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मानस मीमांसाः निज अनुभव अब कहौं खगेसा, बिनु हरि भजन न जाहिं कलेसा
दिनेश्वर मिश्र ,
Sep 12, 2017, 7:31 am IST
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![]() गोसाईं जी का श्री रामचरित मानस हो या व्यास जी का महाभारत, कौन, किससे, कितना समुन्नत? सबपर मनीषियों की अपनी-अपनी दृष्टि, अपनी-अपनी टीका... इसीलिए संत, महात्मन, महापुरूष ही नहीं आमजन भी इन कथाओं को काल-कालांतर से बहुविध प्रकार से कहते-सुनते आ रहे हैं. सच तो यह है कि प्रभुपाद के मर्यादा पुरूषोत्तम अवताररूप; श्री रामचंद्र भगवान के सुंदर चरित्र करोड़ों कल्पों में भी गाए नहीं जा सकते. तभी तो प्रभु के लीला-चरित्र के वर्णन के लिए साक्षात भगवान शिव और मां भवानी को माध्यम बनना पड़ा. राम चरित पर अनगिन टीका और भाष उपलब्ध हैं. एक से बढ़कर एक प्रकांड विद्वानों की उद्भट व्याख्या. इतनी विविधता के बीच जो श्रेष्ठ हो वह आप तक पहुंचे यह 'जनता जनार्दन' का प्रयास है. इस क्रम में मानस मर्मज्ञ श्री रामवीर सिंह जी की टीका लगातार आप तक पहुंच रही है. हमारा सौभाग्य है कि इस पथ पर हमें प्रभु के एक और अनन्य भक्त तथा श्री राम कथा के पारखी पंडित श्री दिनेश्वर मिश्र जी का साथ भी मिल गया है. श्री मिश्र की मानस पर गहरी पकड़ है. श्री राम कथा के उद्भट विद्वान पंडित राम किंकर उपाध्याय जी उनके प्रेरणास्रोत रहे हैं. श्री मिश्र की महानता है कि उन्होंने हमारे विनम्र निवेदन पर 'जनता जनार्दन' के पाठकों के लिए श्री राम कथा के भाष के साथ ही अध्यात्मरूपी सागर से कुछ बूंदे छलकाने पर सहमति जताई है. श्री दिनेश्वर मिश्र के सतसंग के अंश रूप में प्रस्तुत है, आज की कथाः ****** निज अनुभव अब कहौं खगेसा। बिनु हरि भजन न जाहिं कलेसा।। उत्तरकांड, मानस,अनुभव-गम्य -प्रवाह, श्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराज ******** श्रीमद्भागवद्गीता में भक्ति की विशेष महिमा आती है। जब भगवान ने अर्जुन को अपना विश्वरूप दिखाया तब कहा कि तेरे सिवाय ऐसा रूप पहले किसी ने नहीं देखा है और देखा जा भी नहीं सकता, फिर अर्जुन की प्रार्थना पर, अपना चतुर्भुज रूप दिखाते हुए कहा-- नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन चेज्यया। शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा।। --जिस प्रकार तुमने मुझे देखा है इस प्रकार का(चतुर्भुजरूपवाला) मैं न तो वेदों से, न तप से, न दान से, न यज्ञ से ही देखा जा सकता हूँ। जब किसी साधन से नहीं देखे जा सकते, तो फिर किसके द्वारा देखे जा सकते हैं? इसपर भगवान कहते हैं-- भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोर्जुन। ज्ञातुं, द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप।। ---हे अर्जुन! इस प्रकार (चतुर्भुजरूपवाला) मैं अनन्यभक्ति से ही तत्त्व से जाना जा सकता हूँ, देखा जा सकता हूँ और प्रवेश (प्राप्त) किया जा सकता हूँ। