उत्तर प्रदेश चुनाव–लोक कल्याण के आईने में

डॉ संजय कुमार , Jul 20, 2021, 17:51 pm IST
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उत्तर प्रदेश चुनाव–लोक कल्याण के आईने में
लगभग 14 करोड़ 66 लाख मतदाता वाले उत्तर प्रदेश में चुनावी शंखनाद सुनाई देने लगी है. इसके अलावा उतराखंड, पंजाब, मणिपुर, गोवा और गुजरात में भी 2022 में विधानसभा का चुनाव होना है. लोकतंत्र के इस पंचवर्षीय योजना पर एक बड़ी धनराशि खर्च होती है. विशेषकर ऐसे दौर में जब कोरोना महामारी ने भारत के आर्थिक विकास के पहिये पर लगाम लगा दी है, चुनाव के औचित्य पर हीं सवाल उठने लगे हैं. सरकार के पास कोरोना से हुई अब तक 4 लाख ज्यादा मौतों के लिए मुआवजा देने के लिए पैसे नहीं हैं तो चुनाव के लिए कहाँ से धन आएगा? 4 लाख प्रति मौत के हिसाब से लगभग 16 हजार करोड़ मुआवजे की कुल धनराशि बनती है. अकेले उत्तर प्रदेश पर हीं 2020 – 21 के वित्तीय वर्ष में लगभग 54 हजार करोड़ का कर्ज चढ़ चुका है. पंजाब पर लगभग 15 हजार करोड़ का. सवाल सिर्फ चुनाव का नहीं है, वरन औचित्यपूर्ण चुनाव का है. सत्ता में कोई भी पार्टी आए, परिस्थितियां आर्थिक दृष्टिकोण से लगातार बदतर होते जा रही हैं. एक अनुमान के मुताबिक़ आगामी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कानूनी एवं गैरकानूनी मिलाकर लगभग डेढ़ से दो लाख करोड़ रूपया खर्च हो सकता है, जो प्रति विधानसभा लगभग 400 से 500 करोड़ रुपया बनता है. सत्ता में कोई भी पार्टी आए, उसके बाद के आर्थिक हालात क्या होंगें? इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है. 
   
  ऐसा लगता है कि हम लोकतंत्र की मूल अवधारणा से लगातार दूर होते जा रहे हैं, जहाँ चुनाव सिर्फ एक माध्यम होता है अपने प्रतिनिधियों को चुनने का. व्यापक उद्देश्य तो जनता का सर्वांगीण विकास एवं कल्याण होता है. परन्तु त्रासदी यह है कि अब चुनाव करवाना एवं सत्ता प्राप्ति हीं मूल उद्देश्य बनता जा रहा है. एक समय ऐसा भी आएगा जब चुनाव करवाने की अपरिहार्यता का हवाला देते हुए सरकारें जनता पर नए नए तरीके से टैक्स लगाएंगी, जैसा की वर्तमान में पेट्रोल, डीज़ल एवं रसोई गैस के मूल्यों के साथ हो रहा है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रति बैरल कच्चे तेल का मूल्य लगभग 70 से 75 डॉलर चल रहा है. शोधन एवं अन्य जरूरी खर्चों के पश्चात् इसका लागत मूल्य लगभग 38 रुपया प्रति लीटर के आसपास बनता है, परन्तु विक्रय मूल्य 100 रुपया के पार जा पहुंचा है, जिसमे केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों की क्रमशः टैक्स हिस्सेदारी 39 और 23 रुपया के आसपास है. तेल की लगात्तार बढ़ती कीमतों के फलस्वरूप  महंगाई रोज नए रिकॉर्ड बना रही है, परन्तु सरकार मार्किट कंपनियों का हवाला देते हुए किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप से कन्नी काट रही है. सवाल यह उठता है कि बंगाल चुनाव के समय तेल के दाम में क्यों नही परिवर्तन हुआ? उत्तर स्पष्ट है और आगे भी रहेगा. 2022 में चुनाव के समय तेल के दाम में पुनः कोई परिवर्तन नहीं होगा या हो सकता है कि दाम में कुछ कमी कर दी जाय. इसका अर्थ यह हुआ कि सरकारें अब कोई भी निर्णय सिर्फ और सिर्फ चुनाव जीतने के लक्ष्य के साथ लेने लगी हैं, जो स्वस्थ लोकतंत्र के हिसाब से अच्छा नहीं है. सामान्य जन आकांक्षा सरकार से लोक कल्याणकारी नीतियों की अपेक्षा रखती है.         
      
