुनाव हुए। लोकतांत्रिक चुनी हुई सरकार बनी। लगा कि सब ठीक हो गया है। पर वह क्रांति अधूरी थी। क्रांति को अभी पूरा होना था। राष्ट्रपति मोहम्मद मुर्सी ने अपना रंग दिखाना शुरू किया।

इस्लामिक कट्टरपंथी संगठन मुस्लिम ब्रदरहुड का असली चेहरा सामने आने लगा। मिस्र को लोकतंत्र के जरिये कट्टरपंथी राह पर ले जाने की कोशिश शुरू हो गई। क्रांति को यह मंजूर नहीं था। जिन लोगों ने हुस्नी के खिलाफ बगावत की थी। वही लोग फिर तहरीर चौक पर जुटने लगे। सत्ता और क्रांति फिर आमने-सामने। विद्रोह बढ़ा। सेना को दखल देना पड़ा। मुर्सी को नजरबंद कर दिया गया। और सेना ने सत्ता की कमान अपने हाथों में ले ली। आज की तारीख में मिस्र का अवाम दो हिस्सों में बंटा है। एक तरफ, मुस्लिम ब्रदरहुड के समर्थक हैं, जो इस्लाम के रास्ते पर देश और समाज को ले जाना चाहते हैं और दूसरी तरफ हैं खुली हवा में सांस लेने वाले और धर्म को निजी जिंदगी तक सीमित रखने के हिमायती मूल क्रांतिकारी।

यह लड़ाई धीरे-धीरे अपने निर्णायक दौर में पहुंचती जा रही है। मुस्लिम ब्रदरहुड पार्टी आसानी से हार मानने वाली नहीं है। वर्ष 1928 में अपनी स्थापना के बाद पहली बार उसने सत्ता का स्वाद चखा है। मिस्र की पहली क्रांति के समय मैंने लिखा था कि वहां की जनता जिस रास्ते पर चल पड़ी है, वह रास्ता अतीत की तरफ नहीं जाता। वह अल कायदा के रास्ते पर भी नहीं जाता। और यह क्रांति आखिरकार अल कायदा से ज्यादा ताकतवर साबित होगी और अंत में जेहादी आतंकवाद को कमजोर करेगी। लेकिन यह फौरन होगा, ये मैंने नहीं कहा था।

आज मुस्लिम ब्रदरहुड पार्टी मिस्र को अतीत की ओर मोड़ना चाहती है। हसन अल बन्ना ने मिस्र में पश्चिमी प्रभाव से लड़ने और इस्लामी मूल्यों का क्षरण रोकने के लिए मुस्लिम ब्रदरहुड संगठन की नींव रखी थी। ब्रदरहुड पार्टी कभी भी मिस्र की बहुसंख्यक जनता का दिल नहीं जीत पाई। उसकी हिंसक-विध्वंसक हरकतों की वजह से साल 1948 में मिस्र की राजशाही और बाद में 1954 में गमाल अब्दल नासिर की सरकार ने उस पर प्रतिबंध लगाया। हसन अल बन्ना के बाद मुस्लिम ब्रदरहुड की कमान सईद कुतुब ने संभाली। हैरानी की बात यह है कि अमेरिका में पढ़ाई के बाद भी कुतुब के विचारों में पश्चिमी मूल्यों का कोई असर नहीं दिखाई दिया। युजीन रोगन अपनी किताब में लिखते हैं, कुतुब अमेरिकी नैतिक पतन से मिस्र को बचाना चाहते थे।

कुतुब ने कट्टरपंथी इस्लाम को नई ऊर्जा दी। उन्होंने अपने जेल प्रवास के दौरान माइलस्टोन्स नाम से किताब लिखी, जिसे इस्लाम और राजनीति पर बीसवीं शताब्दी की सबसे प्रभावशाली किताब माना जाता है। रोगन के मुताबिक, यह किताब पश्चिमी भौतिकतावाद और अधिनायकवादी सेकुलर अरब राष्ट्रवाद के दिवालियेपन को बहुत मजबूती के साथ रेखांकित करती है। कुतुब का मानना था कि आधुनिक युग का सामाजिक व राजनीतिक ताना-बाना मानव रचित है और इसलिए नाकामयाब है। इसने विज्ञान और ज्ञान के नए रास्ते खोलने की जगह ईश्वरीय कृपा के प्रति अज्ञानता को जन्म दिया है, जिसे वह जहीलिया कहते हैं।

कुतुब के मुताबिक, ईश्वरीय संदेश से विमुख होने की वजह से मुस्लिम समाज सातवीं शताब्दी के अंधकारमय युग में जाने को विवश है। मानव जाति के लिए ईश्वर की बनाई सत्ता ही इस्लाम है और यही मनुष्य की स्वतंत्रता और उसके कल्याण का एकमात्र रास्ता। और इस्लाम को मानव जाति के अगुआ के तौर पर पुनस्र्थापित करने के लिए मुस्लिम नेतृत्व दस्ते की जरूरत है। मुस्लिम ब्रदरहुड अपने को इस नेतृत्व दस्ते के तौर पर देखता है।

