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नित्य मानस चर्चाः जहँ लगि साधन बेद बखानी, सब कर फल हरि भगति भवानी
दिनेश्वर मिश्र ,
Sep 19, 2017, 7:02 am IST
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![]() गोसाईं जी का श्री रामचरित मानस हो या व्यास जी का महाभारत, कौन, किससे, कितना समुन्नत? सबपर मनीषियों की अपनी-अपनी दृष्टि, अपनी-अपनी टीका... इसीलिए संत, महात्मन, महापुरूष ही नहीं आमजन भी इन कथाओं को काल-कालांतर से बहुविध प्रकार से कहते-सुनते आ रहे हैं. सच तो यह है कि प्रभुपाद के मर्यादा पुरूषोत्तम अवताररूप; श्री रामचंद्र भगवान के सुंदर चरित्र करोड़ों कल्पों में भी गाए नहीं जा सकते. तभी तो प्रभु के लीला-चरित्र के वर्णन के लिए साक्षात भगवान शिव और मां भवानी को माध्यम बनना पड़ा. राम चरित पर अनगिन टीका और भाष उपलब्ध हैं. एक से बढ़कर एक प्रकांड विद्वानों की उद्भट व्याख्या. इतनी विविधता के बीच जो श्रेष्ठ हो वह आप तक पहुंचे यह 'जनता जनार्दन' का प्रयास है. इस क्रम में मानस मर्मज्ञ श्री रामवीर सिंह जी की टीका लगातार आप तक पहुंच रही है. हमारा सौभाग्य है कि इस पथ पर हमें प्रभु के एक और अनन्य भक्त तथा श्री राम कथा के पारखी पंडित श्री दिनेश्वर मिश्र जी का साथ भी मिल गया है. श्री मिश्र की मानस पर गहरी पकड़ है. श्री राम कथा के उद्भट विद्वान पंडित राम किंकर उपाध्याय जी उनके प्रेरणास्रोत रहे हैं. श्री मिश्र की महानता है कि उन्होंने हमारे विनम्र निवेदन पर 'जनता जनार्दन' के पाठकों के लिए श्री राम कथा के भाष के साथ ही अध्यात्मरूपी सागर से कुछ बूंदे छलकाने पर सहमति जताई है. श्री दिनेश्वर मिश्र के सतसंग के अंश रूप में प्रस्तुत है, आज की कथाः ****** *ॐ* *नित्य मानस चर्चा* *उत्तरकांड* श्रीरामः शरणं मम(1 ) - श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने सप्तमः सोपानः-दोहा संख्या 125 से आगे का मंत्र-पंक्ति-पुष्प-सौरभ। कहेउँ परम पुनीत इतिहासा। सुनत श्रवन छूटहिं भव पासा।। प्रनत कल्पतरु करुना पुंजा। उपजइ प्रीति राम पद कंजा।। मन क्रम बचन जनित अघ जाई। सुनहिं जे कथा श्रवन मन लाई।। तीर्थाटन साधन समुदाई। जोग बिराग ग्यान निपुनाई।। नाना कर्म धर्म ब्रत नाना। संजम दम जप तप मख नाना।। भूत दया द्विज गुर सेवकाई। विद्या विनय विवेक बड़ाई।। जहँ लगि साधन बेद बखानी। सब कर फल हरि भगति भवानी।। सो रघुनाथ भगति श्रुति गाई। राम कृपाँ काहूँ एक पाई।। मुनि दुर्लभ हरि भगति नर,पावहिं बिनहिं प्रयास। जे यह कथा निरंतर सुनहिं मानि विस्वास।। भावार्थ ---- भगवान शंकर भवानी उमा से सतसंग की महिमा का उद्भव हरि-कृपा से ही संभव, श्रुतियों के कथनानुसार , परम लाभकारी बताते हुए कहते हैं कि मैंनेयह परम पवित्र इतिहास कहा, जिसे कानों से सुनते ही संसार के बंधन छूट जाते हैं और शरणागतों को (उनके इच्छानुसार फल देने वाले) कल्पबृक्ष तथा दया के समूह श्रीरामजी के चरण कमलों में प्रेम उत्पन्न होता है। जो कान और मन को लगाकर इस कथा को सुनते हैं, उनके मन, वचन और कर्म से उत्पन्न सब पाप नष्ट हो जाते हैं। तीर्थयात्रा आदि बहुत से साधन, योग, वैराग्य और ज्ञान में निपुणता, अनेकों प्रकार के कर्म, धर्म, ब्रत और दान, अनेकों संयम, दम, जप, तप और यज्ञ, प्राणियों पर दया, ब्राह्मण और गुरु की सेवा, विद्या, विनय और विवेक की बड़ाई आदि। जहाँ तक बेदों ने साधन बताए हैं, हे भवानी! उन सब का फल श्रीहरि की