कोरोना काल में हुए आर्थिक नुकसान के साथ बेरोजगार हुए लोगों का पुनर्वासन और नवीन रोजगार पैदा होने की संभावनाओं में कमी तथा बेतहाशा बढती हुई महंगाई बहुत बड़े खतरे की तरफ इशारा कर रही है. सवाल फिर वही उठता है कि चुनाव की रस्म अदायगी ज्यादा जरूरी है अथवा आर्थिक परिस्थितयों को पुनः पटरी पर लाना? भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में अब यह प्रश्न ज्यादा महत्वपूर्ण हो चला है. चुनाव सुधार के साथ राजनीतिक एवं प्रशासनिक सुधार अब ज्यादा दिनों तक नहीं टाला जा सकता है. राजनीतिक पेंशनरों पर लगातार खर्च बढ़ता हीं जा रहा है, जिसे भारत की अर्थव्यवस्था अब बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं है. यदि केंद्र में जनवरी 2004 के बाद एवं राज्यों में तदनुसार नियुक्त हुए सरकारी कर्मचारी पेंशन के हक़दार नहीं हैं तो किस तर्क और कानून के आधार पर राजनीतिक नेताओं को पेंशन मिल रही है? क्या इस आधार पर कि क़ानून बनाने की शक्ति इनके हाथों में है. तब तो यह सीधा सीधा कानून का दुरुपयोग हीं कहा जाएगा. और यदि पेंशन देना ही है तो राजनीति को भी एक पेशा अथवा व्यवसाय का दर्जा दे दिया जाना अविलम्ब जरूरी है. समाज और देश सेवा के नाम पर यह खेल अब बंद हो हीं जाना चाहिए. 2024 तक भारत की अर्थव्यवस्था को पांच ट्रिलियन डॉलर बनाने के लक्ष्य से हम काफी पीछे छूट चुके हैं. अकेले अमेरिका का कैलिफ़ोर्निया राज्य पांच ट्रिलियन वाली अर्थवयवस्था है. पारदर्शिता एवं राजनीतिक शुचिता ने इस लक्ष्य को संभव कर दिखाया है जिसका नितांत अभाव भारत में है. 
       
अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय द्वारा किये गए एक शोध प्रोजेक्ट के अनुसार पिछले एक वर्ष में भारत में 23 करोड़ लोग और गरीब हो गए हैं, जहाँ पहले से हीं 50 से 55 करोड़ लोग निर्धन थे. यानि लगभग 75 से 80 करोड़ भारत की जनसंख्या आज निर्धन है. यह कुल जनसंख्या का लगभग 55 प्रतिशत है. यह तथ्य इस प्रकार भी स्थापित हो जाता है कि प्रधानमंत्री ने दीपावली तक 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन देने की घोषणा की है. स्थिति वाकई गंभीर है. यदि कोरोना की तीसरी लहर आती है तो यह तय है कि परिस्थियाँ और भी विकट हो जायेंगी. जिस प्रकार से बंगाल, तमिलनाडु, असम और पुद्दुचेरी के विधानसभा चुनाव एवं उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनाव के दौरान कोरोना ने जमकर कहर बरपाया तथा इस तथ्य की अनदेखी लगातार मोदी प्रशासन के द्वारा की गई; तो क्या गारंटी है कि आगामी छः विधानसभा चुनाव के समय नहीं की जायेगी? वैसे भी उतर प्रदेश का चुनाव मोदी और योगी के लिए सबसे बड़ी परीक्षा साबित होने वाली है. सिर्फ इस बात के लिए लोगों की जान जोखिम में नहीं डाली जा सकती है कि चुनावी लोकतंत्र में हिस्सा लेना सभी नागरिकों का कर्तव्य है. लोकतंत्र की पूरी अवधारणा हीं लोक कल्याण पर आधारित है, जिसका खंडित स्वरुप अब भारत में देखने को मिल रहा है. आलोचना से पैदा हुए निराशा ने सरकार को और भी चुनाव की तरफ मुंह मोड़ने के लिए बाध्य कर दिया है. 
     