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि भक्ति से जानना, देखना और प्रवेश करना, ये तीनों हो सकते हैं। परन्तु जहाँ भगवान ने ज्ञान की परानिष्ठा बताई है, वहाँ ज्ञान से केवल जानना और प्रवेश करना--ये दो ही बताये गये हैं-- ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनंतरम्। भक्ति में भगवान के दर्शन भी हो सकते हैं--यह भक्ति की विशेषता है, जबकि ज्ञान की परानिष्ठा होने पर भी भगवान के दर्शन नहीं होते। रामायण में भी भक्ति को मणि की तरह बताया है किन्तु ज्ञान को तो दीपक की तरह बताया है। दीपक को तो जलाने में घी, बत्ती आदि की जरूरत होती है और हवा लगने से वह बुझ भी जाता है, पर मणि को न तो घी, बत्ती की जरूरत है और न ही वह हवा से बुझती ही है-- परम प्रकास रूप दिन राती। नहिं कछु चहिय दिया घृत बाती।। मोह दरिद्र निकट नहिं आवा। लोभ बाति तेहि नाहिं बुझावा।। प्रबल अविद्या तम मिटि जाई। हारहिं सकल सलभ समुदाई।। इतना ही नहीं जो मुक्ति, ज्ञान के द्वारा बड़ी कठिनता से प्राप्त होती है, वही मुक्ति, भगवान का भजन करने से विना इच्छा अपने आप प्राप्त हो जाती है-- अति दुर्लभ कैवल्य परम पद। संत पुरान निगम आगम बद। राम भजत सोइ मुकुति गोसाईं। अनइच्छित आवइ बरिआईं।। रामायण में ज्ञान मार्ग को बड़ा कठिन बताया गया है-- ज्ञान का पंथ कृपान कै धारा। तथा भक्ति मार्ग को बड़ा सुगम बताया गया है-- भगति कि साधन कहउँ बखानी। सुगम पंथ मोहिं पावहिं प्रानी।। गीता में भी भगवान ने भक्तों के लिए अपनी प्राप्ति बड़ी सुगम बताई है-- अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः। तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः।। ज्ञान मार्ग पर चलनेवाला तो अपने साधन का बल मानता है, पर भक्त की यह विलक्षणता होती है कि वह अपने साधन का बल मानता ही नहीं।। कारण कि मैं इतना जप करता हूँ, इतना ध्यान करता हूँ, इतना सत्संग करता हूँ--इस तरह भीतर में अभिमान रहने से भक्ति प्राप्त नहीं होती। जिसका सीधा सरल स्वभाव है, जो भगवान की कृपा पर निर्भर रहते हैं, और हरेक परिस्थिति में मस्त, आनंदित रहते हैं, उन्हीं को भक्ति प्राप्त होती है-- कहहु भगति पथ कवन प्रयासा। जोग न जप तप मख उपवासा।। सरल सुभाव न मन कुटिलाई। जथा लाभ संतोष सदाई।। भक्ति प्राप्त होने पर भक्त के मन में यह बात आती ही नहीं कि मैं भजन करता हूँ। जैसे हनुमानजी कहते हैं-- जानहुँ नहिं कछु भजन उपाई। शबरी को पता ही नहीं था कि भक्ति नौ प्रकार की होती है। वह कहती है-- अधम ते अधम अधम अति नारी। तिन्हँ महँ मैं मतिमंद अधारी।। परन्तु भगवान उसको कहते हैं-- सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरे। सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे।। हनुमान और शबरी झूठ नहीं बोलते, चतुराई नहीं करते, प्रत्युत सहज, सरल भाव से कहते हैं, क्योंकि उनमें किचिन्मात्र भी अभिमान नहीं है। भक्त अपने में कोई विशेषता न देखकर केवल भगवान की कृपा ही मानता है। जब अपनी कोई चीज है ही नहीं तो फिर अभिमान किस बात का? भक्त को अपने में कोई गुण दीखता ही नहीं और वह किसी गुण को अपना मानता ही नहीं, अतः उसमें अभिमान पैदा होता ही नहीं। उसका उपाय और उपेय, साधन और साध्य दोनों भगवान ही होते हैं। वह साधन भी भगवान की कृपा से मानता