औद्योगिक घरानों की कृपा से चलती हैं पार्टियां

राजीव रंजन नाग , Sep 15, 2012, 17:56 pm IST
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औद्योगिक घरानों की कृपा से चलती हैं पार्टियां नई दिल्ली: आर्थिक मंदी, बेरोजगारी, महंगाई, गरीबी और यहां तक कि किसानों की आत्महत्याओं से जूझते इस देश में राजनीतिक दलों पर लक्ष्मी की बरसात सिर्फ चौंकाती ही नहीं, कई अनुत्तरित सवाल भी खड़े करती है। सूचना के अधिकार के तहत हासिल जानकारी के मुताबिक वर्ष 2004 से 2011 के बीच लक्ष्मी की सबसे ज्यादा बरसात उस कांग्रेस पर हुई है, जो केंद्र में यूपीए सरकार का नेतृत्व कर रही है।

कांग्रेस की जो सरकार 22 रुपये दैनिक आय वाले को गरीबी की रेखा से नीचे मानने से इनकार कर देती है, उसी कांग्रेस को इन सात सालों में 2008 करोड़ रुपये चंदा मिला। अगर केंद्र में सत्तारूढ़ होते ही लक्ष्मी की कृपावृष्टि में अचानक चौंकाने वाली वृद्धि हुई है तो उसके कारण जानने-समझने के लिए किसी खोज या शोध की जरूरत नहीं होनी चाहिए।

महंगाई और भ्रष्टाचार ने आम आदमी का जीवन इतना कष्टदायक बना दिया है कि वह किसी राजनीतिक दल को चंदा तो देने की सोच भी नहीं सकता। आखिर फिर राजनीतिक दलों पर लक्ष्मी की यह बरसात कौन कर रहा है ? साफ है राजनीतिक दलों पर औद्योगिक घराने लक्ष्मी-वर्षा करते हैं और ऐसा करने के पीछे उनका अपना व्यापारिक स्वार्थ होते हैं। राजनीतिक दल  केंद्र और राज्यों में सरकार का नेतृत्व करते हैं। इसलिए यह समझना भी मुश्किल नहीं होना चाहिए कि उनसे ये कारोबारी किस तरह की कृपा की उम्मीद रखते  हैं।?

टू-जी स्पेक्ट्रम से लेकर कोयला घोटाले तक सरकार द्वारा चहेते औद्योगिक घरानों और उनकी कंपनियों को प्राकृतिक संसाधनों की बंदरबांट से यह संकेत भी साफ मिल जाता है कि राजनीतिक दलों द्वारा अपने चंदादाताओं पर की जाने वाली कृपा-वृष्टि किस तरह की होती है ? अगर पिछले आठ साल से केंद्र में यूपीए सरकार का नेतृत्व कर रही कांग्रेस चंदा देने वालों की पहली पसंद है तो मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी उनकी दूसरी पसंद है, पर इन पसंदों के बीच का फासला बहुत बड़ा है।

वर्ष 2004 से 2011 के बीच के सात सालों में अगर कांग्रेस को 2008 करोड़ रुपये मिले तो भाजपा के हिस्से में सिर्फ 994 करोड़ रुपये ही आये। साफ है औद्योगिक घराने उन दलों को पैसा क्यों देगा जो उनकी हितों की रक्षा नहीं कर सकती ? भाजपा को 994 करोड रुपये चंदे के रूप में मिल गये तो शायद इसलिए कि वर्ष 2004 में भी वह कुछ माह तक केंद्र में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर रही थी तो वर्ष 2009 के लोकसभा चुनावों में भी उसे केंद्रीय सत्ता की दौड़ में माना जा रहा था। फिर यह तो वास्तविकता है कि केंद्र से सत्ताच्युत हो जाने के बावजूद भाजपा कई राज्यों में अभी भी सत्ता में है।

दरअसल, बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी और माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी सरीखे क्षेत्रीय दलों को इस अवधि में मिले चंदे से भी यही संकेत मिलते हैं कि यह चंदा राजनीतिक कम, सत्ता पर चढ़ावा ज्यादा है। बसपा वर्ष 2007 से इस साल के शुरू तक देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ रही तो उसे इन सात सालों में 484 करोड़ रुपये चंदा मिला, जबकि वर्ष 2002 से 2007 तक सत्ता में रही सपा को महज 279 करोड़ रुपये ही मिल पाये।