 दूसरी ओर विपक्ष विशेषकर समाजवादी पार्टी धीरे धीरे सड़कों पर उतरकर सरकार के समक्ष चुनौती खड़ी कर रही है. परन्तु जिस प्रकार से 15 जुलाई को आगरा में पार्टी कार्यकर्ताओं ने पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाए, उससे पुनः लोकतंत्र के दृष्टिकोण से गंभीर सवाल खड़े हो गए हैं. आखिर हम कब परिपक्व लोकतंत्र बनेंगें? निश्चित हीं समाजवादी पार्टी के संगठन में बहुत कमियां हैं, जिसका निराकरण अखिलेश यादव को तत्काल करना चाहिए. अन्यथा चुनाव जीतने का सपना देखना छोड़ दे. पार्टी कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण इसीलिए जरूरी होता है. सिर्फ सत्ता के दृष्टिकोण से पार्टी का निर्माण करना बेहद घातक होता है. मूल्य आधारित राजनीति की परिकल्पना स्वस्थ लोकतंत्र के दृष्टिकोण से हमेशा हीं ग्राह्य एवं प्रेरणादायक होता है, जिसकी झलक भाजपा के अलावा और कहीं दिख नहीं रही है. परन्तु लगता है कि भाजपा भी सत्ताप्रेरित राजनीति की पोषक होते जा रही है. रामराज्य की जिस परिकल्पना के साथ अखिल भारतीय राष्ट्रवादी दृष्टिकोण के साथ भाजपा आगे बढ़ी है, उसका धीरे धीरे अवसान हो रहा है. बंगाल चुनाव में आयातित नेताओं के माध्यम से सत्ता प्राप्ति की उत्कट अभिलाषा से उपजी हार ने उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनाव में साम, दंड, भेद के सहारे जिला पंचायत एवं ब्लाक प्रमुखी की कुर्सी हथियाने की सफल लेकिन अनैतिक कोशिश की, उससे और भी ज्यादा गंभीर प्रश्न खड़े हो गए हैं. लखीमपुर खीरी के पसगवां ब्लाक में जिस प्रकार से विपक्षी पार्टी की महिला कार्यकर्ता के चीरहरण का प्रयास हुआ, वह न सिर्फ निंदनीय है वरन भाजपा के स्वघोषित रामराज्य की परिकल्पना पर एक बदनुमा दाग बन गया है. तो क्या भारत में आज मूल्य आधारित राजनीति नेपथ्य में चली गई है? लगता तो ऐसा हीं है. तब तो लोकतांत्रिक राजनीति एवं इससे जुड़े तमाम सुधार अधूरे रह जाएंगें. भारत को यदि आर्थिक महाशक्ति बनना है तो हमारे पास और कोई विकल्प नहीं बचता है सिवाय इसके कि हम अपरिहार्य रूप से प्रशासनिक एवं राजनीतिक सुधार की तरफ कदम बढ़ाएं. परन्तु यहाँ तो कदम उलटी चाल चल रहे हैं. यह एक बेहद गंभीर प्रश्न है जिसे जनता और मतदाता आगामी विधानसभा चुनाव में किस तरीके से देखते हैं? यह समझना नितांत आवश्यक है. पहचान की राजनीति इतनी विद्रूप शक्ल ले लेगी, इसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी. 
     
