मुहर्रम: मातम है या कुछ औऱ...

मुहर्रम: मातम है या कुछ औऱ... दीद की गर तलाश है सर को झुका नमाज़ में,
दिल से खुदी को दूर कर खुद को मिटा नमाज़ में।।

मुहर्रम इस्लाम धर्म में विश्वास करने वाले लोगों का एक प्रमुख त्यौहार है। इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार मुहर्रम हिजरी संवत का प्रथम मास है। और इसी महीने में पैगंबर हजरत मुहम्मद, मुस्तफा सल्लाहों अलैह व आलही वसल्लम ने मक्का से पवित्र नगर मदीना में हिजरत किया था। तभी से हिजरी संवंत की शुरुआत हुई। इस महीने की और भी बहुत सारी विशेषताएं है।

सन 60 हिजरी को यजीद इस्लाम धर्म का खलीफा बन बैठा। वह अपने वर्चस्व को पूरे अरब में फैलाना चाहता था जिसके लिए उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती थी पैगम्बर मुहम्मद के खानदान का इकलौता चिराग इमाम हुसैन जो किसी भी हालत में यजीद के सामने झुकने को तैयार नहीं थे। जब यजीद ने मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन से अपने लिए समर्थन मांगा, और जब इमाम हुसैन ने इससे इनकार कर दिया, तो उसने इमाम हुसैन को कत्ल करने का फरमान जारी कर दिया।

यह भी कहा जाता है कि सन् 61 हिजरी से यजीद के अत्याचार बढ़ने लगे। ऐसे में इमाम हुसैन अपने परिवार और साथियों के साथ मदीना से इराक के शहर कुफा जाने लगे पर रास्ते में यजीद की फौज ने कर्बला के रेगिस्तान पर इमाम हुसैन के काफिले को रोक दिया।

वह 2 मुहर्रम का दिन था, जब हुसैन का काफिला कर्बला के तपते रेगिस्तान पर रुका। वहां पानी का एकमात्र जरीआ फरात नदी थी, जिस पर यजीद की फौज ने 6 मुहर्रम से हुसैन के काफिले पर पानी के लिए रोक लगा दी थी। बावजूद इसके इमाम हुसैन नहीं झुके। यजीद के प्रतिनिधियों की इमाम हुसैन को झुकाने की हर कोशिश नाकाम होती रही और आखिर में युद्ध का ऐलान हो गया।

करबला इराक की राजधानी बगदाद से 100 किलोमीटर दूर उत्तर-पूर्व में एक छोटा-सा कस्बा है। यहां पर तारीख-ए-इस्लाम की एक ऐसी जंग हुई, जिसने इस्लाम का रुख ही बदल दिया। हिजरी संवत के पहले माह मुहर्रम की 10 तारीख को (10 मुहर्रम 61 हिजरी अर्थात 10 अक्टूबर 680) मुहम्मद साहिब के नवासे हजरत हुसैन को इराक के करबला में उस समय के खलीफा यजीद बिन मुआविया के आदमियों ने कत्ल कर दिया था।

इस दिन को 'यौमे आशुरा' कहा जाता है। इस दिन का विश्व इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। इस करबला की बदौलत ही आज दुनिया के हर शहर में 'करबला' नामक एक जगह होता है जहां पर मुहर्रम मनाया जाता है।

कहते हैं कि करबला में एक तरफ 72 और दूसरी तरफ यजीद की 40,000 सैनिकों की सेना थी। 72 में मर्द-औरतें और 51 बच्चे शामिल थे। हजरत हुसैन की फौज में कई मासूम थे, जिन्होंने यह जंग लड़ी। हजरत हुसैन की फौज के कमांडर अब्बास इब्ने अली थे। उधर यजीद की फौज की कमान उमर इब्ने सअद के हाथों में थी।

इस धर्म युद्ध में वास्तविक जीत हज़रत इमाम हुसैन की हुई। पर जाहिरी तौर पर यजीद के कमांडर ने हज़रत इमाम हुसैन और उनके सभी 72 साथियों को शहीद कर दिया था।

जंग का कारण : इस्लाम के पांचवें खलीफा अमीर मुआविया ने खलीफा के चुनाव के वाजिब और परम्परागत तरीके की खिलाफत करते हुए अपने बेटे यजीद को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया, जो जुल्म और अत्याचारों के लिए मशहूर था।