है और साध्य की प्राप्ति भी भगवान की कृपा से ही मानता है। इसलिये कोई अच्छा काम हो जाय तो भक्त उसको अपना न मानकर भगवान का ही किया हुआ मानता है--- आछी करैं सो रामजी, कै सद्गुरु, कै संत। भूँणा बणै सो आपकी, ऐसी उर धारंत।। ऐसी उर धारंत, तभी कछु बिगड़ै नाहीं। उस सेवक की लाज प्रतिज्ञा राखै सोई।। ‘संतदास’मैं क्या कहूँ,कह गये संत अनंत। आछी करैं सो रामजी, कै सद्गुरु, कै संत।। महर्षि बाल्मीकिजी भी भगवान से यही कहते हैं-- गुन तुम्हार समुझइ निज दोषा। जेहि सब भाँति तुम्हार भरोसा।। भक्त, गुणों को तो भगवान का मानता है और दोषों को अपना मानता है। उसको ऐसा दीखता है कि जो अच्छा होता है, वह भगवान की कृपा से होता है, और जो बुरा होता है, वह मेरी भूल से होता है। भक्त कोई चालाकी नहीं करता, झूठ नहीं बोलता। भगवान के भजन से बढ़कर कोई मीठी चीज है ही नहीं। इसलिए भक्त निरंतर भगवान के भजन में मस्त रहता है। भगवान कहते हैं-- मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्। कथयंतश्च मां नित्यं तुष्यंति च रमंति च।। ----मेरे में चित्त वाले, मेरे में प्राणों को अर्पण करने वाले भक्तजन, आपस में मेरे गुण, प्रभाव आदि को जनाते हुए और उनका कथन करते हुए ही नित्य निरंतर संतुष्ट रहते हैं और मेरे में प्रेम करते हैं। कारण कि उनके लिए भगवान के भजन के बिना कोई काम बाकी रहा ही नहीं। भागवत में आया है-- अकामः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः। तीब्रेण भक्तियोगेन यजेत् पुरुषं परम्।। ---जो बुद्धिमान मनुष्य है, वह चाहे सम्पूर्ण कामनाओं से रहित हो, चाहे सम्पूर्ण कामनाओं से युक्त हो, चाहे मोक्ष की कामना वाला हो, उसे तो केवल तीब्र भक्ति योग के द्वारा, परम पुरुष भगवान का ही भजन करना चाहिए। जैसे बच्चा केवल माँ पर ही निर्भर रहता है। कोई काम पड़े तो केवल माँ! माँ! पुकारता है। इसके सिवाय वह क्या कर सकता है? उसमें और क्या करने की ताकत है? वह माँ-माँ इसलिये करता है कि उसको माँ नाम बड़ा मीठा, बड़ा प्यारा लगता है। गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज बृद्ध होने पर भी अपने को बालक ही मानते हैं और माँ सीताजी से कहते हैं-- कबहुँक अंब अवसर पाइ। मेरिऔ सुधि द्याइबी, कछु करुन कथा चलाइ।। दीन, सब अंग हीन, छीन, मलीन, अघी अघाइ। नाम लै भरै उदर एक प्रभु-दासी-दास कहाइ।। बूझिहैं “सो है कौन” कहिबी नाम दसा जनाइ। सुनत राम कृपालु के, मेरी बिगरिऔ बनि जाइ।। जानकी, जगजननि, जन की किये बचन सहाइ। तरै तुलसीदास भव तव नाथ-गुन-गन गाइ।।(वि.प.41) गोस्वामीजी के बालक रूपी मन में बात आई तो उन्होंने माँ (सीताजी) से कह दी कि रघुनाथ जी के सामने मेरा नाम यों ही मत लेना। पहले भक्तों की कोई करुण कथा चलाना और जब भगवान रघुनाथ जी प्रेम में मस्त हो जायँ, गद्गद हो जायँ, तब मेरा नाम लेना, नहीं तो उनकी दृष्टि मेरे लक्षणों की तरफ चली जायेगी। मेरा नाम भी सीधे मत लेना। पहले कहना कि एक ऐसा भक्त है, जो आपका नाम लेकर पेट भरता है और आपकी दासी तुलसी का दास कहलाता है। गोस्वामीजी माँ को भी लोभ देते हैं कि मैया!! मेरा काम बन जायेगा तो मैं आपके पति रघुनाथ जी के गुण गाऊँगा। यह भक्तों के भोलेपन की भाषा है, चालाकी की भाषा नहीं। कहा गया है कि--- कपट गाँठ मन में नहीं, सबसों सरल सुभाव। “नारायण”ता भक्त की, लगी किनारे नाव।। यही है मित्रों ”बिनु हरि भजन न जाहिं कलेसा।। “महापुरुष-वाक्य” यहीं तक--नमन सबहिं। सकल सन्मित्र- भक्तजन। ****** अगली कथा पावन पर्वत बेद पुराना।