जिस तरह से मार्क्सवादी विचारधारा मानती है कि पूंजीवाद कितना ही ताकतवर क्यों न हो, आखिर में जीत सर्वहारा की ही होगी, उसी तरह कुतुब का ब्रदरहुडवाद भी तमाम संघर्षों और दिक्कतों के बावजूद अंत में इस्लाम की जीत की ही वकालत करता है। उसका मानना है, 'मुसलमान आज भले ही हारता हुआ दिखे, लेकिन यह स्थिति अल्पकालिक है। यह काल जल्दी ही खत्म हो जाएगा। इस्लाम जीतेगा।' यह मंत्र मुस्लिम ब्रदरहुड को लड़ने की ताकत देता है। इसलिए आज ब्रदरहुड आसानी से हार नहीं मानेगा, लेकिन यह वक्त कुतुब का नहीं है।

अरब संसार कुतुब और अल बन्ना की सोच से काफी आगे निकल चुका है। कुतुब के जमाने में अरब संसार में मुस्लिम समाज के सामने तीन मुद्दे थे, जिन पर पूरे पश्चिय एशिया में एक राय थी। एक, इजरायल की बरबादी। दो, फलस्तीन की मुक्ति। और तीन, इस्लाम की फतह। आज ये तीनों ही मुद्दे गौण हो चुके हैं। 1948,1956 और 1967 की जंग में हार के बाद अरब शासकों ने मान लिया है कि इजरायल एक सच्चाई है और उसे नेस्तनाबूद करना नामुमकिन। पिछले 20 साल में इजरायल और फलस्तीन के बीच अमेरिका की मध्यस्थता में बातचीत के कई दौर चले हैं।

1967 में अरब नेताओं के बीच हुआ खर्तम समझौता इतिहास हो गया है। तब यह तय हुआ था कि यहूदी राज्य को किसी भी हालत में मान्यता नहीं दी जाएगी, इजरायली अधिकारियों से कोई बातचीत नहीं होगी और न ही अरब देशों और इजरायल में कोई शांति वार्ता होगी। आज ह्वाइट हाउस में अमेरिकी राष्ट्रपति की मौजूदगी में फलस्तीन और इजरायल के नेता गले मिलते हैं। पर ब्रदरहुड पार्टी इतिहास की गति को मोड़ना चाहती है। क्या ऐसा होगा? लगता नहीं है। क्योंकि अरब की नई चेतना ने पुराने मूल्यों को ध्वस्त कर दिया है। यह क्रांति मिस्र के आम आदमी की है। बिल्कुल वैसे ही, जैसे 1789 में समाज का कोई प्रभावशाली वर्ग क्रांति नहीं चाहता था।

डेविड थॉमसन लिखते हैं कि फ्रांसीसी क्रांति हुई, क्योंकि आम आदमी क्रांति चाहता था। मिस्र में क्रांति हो चुकी है। अधिनायकवाद से लोग आजिज आ चुके हैं, वे उससे छुटकारा पाना चाहते हैं। ठीक वैसे ही, जैसे कि फ्रांस में राजशाही से निजात पाना क्रांति की एकमात्र शर्त थी। अब मिस्र में चाहे किसी की भी सत्ता आए, अधिनायकवाद की वापसी नहीं होगी। हां, सही लोकतंत्र को आने में वक्त लग सकता है। फ्रांस में भी अधूरी क्रांति को पूरा होने में समय लगा था।
आशुतोष 
आशुतोष  वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार आशुतोष तीखे तेवरों वाले खबरिया टीवी चैनल IBN7 के मैनेजिंग एडिटर हैं। IBN7 से जुड़ने से पहले आशुतोष 'आजतक' की टीम का हिस्सा थे। वह भारत के किसी भी हिन्दी न्यूज़ चैनल के प्राइम टाइम पर देखे और सुने जाने वाले सबसे चर्चित एंकरों में से एक हैं। ऐंकरिंग के अलावा फील्ड और डेस्क पर खबरों का प्रबंधन उनकी प्रमुख क्षमता रही है। आशुतोष टेलीविज़न के हलके के उन गिनती के पत्रकारों में हैं, जो अपने थकाऊ, व्यस्त और चुनौतीपूर्ण ज़िम्मेदारियों के बावजूद पढ़ने-लिखने के लिए नियमित वक्त निकाल लेते हैं। वह देश के एक छोर से दूसरे छोर तक खबरों की कवरेज से जुड़े रहे हैं, और उनके लिखे लेख कुछ चुनिंदा अख़बारों के संपादकीय पन्ने का स्थाई हिस्सा हैं।