भक्ति ही है। किन्तु श्रुतियों में गायी हुई वह श्रीरघुनाथजी की भक्ति श्रीरामजी की कृपा से किसी एक विरले ने हीे पाई है। किन्तु जो मनुष्य विश्वास मानकर यह कथा निरंतर सुनते हैं, वे बिना ही परिश्रम उस मुनिदुर्लभ हरिभक्ति को प्राप्त कर लेते हैं। विमर्श-मानसर के आज के सघन पुरइन-पत्तों के बीच खिले कमल का सौरभ श्रीहरि कथा-श्रवण से मुख्य रूप से परिप्लुत है। नवधा भक्ति में प्रथम सत्संग के बाद द्वितीय भक्ति --”दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।” का वर्णन है। मानसाचार्य श्री शंकर भगवान उसी क्रम में मानसान्त को प्रस्तुत हैं। श्रीमद्भागवत् में प्रह्लादजी ने तो इसे प्रथम स्थान दिया-- श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पाद सेवनम्। अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्।। श्रवण-भक्ति की प्राप्ति के लिए श्रद्धा और प्रेमपूर्वक महापुरुषों को साष्टांग प्रणाम, उनकी सेवा और उनसे नित्य निष्कपट भाव से प्रश्न करना और उनके बतलाए हुए मार्ग के अनुसार आचरण करने के लिए तत्परता से चेष्टा करना, यह श्रवण-भक्ति को प्राप्त करने की विधि है। श्रीमद्भागवतद् गीता में भगवान ने कहा है-- तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उपदेक्ष्यंति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः।। --हे अर्जुन! उस ज्ञान को तू समझ, श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ आचार्य के पास जाकर, उनको भलीभाँति दण्डवत् प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलता-पूर्वक प्रश्न करने से परमात्मतत्व को भलीभाँति जानने वाले वे ज्ञानी महात्मा तुझे तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे। बिनु सतसंग न हरि कथा, तेहि बिनु मोह न भाग। मोहँ गये बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग।। तीर्थाटन साधन समुदाई। जोग बिराग ग्यान निपुनाई।। वाली मंत्र-पंक्ति का ठीक उसी प्रकार उल्लेख श्रीमद्भागवत् में भी है, देखें---- न रोधयति मां योगो न सांख्यं धर्म एव च। न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो नेष्टापूर्तं न दक्षिणा। ब्रतानि यज्ञश्छन्दांसि तीर्थानि नियमा यमाः। यथावरुन्धे सत्संग सर्वसंगापहो हि माम।।(11/12/102) --जैसे सम्पूर्ण आसक्तियों का नाश करने वाला सत्पुरुषों का संग मुझको हे उद्धव! अवरुद्ध कर सकता है, अर्थात् प्रेम-पाश से बाँध सकता है, वैसे योग, सांख्य, धर्म पालन, स्वाध्याय, तप, त्याग, यज्ञ, कूप-तड़ागादि का निर्माण, दान, ब्रत, पूजा, वेदाध्ययन, तीर्थाटन, यम-नियमों का पालन--इनमें से कोई भी मुझे नहीं बाँध सकते, अर्थात् इनके द्वारा मैं बस में नहीं आ सकता। इस प्रकार सत्पुरुषों द्वारा प्राप्त हुई केवल श्रवण-भक्ति से ही मनुष्य दुर्लभ भगवद्भक्ति को प्राप्त कर सकता है। कालजयी-कृति मानस में गोस्वामीजी प्रायः प्रत्येक कांड का वर्णन कर लेने के बाद, उसकी फलश्रुति बताते हुए कथा-श्रवण का महत्त्व, भुक्ति एवं मुक्ति दोनों की प्राप्ति से ही जोड़ते हैं--- बालकांड--- सिय रघुबीर विवाहु जे सप्रेम गावहिं सुनहिं। तिन्ह कहुँ सदा उछाहु मंगलायतन राम जसु।। (आनंद और उत्सव में नित्य-बृद्धि कारक है,भगवान राम और श्रीसीताजी का विवाह गायन एवं श्रवण) अयोध्याकांड--- भरत चरित कर नेमु,तुलसी जो सादर सुनहिं। सीय राम पद पेमु,अवसि होइ भव रस बिरति।। (इस कांड का नियमित श्रवण श्री सीता-रामजी