राम कथा रुचिराकर नाना। मर्मी सज्जन सुमति कुदारी। ज्ञान बिराग नयन उरगारी। भाव सहित खोजइ जे प्रानी। पाव भगति मनि सब सुख खानी।। मानस भक्ति तत्व विश्लेषण,श्लाघ्य ----- बुद्धि की सुक्ष्मता और पैनेपन का उपयोग कम लोगों के जीवन में पाया जाता है। पुराणों में उल्लेख मिलता है कि जब भगवान बामन रूप में बलि की यज्ञशाला में गये ,तो बलि उन्हें पहचान नहीं पाया। उसने सोचा, कोई तेजस्वी ब्रह्मचारी आ गया है। पर दैत्य-गुरु शुक्राचार्य पहचान गये,कि ये तो साक्षात् श्री हरि विष्णु ही हैं। महादानी बलि ने जब भगवान को माँगने पर सब कुछ देने को कहा, तो शुक्राचार्य, उसे अलग ले जाकर बोले कि ये तो साक्षात् नारायण हैं, और ये यहाँ तुम्हारी सारी सम्पत्ति तुमसे माँगकर इन्द्र को देने के लिए आए हैं, इसलिए देने से मना कर दो। किन्तु शिष्य बलि की बुद्धि, गुरु शुक्राचार्य से अधिक पवित्र थी। शुक्राचार्य की दृष्टि पैनी रही होगी, किन्तु पूर्ण नहीं थी। गोस्वामीजी ने मानस के प्रारंभ में ही कह दिया कि केवल “मति” नहीं “सुमति” चाहिए और “सुमति” ही नहीं “निर्मल मति” चाहिए। और आगे कहते हैं कि भगवान शंकर की कृपा से सुमति मिलती है- “संभु प्रसाद सुमति हिय हुलसी।” तथा श्रीकिशोरीजी की कृपा से निर्मल मति प्राप्त होती है-- “जासु कृपा निर्मल मति पावउँ ।” शुक्राचार्य ने भगवान को पहचानने के बाद भी बलि को “नाहीं” करने हेतु प्रेरित किया, तो स्पष्ट है कि उनकी बुद्धि में भोगासक्ति थी। यजमान की सम्पत्ति से उनकी सुख सुबिधायें भी जुड़ी थीं, इसलिए उन्हें रोका। पर बलि तो भक्तराज प्रह्लाद का पौत्र था। उसका भक्ति संस्कार प्रकट हो गया और बोला जब साक्षात् नारायण ही याचक बनकर आ गये, तो यह तो मेरा सबसे बड़ा सौभाग्य है। मैं मना नहीं करूँगा। शुक्राचार्य क्रोधित हो गये, कहा कि तू गुरु की बात टाल रहे हो। शास्त्रों में वर्णित है कि-- “तुम्ह तें अधिक गुरुहि जियँ जानी।” यानी ईश्वर से भी बड़ा गुरु है। इसका अर्थ यह नहीं कि गुरु जो चाहे करे। अपितु गुरु ईश्वर से बड़ा इसलिए है कि वह ईश्वर से मिलाता है- “गुरु गोबिन्द दोऊ खड़े काके लागूँ पाय। बलिहारी गुरुदेव जिन्हँ गोबिन्द दिया लखाय।” किन्तु गुरु यदि ईश्वर से बिमुख करे, तो क्या उसकी बात मान लेनी चाहिए, यह सोचकर कि गुरु ईश्वर से बड़ा है। तो यहाँ शुक्राचार्य की “गुरुता”ही मानो नहीं रही। और उन्होंने श्राप दे दिया कि “जा!