प्रेस की अधूरी आजादी
आशुतोष ,
Sep 17, 2012, 13:35 pm IST
Keywords: Freedom of speech Film on Islam Freedom of Press Supreme Court Justice Kapadia Fundamental rights Corruption media control Jethmalani अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता इस्लाम पर फिल्म प्रेस की आजादी सुप्रीम कोर्ट जस्टिस कपाड़िया मौलिक अधिकार भ्रष्टाचार मीडिया पर अंकुश राम जेठमलानी
खबरों को सनसनीखेज बनाना तो मीडिया की प्रवृत्ति है: प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह
अदालत की खबरों की रिपोर्टिंग करने पर कोर्ट कुछ समय के लिए पाबंदी लगा सकता है: सुप्रीम कोर्ट कार्टून बनाने पर असीम त्रिवेदी के खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा: मुंबई पुलिस इस्लाम पर बनी फिल्म बचकानी है, लेकिन हमारे हाथ बंधे हैं, हम उसके खिलाफ चाहकर भी कार्रवाई नहीं कर सकते: हिलेरी क्लिंटन चारों बातों का रिश्ता अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से है। तीन भारत की हैं, चौथी अमेरिका की। भारत में भी लोकतंत्र है और अमेरिका में भी, लेकिन दोनों में फर्क है। इस्लाम पर भारत में फिल्म बनी होती, तो अब तक इसके निर्माता-निर्देशक जेल में होते। यह फर्क क्यों है? सुप्रीम कोर्ट ने कुछ दिन पहले अपने फैसले में इस ओर इशारा किया है। जस्टिस कपाड़िया की अगुवाई में सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने लिखा, अमेरिका में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करने वाले पहले संशोधन की वजह से अभिव्यक्ति की आजादी पर किसी भी तरह का प्रतिबंध नहीं लग सकता। अदालत लिखती है- भारत और कनाडा से अलग अमेरिका में प्रेस की आजादी संपूर्ण है। अमेरिकी संविधान में कनाडा के संविधान की चार्टर राइट्स की धारा-एक और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (2) की तरह प्रेस की आजादी पर विवेकपूर्ण प्रतिबंध लगाने के प्रावधान नहीं हैं। इसलिए अमेरिका में मीडिया की आजादी, खबरों के प्रसार और अभिव्यक्ति पर किसी भी तरह का हस्तक्षेप गैर-कानूनी होगा। लेकिन भारत में विवेकपूर्ण प्रतिबंध का सहारा लेकर अभिव्यक्ति की आजादी को रोका जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने 'सहारा बनाम सेबी' के मामले में लिखा है कि इंसाफ के तकाजे को देखते हुए संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत अगर प्रतिबंध लगता है, तो संविधान का उल्लंघन नहीं माना जाना चाहिए। यानी भारतीय संदर्भ में अगर किसी नागरिक के व्यक्तिगत अधिकार और मौलिक अधिकार में किसी तरह का टकराव पैदा होता है, तो मौलिक अधिकारों को सस्पेंड किया जा सकता है। हालांकि, कोर्ट ने यह भी कहा है कि यह रोक अनंत काल के लिए नहीं होगी और यह अपवाद स्वरूप ही है। इस अधिकार ने न्यायपालिका के हाथों में एक ऐसा औजार दे दिया है, जिसके आधार पर कभी भी प्रेस पर डंडा चलाया जा सकता है। सवाल यह भी है कि क्या हमें भारतीय न्याय व्यवस्था यह भरोसा देती है कि इस फैसले का दुरुपयोग नहीं होगा? मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि न्यायपालिका की हालत बहुत अच्छी नहीं है, खास तौर पर निचले स्तर पर। यह सच है कि लोग अब भी कार्यपालिका और विधायिका से ज्यादा न्यायपालिका पर भरोसा करते हैं, पर हमारी न्याय व्यवस्था अब भी समाज के ताकतवर लोगों के पक्ष में झुकी हुई है। जिसके पास पैसा है, सत्ता है, ताकत है, वह देश के सबसे बेहतरीन वकीलों की सेवा ले सकता है और गरीबों-कमजोरों को वकील ढूंढ़े नहीं मिलते। ऐसे में, बेहतरीन वकील अपनी दलीलों के आधार पर अच्छे से अच्छे साक्ष्य को कमजोर साबित कर देते हैं और अपराधी