उधर माकपा वर्ष 2011 तक पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा सरकार का नेतृत्व कर रही थी। इसलिए उसे भी 417 करोड़ रुपये चंदा मिला। जाहिर है, माकपा को भी यह चंदा औद्योगिक घरानों या उनके द्वारा लोगों को छलावा देने के लिए बनाये गये ट्रस्टों से ही मिला होगा। ऐसे में खुद को किसान-मजदूर-गरीब की हमदर्द बताने वाली माकपा को यह तो बताना ही चाहिए कि इन औद्योगिक घरानों से उसने चंदा किस एवज में लिया ? आश्चर्य की बात यह है कि राजनीतिक दलों की आय और संपन्नता उस अवधि में भी बढ़ती रही है, जब देश की विकास दर गिरी, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा बाजार में रुपया गिरा और बेलगाम महंगाई ने आम आदमी के मुंह से निवाला भी छीन लिया। 

राजनीतिक दलों को चंदा लेने पर पाबंदी नहीं है, लेकिन अपनी आय का ब्यौरा देने से परहेज करना उन्हें कठघरे में खड़ा करती है। अनेक क्षेत्रीय दल तो ऐसे हैं, जिन्होंने अपनी आय की बाबत चुनाव आयोग को विवरण भी नहीं दिया है, जबकि आयकर कानून के तहत छूट हासिल करने के लिए यह अनिवार्य है। भारत में पार्टी फंड का हिसाब-किताब पारदर्शी नहीं है। इनकम टैक्स डिपार्टमेंट में  दानकर्ताओं की दी गई सूची से पता चलता है कि ये पार्टियां अपने धन के स्रोत को सार्वजनिक करने से परहेज करती है।

उदाहरण के तौर पर, कांग्रेस ने 2004 से 2008-09 तक की पांच वर्ष की अवधि के दौरान कूपन के जरिए 978 करोड़ रुपये प्राप्त किये, लेकिन उसने दानकर्ताओं की कोई सूची आयकर विभाग  को मुहैया नहीं करवायी। जबकि, इसी अवधि के दौरान उसे ज्ञात स्नेतों से महज 85 करोड़ रुपये ही मिले। उधर, विपक्ष में रहते हुए भाजपा फंड इकट्ठा करने में उतना सफल नहीं रही, लेकिन 2005 से 2009 के बीच उसने आजीवन सहयोग निधि कूपन के जरिए 30 करोड़ रुपये हासिल किये। जबकि अज्ञात दानकर्ताओं से इसे 95 करोड़ रुपये की राशि मिली।

वहीं, बहुजन समाज पार्टी , भाजपा और कांग्रेस की तुलना में काफी छोटी पार्टी होने के बावजूद फंड इकट्ठा करने में आगे रही। बसपा को महज दो वर्षो (2007-08 और 2008-09) में नकद डोनेशन के तौर पर 200 करोड़ रुपये मिले। हालांकि, बसपा ने इस बात का खुलासा नहीं किया कि उसे ये पैसे किन लोगों से प्राप्त हुए। उसने दावा किया कि ये फंड उसने विभिन्न लोगों से 20,000 रुपये से भी कम राशि के तौर पर इकट्ठा किया। जब जब आयकर विभाग ने दानकर्ताओं का पता लगाने की कोशिश की तो बसपा ने कहा कि उसे ये नकद राशि के तौर पर फंड गरीब समर्थकों द्वारा पार्टी के लिए मिला है।

जनप्रतिनिधि अधिनियम कहता है कि यदि किसी राजनीतिक दल को किसी व्यक्ति या कंपनी से 20,000 रुपये से अधिक की राशि फंड के तौर पर मिलती है, तो उसे दानकर्ता का पूरा ब्योरा देना होगा।ऐसे में पार्टियां अपने फंड में आये धन का बड़ा हिस्सा छोटे दान यानी 20,000 रुपये से मिला बताते हैं। ऐसा करके वे धन के स्नेत का ब्योरा नहीं देतीं.