तेरी सारी संपत्ति नष्ट हो जाय! बलि ने हँसते हुए कहा कि आप के मुँह से भी वही निकला जो भगवान चाहते हैं। वे चाहते तो मुझसे बल पूर्वक भी छीन सकते थे, पर स्वयं याचक बन कर आ गये, तो मुझे बहुत बड़ा सौभाग्य दे दिया। पर शुक्राचार्य रुके नहीं। जब दान के संकल्प बोलने का समय आया, तो उनकी बुद्धि ने फिर अपनी कला दिखाई। शुक्राचार्य ने सोचा कि जब कुश लिए हुए यजमान के हाथ में जल की धारा गिरेगी, तभी संकल्प पूरा होगा, वे जलपात्र की नलिका में बैठ गये। बामन भगवान भी कौतुकी थे। बलि के हाथ से कुश लेकर कमंडल के छिद्र में कुश का अग्र भाग चलाया। कुश का अग्रभाग नुकीला होता है। कुश शुक्राचार्य की एक आँख में घुसा, और वह आँख फूट गयी तथा रक्त की धारा बहने लगी, और वे वहाँ से निकल कर भागे। आगे चलकर शुक्राचार्य ने भगवान से पूछा कि आपने मेरा एक नेत्र क्यों फोड़ दिया? भगवान ने कहा कि तुम बहुत बड़े विद्वान हो, पर जानते नहीं कि अंतःकरण में दो नेत्र चाहिए-- “ग्यान बिराग नयन उरगारी।” ज्ञान और बैराग्य रूपी दो नेत्र हैं। तुम्हारा ज्ञान का नेत्र तो बिल्कुल ठीक था, क्योकि तुमने मुझे पहचान लिया। पर अगर बैराग्य की आँख ठीक होती, तो शिष्य को मना करने के स्थान पर समर्पण की प्रेरणा देते। अतः मैंने तुम्हारी उस खराब बैराग्य की आँख को फोड़ देना ही उचित समझा। बोले-”महाराज! कुश के अग्रभाग से ही यह कार्य क्यों किया? आज भी अगर किसी की “बुद्धि” की प्रशंसा करनी हो, तो यही कहा जाता है कि इनकी बुद्धि ‘कुशाग्र’है। भगवान का ब्यंग्य था कि तुम्हारी कुशाग्रता ने ही तुम्हारी आँख फोड़ दी। मुझे पहचानने के बाद भी अगर बुद्धि अपनी कुशाग्रता का उपयोग, समर्पण के स्थान पर भोग और आसक्ति की दिशा में प्रेरित करती है, तो वह अत्यंत निंदनीय है, तथा उसका परिणाम यही होगा। इसका अर्थ यह है कि बुद्धि भले ही बड़ी पैनी हो, पर वह अगर “सुमति” व ”निर्मल मति” न हो तो किसी काम की नहीं। भगवान शंकर की कृपा से ही सुमति प्राप्त होती है। जनकजी क़ो भगवान शिव ने अपना धनुष दे दिया। मानो इस सुमति की भूमि में जनक जैसा ब्यक्ति हल चला रहा है। हल चलाने के साथ बीज डाला जाता है। यही संसार में होता है, क्योंकि ब्यक्ति अपनी बुद्धि का उपयोग जब करता है, तो अपनी इच्छा पूरी करने के लिए। किन्तु यहाँ जनकजी ने हल चलाया पर बीज नहीं डाला। गोस्वामीजी ने खोदने की बात एक और स्थान पर कही । उनसे पूछा गया कि भक्ति मणि कैसे प्राप्त होती है? तो उसकी प्रक्रिया का वर्णन करते हुए बताया कि-- “पावन पर्वत बेद पुराना। राम कथा रुचिराकर नाना। मर्मी सज्जन सुमति कुदारी। ग्यान बिराग नयन उरगारी। भाव सहित खोजइ जो प्रानी। पाव भगति मनि सब सुख खानी।।” हल भी नुकीला होता है और कुदाल भी। इसका अभिप्राय है कि हमारी बुद्धि का जो नुकीलापन है, वह भक्ति की प्राप्ति के लिए है। सांसारिक कामनाओं की पूर्ति के लिए उसका कोई उपयोग नहीं है। श्रीसीताजी प्रगट हो गयीं जो कि साक्षात् ‘तुरीयावस्था’ हैं। जनकजी ने अपनी “निष्काम" बुद्धि की सूक्ष्मता” तथा ‘वासना के अभाव’ के द्वारा उन्हें पा लिया। तुरीयावस्था का परम फल है-ब्रह्म का साक्षात्कार। और आज वही स्थिति पूरी होने जा रही है। धनुषयज्ञ के मंडप में श्रीसीताजी की प्राप्ति की कामना लेकर अनेक देश तथा द्वीप से आए हुए राजागण बैठे हैं। इसका तात्पर्य यह है कि श्रीसीताजी अगर शान्ति हैं तो सबको शान्ति की चाह है। अगर वे शक्ति हैं तो शक्ति भी चाहिए। अगर वे लक्ष्मी हैं तो लक्ष्मी भी चाहिए, और अगर वे