उत्तर प्रदेश चुनाव के मद्देनजर प्रधानमंत्री मोदी ने अपने मंत्रिमंडल को जम्बो विस्तार दे दिया. 43 में से 7 मंत्री प्रदेश से बनाए गए हैं. कोशिश यही की गई है कि जातिगत और वर्गीय समीकरण के आधार पर मतदाताओं को कैसे लुभाया जाए? परन्तु मंत्रिमंडल विस्तार की पूरी कवायद मोदी को मजबूत प्रधानमन्त्री के बजाय मजबूर प्रधानमन्त्री हीं साबित कर रहा है. तीन - तीन दलित एवं पिछड़े तथा एक ब्राह्मण को मंत्री बनाकर जातिगत हितों की पूर्ती करने का प्रयास किया गया है. परन्तु इसका लाभ चुनाव में मिलते हुए मुझे नहीं दिख रहा है. रूहेलखंड क्षेत्र से बेहद सौम्य एवं मिलनसार नेता संतोष गंगवार को मंत्रिमंडल से हटाना भाजपा के लिए महंगा साबित हो सकता है. कुर्मी बिरादरी के ये एक लोकप्रिय नेता हैं. अनुप्रिया पटेल एक क्षेत्र विशेष की नेता हैं. लखनऊ से सटे मोहनलालगंज से सांसद कौशल किशोर को मंत्री बनाना एक प्रकार से योगी की खुल कर विरोध करने के प्रसाद के तौर पर देखा जा रहा है. मंत्रिमंडल विस्तार ने एक बार पुनः मोदी - योगी अंतर्विरोध को सामने ला दिया है. निषाद पार्टी के डॉ संजय निषाद एवं सुभासपा के ओमप्रकाश राजभर भी खासे गुस्से में दिख रहे हैं. इन दोनों जातियों का वोट भाजपा से फिलहाल दूर जाता दिख रहा है. परन्तु ऐसा लगता है कि चुनाव संबंधी रणनीति में सबसे ठेढ़ा पेंच एआईएमआईएम के ओवैसी की एंट्री है, जिसका सीधा लाभ भाजपा और नुकसान सपा का है. इसीलिए योगी सरकार हिंदुत्व के किसी भी मुद्दे से पीछे नहीं हटना चाहती है. धार्मिक आधार पर मतदाताओं का ध्रुवीकरण करना अपेक्षाकृत सरल होता है. आगामी चुनाव का परिणाम मेरे दृष्टिकोण से इसी एक तथ्य से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाला है.  
    