को संदेह का लाभ मिल जाता है। फिर समाज के दूसरे संस्थानों की तरह न्यायपालिका में भी भ्रष्टाचार घुस गया है। यह सही है कि सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले के पहले भी अदालतों के पास इस तरह के अधिकार थे और वे जरूरत के हिसाब से मीडिया पर अंकुश लगा सकती थीं। लेकिन हाल के फैसले ने इस अधिकार को सांविधानिक जामा पहना दिया है। अब कोई भी ताकतवर व्यक्ति अपने व्यक्तिगत अधिकारों के हनन का हवाला देकर मीडिया की नजर से बच सकता है या फिर मीडिया को अब सब कुछ जानते-बूझते हुए भी मूकदर्शक बने रहने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। मीडिया की वजह से पिछले दिनों न्यायिक देरी से निराश कई लोगों को न्याय मिले। पंजाब के आईपीएस राठौर का मामला हाल ही का है। एक चौदह साल की लड़की के साथ अभद्र व्यवहार हुआ था। मामले को दबाने के लिए पूरा तंत्र लग गया और लड़की को आत्महत्या करनी पड़ी। इस मामले में आरोपी को मामूली छह महीने की सजा ही मिली। मीडिया ने उस मामले को उठाया। केस दोबारा खुला। एक नई बहस शुरू हुई और आरोपी को फिर जेल जाना पड़ा। हालांकि, तब तक वह मुकदमा इतना कमजोर हो चुका था कि जो सजा मिलनी चाहिए, वह नहीं मिली। जेसिका मामले में भी सारे गुनहगार बेदाग छूट गए थे। मीडिया की वजह से ही असली गुनहगार आज जेल में है। दोनों ही मामले 'कमजोर नागरिक बनाम रसूखदार शख्स' का था। मीडिया के कूदने के पहले आम नागरिक मुंहकी खा चुका था। मीडिया ने उसे ताकत दी है। आम आदमी को एहसास हुआ कि अगर कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका में उसकी गुहार नहीं सुनी जाती है, तब वह मीडिया के पास जा सकता है और इंसाफ पा सकता है। अब आम आदमी को इंसाफ कैसे मिलेगा? मैं यह बात इसलिए कह रहा हूं कि मीडिया की ताकत से घबराकर ताकतवर तबकों ने मीडिया के खिलाफ मुहिम चला रखी है। आरोप यह है कि मीडिया ट्रायल अदालतों की कार्यवाही को प्रभावित कर रही है और इससे जजों पर दबाव पड़ता है। मेरा कहना है कि यह आरोप ही जजों की प्रतिबद्धता और उनकी गरिमा पर चोट करने वाला है, लेकिन क्या यह नहीं होना चाहिए कि इंसाफ के लिए किसी भी मामले की सुनवाई के समय एक ही मेधा और क्षमता के वकील हों? यह कहां का इंसाफ है कि बड़े उद्योगपतियों के लिए तो राम जेठमलानी जिरह करें और सरयू प्रसाद की वकालत घुरहू प्रसाद करें, जिन्होंने बमुश्किल कानून की डिग्री हासिल की है। यह तो बेमेल सुनवाई है। और अंत में जरा तीन दिसंबर, 1950 को कही पंडित नेहरू की बात पर गौर कीजिए। उन्होंने कहा था, 'मैं प्रेस पर पाबंदी लगाने की जगह, उसकी आजादी के बेजा इस्तेमाल के तमाम खतरों के बावजूद पूरी तरह आजाद प्रेस रखना चाहूंगा, क्योंकि प्रेस की आजादी एक नारा नहीं, भारतीय लोकतंत्र का अभिन्न अंग है।'
आशुतोष
वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार आशुतोष तीखे तेवरों वाले खबरिया टीवी चैनल IBN7 के मैनेजिंग एडिटर हैं। IBN7 से जुड़ने से पहले आशुतोष 'आजतक' की टीम का हिस्सा थे। वह भारत के किसी भी हिन्दी न्यूज़ चैनल के प्राइम टाइम पर देखे और सुने जाने वाले सबसे चर्चित एंकरों में से एक हैं। ऐंकरिंग के अलावा फील्ड और डेस्क पर खबरों का प्रबंधन उनकी प्रमुख क्षमता रही है। आशुतोष टेलीविज़न के हलके के उन गिनती के पत्रकारों में हैं, जो अपने थकाऊ, व्यस्त और चुनौतीपूर्ण ज़िम्मेदारियों के बावजूद पढ़ने-लिखने के लिए नियमित वक्त निकाल लेते हैं। वह देश के एक छोर से दूसरे छोर तक खबरों की कवरेज से जुड़े रहे हैं, और उनके लिखे लेख कुछ चुनिंदा अख़बारों के संपादकीय पन्ने का स्थाई हिस्सा हैं।
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