भक्ति हैं, तो बहुतों को भक्ति के रूप में भी उनकी आवश्यकता है। पर उनको पाने का सही मार्ग वह नहीं है जिस मार्ग से रावण ,बाणासुर या संसार के अन्य राजा पाना चाहते हैं। महाराज जनकजी ने अपनी निष्कामता के अनुसार ही श्रीसीताजी को पुत्री के रूप में पाया। भगवान शंकरजी ने उन्हें एक धनुष दिया। वे नित्य उसकी पूजा करते थे। श्रीसीताजी ने माँ की आज्ञा माँगकर धनुष के स्थान को स्वच्छ किया और उसके नीचे के स्थान को स्वच्छ करने के लिए खेल खेल में ही उसे बायें हाथ से उठा लिया। जनकजी को जब ज्ञात हुआ, तो उन्होंने सोचा कि जो धनुष हजारों योद्धाओं के द्वारा उठाया नहीं जा सकता। भगवान शंकर जिस धनुष को दोनों हाथों से उठाया करते थे, उसे जिस दिब्य कन्या ने बायें हाथ से सहजता से उठा लिया, वह महाशक्ति ही हैं। यह जानकर उनके हृदय में जो बृत्ति उत्पन्न हुयी, वही बृत्ति ब्यक्ति के हृदय में आनी चाहिए। उनको लगा कि यह दिब्य शक्ति जिनकी हैं ,उन्हें ही इनको समर्पित किया जाना चाहिए। संसार में कोई वस्तु पाने पर विज्ञापन दिया जाता है कि अमुक वस्तु, जिसकी हो, आकर ले जाय। पर विज्ञापन देने वाला इतना शब्द अवश्य जोड़ देता है कि “जिसकी हो” वह प्रमाण देकर ले जाय। क्योंकि प्रमाण न माँगे जाने पर तो कोई भी आकर दावा कर सकता है। असली मालिक से पहले भी दावेदार पहुँच सकते हैं। इसी तरह रावण भी पहले ही पहुँच गया था। रावण ने पहुँच कर महाराज जनक से कहा कि तुम सीताजी का विवाह मुझसे करा दो। बाद में धनुष तोड़कर मैं तुम्हारी प्रतिज्ञा पूरी कर दूँगा। पर जनकजी ने कहा कि धनुष टूटने के बाद ही कन्या दूँगा, पहले नहीं। यह सुनकर रावण ने कहा कि लगता है कि तुम्हें ज्योतिष का ज्ञान नहीं है। क्योंकि ज्योतिष शास्त्र में बारह राशियाँ होती हैं। उनमें-- “आदौ कन्याततो धनुः” यानी पहले कन्या राशि आती है, फिर बाद में धनु राशि। यह तो तुम्हारी बुद्धि इतनी उल्टी हो गयी है, इसलिए “पहले धनु और बाद में कन्या” जैसी उल्टी बात कह रहे हो। उसने कहा जरा सोचो तो, जिसने कैलाश को उठा लिया, क्या वह धनुष को नहीं उठा सकता? तुमको मेरे ऊपर भी विश्वास करना चाहिए और ज्योतिष शास्त्र के क्रम पर भी। वस्तुतः पहले धनुष तोड़ना तो ज्योतिष शास्त्र के प्रतिकूल है। किन्तु जनकजी ने हँसकर कहा-- “नाक्षत्र कुशलो भवान्”। यानी नक्षत्र विद्या में आप कुशल हैं। इस कथन का दूसरा अर्थ यह भी किया जा सकता है, कि आप बात बनाने में तो कुशल लगते हैं, पर क्षत्रियोचित बीरता के कार्य में कुशल नहीं जान पड़ते। अन्त में रावण को निराश होकर लौटना पड़ा। जनकजी की प्रतिज्ञा के पीछे उद्देश्य यही था कि “जिसकी हों वह प्रमाण देकर ले जाय। प्रमाण क्या? बोले-”महाशक्ति ने जिस धनुष को बायें हाथ से उठा लिया, शक्तिधर उस धनुष को तोड़ दें। यही प्रमाण होगा। इसे यूँ ही कह लीजिए कि श्रीसीताजी को प्राप्त करने का मार्ग या क्रम वह नहीं है, जो रावण, बाणासुर या अन्य राजाओं ने अपनाया। सुप्रभात सकल भागवतजन, नमन सबहिं |
क्या आप कोरोना संकट में केंद्र व राज्य सरकारों की कोशिशों से संतुष्ट हैं? |
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