आगामी श्रावण मास हेतु कांवड़ यात्रा को लेकर योगी सरकार ने सीमित संख्या में राज्य के भीतर सांकेतिक रूप से यात्रा की इजाजत दी है, परन्तु आश्चर्यजनक रूप से उतराखंड सरकार ने इस यात्रा पर रोक लगा दी है, जबकि वहां भी उत्तर प्रदेश के साथ हीं चुनाव होना है. सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेते हुए जस्टिस आर. एफ. नरीमन एवं जस्टिस बी. आर. गवई की खंडपीठ ने उत्तर प्रदेश सरकार को यह कहकर सलाह दी है कि ‘जीने का अधिकार सर्वोपरि है’. और इसी अधिकार में धर्म का अधिकार निहित है. 19 जुलाई तक सरकार को पुनर्विचार का समय दिया. अन्यथा की स्थिति में सुप्रीम कोर्ट इस पर अपना आदेश पारित करने के लिए बाध्य होगा. सरकार ने कोर्ट में यह दलील दी है कि कोरोना सम्मत व्यवहार के अंतर्गत सीमित मात्र में कांवड़ यात्रा की इजाजत दी गई है जिससे कि हिन्दू समाज की धार्मिक भावना आहत न हो और सांकेतिक यात्रा भी हो जाए. जाहिर सी बात है कि सरकार का यह निर्णय पूरी तरह से राजनीतिक हीं है, जिसका उद्देश्य हिन्दू मतदाताओं की गोलबंदी है. यह बात मेरी समझ से परे है कि जहाँ कोरोना के कारण स्कूल पूरी तरह से बंद हैं, वहां इस प्रकार का निर्णय लेना कहीं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना तो नहीं है. अंततः सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के सलाह को संज्ञान में लेते हुए कांवड़ यात्रा को स्थगित कर दिया है. परन्तु ऐसा लगता है कि योगी सरकार ने पूरी तरह मन बना लिया है कि आगामी विधानसभा चुनाव में धर्म संबंधी किसी भी मौके को छोड़ा न जाय. यही उसके जीत की गारंटी बनेगी. मतलब बिलकुल साफ़ है कि सत्ता प्राप्ति हेतु जितना भी जोखिम लिया जा सकता है, योगी सरकार जरूर लेगी. इसीलिए कमजोर पिच पर बैटिंग करना हमेशा हीं चुनौतीपूर्ण होता है. उतराखंड की सरकार ने बिलकुल सही फैसला लेकर चुनाव में उतरने का मन बनाया है. सुप्रीम कोर्ट की उपरोक्त व्याख्या यह बात समझने के लिए पर्याप्त है. दूसरी ओर केन्द्र की सरकार कोई भी नीतिगत फैसला लेने से डर रही है तथा निर्णय लेने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर छोड़ दिया है. कोरोना की पहली एवं दूसरी लहर में यह अंतर साफ़ साफ़ देखा और समझा जा सकता है. इसीलिए दूसरी लहर से निपटने की विफलता राज्य सरकारों पर डालने की असफल कोशिश की गयी है. 
    
कांग्रेस की स्थिति एक अबूझ पहेली बनते जा रही है. ताज़ा बयान में राहुल गाँधी ने उन लोगों को पार्टी से बाहर निकालने की बात की है जो आरएसएस से जुड़े लगते हैं और भाजपा से डरते हैं. उन्हें निडर लोगों की जरूरत है. पता नहीं इस समय ऐसे बयान की क्यों आवश्यकता पड़ गई? पहले से हीं बड़े नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया एवं जितिन प्रसाद पार्टी छोड़ चुके हैं. पंजाब में सिध्हू ने कैप्टन के नाक में दम भर दिया है. सुलह का रास्ता अभी भी तलाशा जा रहा है. राजस्थान में सचिन पायलट के बाहर जाने की ख़बरें अक्सर निकला करती हैं. पता नहीं और कितने नेता पार्टी से बाहर जाएंगें? बंगाल चुनाव में जो हश्र कांग्रेस पार्टी का हुआ है, लगता है उससे अभी तक सबक नहीं ले पाई है. कहीं उत्तर प्रदेश में भी बंगाल चुनाव के परिणाम की पुनरावृति न हो जाय? हालांकि प्रियंका गांधी अपनी सक्रियता लगातार बढ़ा रही है. परन्तु इस प्रकार के बयान पार्टी के लिए नुकसानदायक हीं साबित होंगें. 
         
अभी भी सबसे महत्वपूर्ण सवाल वहीँ खड़ा है कि मतदाता के पास सार्थक विकल्प क्या बचा है? क्या वह पुनः भाजपा के साथ जायेगी अथवा सपा गठबंधन के साथ? बसपा और कांग्रेस इस रेस में बहुत पिछड़ चुके हैं. भागीदारी संकल्प मोर्चा के साथ ओवैसी ने भी ताल ठोंक दी है, परन्तु चुनाव जीतने के बजाय ये खेल बिगाड़ने में इक्कीस साबित हो सकता है.

#डॉ संजय कुमार
एसो. प्रोफेसर एवं चुनाव विश्लेषक 
सी.एस.एस.पी, कानपुर
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