गजेन्द्र की मौत चेतावनी है....

गजेन्द्र की मौत चेतावनी है.... "यहॉ तो सिर्फ गूंगे और बहरे लोग बसते हैं, खुदा जाने यहॉ पर कैसे जलसा हुआ होगा"-दुष्यंत कुमार की ये पंक्तिया जंतर-मंतर के उस रैली पर सौ फीसदी लागू होती है, जिसमे बीते बुधवार किसान गजेन्द्र ने आत्महत्या कार ली। यह मौत अमानवीय थी। यह भीड़ की असंवेदना की परकाष्ठा थी। इसकी क्षति अपूरणीय है। परंतु फर्ज़ कीजिए,अगर यह मौत दिल्ली में नहीं होती तो, क्या राजनीति और मीड़िया के गलियारे में यह जज्बाती शोर सुनाई देती? यकीकन नहीं,क्योंकि हमारी राजनीति और मीड़िया की संवेदना का केन्द्र केवल नई दिल्ली तक सीमित और केन्द्रित है।

ज्ञातव्य है कि वर्ष 1995 से लेकर आज तक करीब तीन लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। फिर भी,किसानी भारतीय राजनीति का  आज तक विमर्श नहीं बन सका है। यूं तो इस अवहेलना की जड़ें गहरी है परंतु वर्ष 1991 के आर्थिक सुधारों ने भी हमारी बुनियादी सोच को बदल दिया है। अब हम जिस विकास के मॉड़ल के प्रति मोहग्रस्त हैं,उसके हसीन-वादों,रंगीन-सपनों और गुलाबी-तस्वीर में गांव का कोई नामो-निशान नहीं है।

गांधी की बुनियादी मान्यता थी कि भारत मूलत: गांवों का देश है और अगर हमें भारत का विकास करना है तो हमें गांवों का विकास करना होगा। कांग्रेस,भाजपा हो,या फिर अन्य कोई क्षेत्रीय दल, सभी दलों का चिंतन करीब-करीब एक जैसा है। विकास मतलब पूंजीवादी तरीके का विकास। महानगर,नगर और शहर केन्द्रित विकास। गांव की अनदेखी और इसका मतलब खेती और किसानों की अनदेखी।

हमारी यह सोच पश्चिम से आयातित है.वरना,भारत जब सोने की चिड़िया कहलाता था,तो निश्चित रुप से यह खेती के कारण रहा होगा। आज बार-बार ऐसी बचकानी दलील दी जाती है कि अगर उद्योग का विकास  नहीं होगा तो फिर हमारा विकास कैसे होगा?बात सही भी है। लेकिन उद्योग और सेवा क्षेत्र के विकास के अति-मोह में हमने कृषि को विकसित नहीं किया। अमेरिका और यूरोप विकसित हैं लेकिन वे भारत की तरह कृषि प्रधान नहीं हैं.हमने भूमि अधिग्रहण के एवज में पूंजीपतियों को प्रोत्साहित किया है। बड़ी बेशर्मी से,वो भी बेशर्त।

तकरीबन साठ प्रतिशत अधिग्रहित भूमि का आज भी किसी उद्योग के लिए इस्तेमाल नहीं हो रहा है।बहुफसली जमीनों का भी सरकारों के द्वारा अधिग्रहण हुआ है। उद्योगों की तुलना में, खेती के साथ सौतैला व्यवहार होता रहा है। उद्योगों को दिल खोलकर छूट दी जाती है। पिछले पांच सालों में करीब 5.28 लाख करोड़ रुपये सब्सिड़ी के रुप में उद्योग जगत को दी गई है।

खेती को जीवंत और लाभकारी बनाने के लिए ऐसा कोई प्रयास नहीं किया गया है। अच्छा यही होता कि  उद्योगों के विकास के साथ कृषि के विकास की भी रणनीति बनाई जाती। गजेन्द्र की मौत तभी सार्थक हो सकेगी,जब एक बार कृषि के बारे में ह्म फिर से कोई मौलिक  चिंतन कर सकेंगे।

गजेन्द्र की मौत का दूसरा सिरा जनता की संवेदनहीनता और राजनीतिक असजगता से भी संबधित है।गजेन्द्र की मौत के बाद भी रैली चलती रही। इस से आप पार्टी की संवेदनहीनता के साथ-साथ, उस जनता के विवेक पर भी प्रश्न चिन्ह खड़ा होता है जो निर्विकार भाव से रैली में मौजूद रहकर ताली बजाती रही।

जंतर-मंतर एक प्रतीक है। इसे दिल्ली के अलावे भी,भारत के प्रत्येक नगर,शहर,गांव और कस्बे में देखा जा सकता है। यह तमाशा भी अलग-अलग रुपों में हर जगह चालू है। क्या हम गजेन्द्र के मौत से कोई सबक सीखेंगे?क्या अगली-बार, कोई भी राजनीतिक-दल के उम्मीदवार वोट मांगने आएगें, तो उनसे हम करीब रोज आत्महत्या करने वाले गजेन्द्र जैसे किसान की मौत के बारे में प्रश्न पुछना याद रखेंगे?

लेखक: डॉ अमित कुमार सिंह, प्रोफेसर है आर.एस.एम(पी.जी)कॉलेज,धामपुर,उप्र
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