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के चुनाव की तैयारियों में तेजी आ गई है। किसी भी लोकतंत्र की सफलता में यह बात काफी अहम भूमिका निभाती है कि वहां चुनाव किस तरह से संपन्न होते हैं। क्योंकि आजादी के बाद जो व्यवस्था कायम हुई उसमें इस निर्वाचन व्यवस्था का भी अहम योगदान रहा। इस राजनीतिक व्यवस्था की असफलता से समाज का हर तबका वाकिफ है। समाज में एक खास तरह के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक असंतुलन कायम करने में इस व्यवस्था की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है।

वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था में धनबल और बाहुबल का वर्चस्व काफी बढ़ गया है। एक दौर वह था जब राजनीति को सेवा का जरिया माना जाता था और सियासत की डगर पर वैसे ही लोग अपने कदम रखते थे, जिनका एक सामाजिक जीवन होता था। पर आज हालात बदल गए हैं। आज सियासत की सवारी कसने वालों में अपराधी सबसे आगे नजर आते हैं।

कुछ साल पहले तक अपराध एक अहम चुनावी मुद्दा होता था। पर अब अपराधियों के ही नेता बन जाने की वजह से अपराध का मसला चुनाव में गायब दिखता है।  राजनीति में बूथ लूटने और डरा-धमकाकर अपने पक्ष में वोट जुटाने के लिए नेताओं ने अपराधियों का इस्तेमाल तेज कर दिया है। आज अपराधी दूसरों को मदद न कर खुद चुनावी समर में शामिल हो रहे हैं। जब यह कुप्रथा तेजी से बढ़ने लगी तो इस निर्वाचन व्यवस्था की असफलता का अहसास गहराई से हुआ।

क्योंकि कानूनी स्तर पर अपराधियों को चुनाव लड़ने से रोकने की कोई व्यवस्था थी ही नहीं। धीरे-धीरे इसका फायदा सियासी दलों ने उठाना शुरू कर दिया। हालात यहां तक पहुंच गए कि चौदहवीं लोकसभा में सौ से ज्यादा सदस्य ऐसे थे जिन पर आपराधिक मामले दर्ज थे। अनुमान लगाया गया है कि देश भर में चुने गए जनप्रतिनिधियों में तकरीबन बीस फीसदी ऐसे हैं जिनके खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं।

जब-जब चुनाव सुधार की बात चली है तब-तब बड़ी ही चतुराई से इसकी राह में राजनीतिक रोड़ा अटकाया गया है। चुनावी चंदा के नाम पर भारी-भरकम धन जुटाने में कोई भी दल पीछे नहीं है। अनेक औद्योगिक घराने राजनीतिक दलों को धन देते हैं। एक अनुमान के मुताबिक़, 2009 के लोकसभा चुनाव में 10,000 करोड़ रुपये खर्च हुए, जिनमें 1300 करोड़ रुपये चुनाव आयोग ने खर्च किए. वहीं राज्य और केंद्र सरकार ने 700 करोड़ रुपये खर्च किए. बाकी के  8000 करोड़ रुपये राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों ने खर्च किए. अब सवाल यह है कि 8000 करोड़ रुपये राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के पास कहां से आए। यह पैसा राजनीतिक दलों को बड़े-बड़े उद्योगपति देते हैं। यह पैसा इसलिए दिया जाता है कि सरकार बनने के बाद वे उनके लिए मुनाफा कमाने का रास्ता सा़फ करेंगे।
राजीव रंजन  नाग
राजीव रंजन   नाग लेखक राजीव रंजन नाग जानेमाने पत्रकार हैं. पत्रकारिता के अपने लम्बे कैरियर में तमाम विषयों पर लिखा और कई राष्ट्रीय दैनिकों को अपनी सेवाएँ दी. वह मान्यता प्राप्त पत्रकारों के संगठन 'प्रेस एसोसिएशन' के वरिष्ठ पदाधिकारी होने के साथ-साथ प्रेस काउन्सिल ऑफ़ इंडिया के सदस्य भी हैं.

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