के चरणों में प्रेम तथा संसार से वैराग्य उत्पन्न करने वाला है) सुन्दरकांड--- सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान। सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिन्धु बिना जलजान।। (भगवान श्रीराम के चरित्र का सादर-श्रवण, सर्वमंगलदाता एवं बिना जहाज के ही संसार-समुद्र को पार कराने वाला है) सम्पूर्ण मानस में आद्यंत कथा-श्रवण से लाभ के अनेकों उदाहरण भरे पड़े हैं। महर्षि वाल्मीकि ने चौदह प्रकार के भक्तों के हृदय-स्थल, भगवान के निवास हेतु बताए, उसमें सबसे पहले कथा-श्रोताओं का ही नाम लिया और कहा-- जिन्ह के श्रवन समुद्र समाना। कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना।। भरहिं निरंतर होहिं न पूरे। तिन्ह के हिय तुम्ह कहुँ गृह रूरे।। इस प्रकार से उन्होने कान (श्रवणेन्द्रिय) की सार्थकता की बात सबसे पहले बताई। इस प्रसंग के आखिरी दोहे में गोस्वामीजी ने लिखा- मुनि दुर्लभ हरि भगति तिन्ह, पावहिं बिनहिं प्रयास। जे यह कथा निरंतर, सुनहिं मानि विस्वास।। कितनी सरल है, बिना प्रयास के ही मुनि-दुर्लभ प्रभु-भक्ति की प्राप्ति, यदि केवल पूर्ण विश्वास के साथ हरि-कथा को सुनें हम। कान ही हमारे ऐसे होते हैं जो सदा खुले रहते हैं, इनके ऊपर कोई कपाट नहीं होता। श्रीमद्भागवत् में वर्णन आता है कि जब ब्रज में मक्खन चुराते हुए भगवान को एक गोपी पकड़ लेती है, तो भगवान बड़े भोलेपन से कहते हैं--गोपी! क्या यह तुम्हारा घर है? मैं इसे अपना घर समझकर भीतर आ गया था। इसका अर्थ है कि वस्तुतः स्वामी तो एकमात्र ईश्वर ही है, पर जीव ऐसा स्वामी बन बैठा है कि जिसने भगवान को ही चोर की उपाधि दे दी है। वस्तुतः ईश्वर की वस्तु पर हम अपना ही अधिकार मानते हैं। भक्तों ने कहा -”महाराज! जब आप चोर हो ही गये तो हमारे भीतर भी पैठिए”। भगवान ने सोचा कि दरवाजा तो कोई दिखाई देता नहीं, किन्तु सेंध लगाने की कोई जगह है क्या? और तब उनकी दृष्टि अचानक कान पर गयी। और तब भगवान, कथा के रूप में “कान” के मार्ग से पैठकर भक्त के हृदय में पहुँच जाते हैं और भक्त के अंतःकरण में जितने मल हैं, उनको चुराकर ले जाते हैं--- प्रविष्टः कर्णरंध्रैण स्वानाम भक्त सरोरुहम्। धुनोत्य समलं कृष्ण सलिलस्य यथा शरत।। --इस प्रकार कथा भगवान का वांग्मय-विग्रह है, शब्दमय-विग्रह है। कथा को मन लगाकर सुनने की बात भी आज के प्रसंग में कही गयी है। अशोक-वाटिका में हनुमानजी भगवान की कथा को श्रीसीताजी को सुनाते हैं तो श्रीसीताजी ने कान के साथ अपने मन को भी जोड़ लिया-- रामचंद्र गुन बरनै लागा।सुनतहिं सीता कर दुख भागा।। लागीं सुनै श्रवन मन लाई।आदिहुँ ते सब कथा सुनाई।। कथा उसकी सुनी जाती है, जो सामने न हो और देखा उसको जाता है, जो सामने हो। इस तरह श्रीसीताजी अशोक बाटिका में परम-संत हनुमानजी के माध्यम से मंगलमय कथा विग्रह के रूप में भगवान का अपने हृदय में सान्निध्य-लाभ प्राप्त करती हैं और पुष्पवाटिका में प्रभु का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करती हैं। बन्धुवर! यही है बिना-प्रयास के मुनि-दुर्लभ-भक्ति की प्राप्ति का श्रेय और प्रेय मार्ग, कथा-श्रवण। रामचरित मानस एहि नामा। सुनत श्रवण पाइअ विश्रामा।। जे एहि बारि न मानस धोए। ते कायर कलिकाल बिगोए।। विमर्श बढ़ता जा रहा है, अतः यहीं रुकने की आज्ञा दें। नमन सबहिं। सुप्रभात सकल मानस-प्रेमीजन। |
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