यजीद ने अपनी खिलाफत का ऐलान कर अन्य लोगों के अलावा हजरत इमाम हुसैन से भी उसे खलीफा पद की मान्यता देने के लिए कहा गया। इमाम हुसैन ने ऐसा करने से इनकार कर दिया और इसी इनकार की वजह से करबला पर जंग का बादल छा गया और हुसैन शहीद हो गए। इसी कारण हजरत हुसैन को शहीद-ए-आजम कहा जाता है।

हजरत इमाम हुसैन ने मुट्ठीभर लोगों के साथ अपने जमाने के सबसे बड़े जालिम और ताकतवर शासक के खिलाफ बहादुरी और सब्र के जो जौहर दिखलाए, उसे दुनिया कभी नहीं भूल सकती। इमाम हुसैन तो मर कर भी जिंदा रहे और हमेशा के लिए अमर हो गए। पर यजीद तो जीत कर भी हार गया। इस जंग के बाद अरब में क्रांति आई, हर रूह कांप उठी और हर आंखों से आंसू निकल आए और इस्लाम गालिब हुआ।

दरअसल यह कोई त्योहार नहीं, मातम का दिन है। हजरत हुसैन की शहादत यह पैगाम देती है कि इनसान को हक व सचाई के रास्ते पर चलना चाहिए।

इमाम और उनकी शहादत के बाद सिर्फ उनके एक पुत्र हजरत इमाम जै़नुलआबेदीन, जो कि बीमारी के कारण युद्ध मे भाग न ले सके थे बचे। दुनिया मे अपने बच्चों का नाम हज़रत हुसैन और उनके शहीद साथियों के नाम पर रखने वाले अरबो मुसलमान हैं। इमाम हुसेन की औलादे जो सादात कहलाती हैं दुनियाभर में फैली हुयी हैं। जो इमाम जेनुलाबेदीन से चली।
 
करबला के शहीदों ने इस्लाम धर्म को नया जीवन प्रदान किया था। कई लोग इस माह में पहले 10 दिनों के रोजे रखते हैं। जो लोग 10 दिनों के रोजे नहीं रख पाते, वे 9 और 10 तारीख के रोजे रखते हैं।

रमजान माह के फर्ज रोजे से पहले यौम-ए-आशरा का रोजा फर्ज था। करबला की जंग मानवता की रक्षा के लिए जंग का प्रतीक है। इस जंग में इल्मों मारफत, एखलाकी किरदार, बहादुरी, इंसानियत, बलिदान, सब्र दिया है। यह सारी चीजें हर जमाने, हर स्थान और वयस्क के लिए मील का पत्थर है।

करबला के शहीदों को याद करते हुए मुस्लिम भाई ताजिया निकालते हैं और अपने शरीर को तकलीफ देने वाले अनेक तरह के कर्म और करतब दिखाते हैं। आजकल ज्यादातर शहरों में ताजिया के साथ बड़े बड़े झंडे लेकर चलने या सार्वजनिक स्थानों पर इसे फहराने का भी चलन है। इसके साथ हीं बड़ी बड़ी जुलूसें निकाली जाती है।

यहाँ तक तो ठीक था, लेकिन अब जुलूस का रुप बदल गया है, पहले जुलूस में हिन्दू- मुस्लिम भी बड़ी जोश व खरोश के साथ हिस्सा लेते थे, पर अब वह इन चीजों से बचते नजर आते है, आखिर क्यों? अगर यह कहा जाए कि अब सिर्फ ताजियों का प्रदर्शन तक हीं महदूद होकर रह गया है, बेजा नहीं होंगा। ताजियों के साथ बड़े-बड़े साउंड बॉक्स और लाउडस्पीकर लगाये जाते है, सभी एक ही साथ फुल वोल्यूम में विभिन्न तरह के गाने, कव्वालियाँ बजती है और उस गाने पर लोग झूमते और नाचते है, उसे अश्लीलता का एक मिसाल हीं कहा जा सकता है।

आखिर में बस मैं इतना ही कहना चाहुंगा कि जंग करबला के बाद न जाने कैसे शिया और सुन्नी दो अलग वर्ग बन गए। और शहादत का यह दिन सिर्फ शियाओं के महत्व का ही क्यों रह गया पता नहीं, जबकि इमाम हुसैन ने तो जुल्म और अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाई थी किसी सम्प्रदाय विशेष के खिलाफ नहीं।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि अगर हम भारत को आजाद कराना चाहते हैं, तो हमको वहीं रास्ता अपनाना पड़ेगा जो इमाम हुसैन ने करबला के मैदान में अपनाया था।
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