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मानस मीमांसाः अस संजोग ईस जब करई, तबहुँ कदाचित सो निरुअरई

मानस मीमांसाः अस संजोग ईस जब करई, तबहुँ कदाचित सो निरुअरई कानपुरः 'हरि अनंत हरि कथा अनंता' की तर्ज पर प्रभु चरित का कोई आदि, अंत नहीं... त्रेता, द्वापर, सतयुग, कलयुग के कालचक्र में अध्यात्म के अनगिन पाठ के बीच प्रभु के कितने रंग, रूप, कितने अवतार, कितनी माया, कैसी-कैसी लीलाएं, और उन सबकी कोटि-कोटि व्याख्या.

गोसाईं जी का श्री रामचरित मानस हो या व्यास जी का महाभारत, कौन, किससे, कितना समुन्नत? सबपर मनीषियों की अपनी-अपनी दृष्टि, अपनी-अपनी टीका...

इसीलिए संत, महात्मन, महापुरूष ही नहीं आमजन भी इन कथाओं को काल-कालांतर से बहुविध प्रकार से कहते-सुनते आ रहे हैं. सच तो यह है कि प्रभुपाद के मर्यादा पुरूषोत्तम अवताररूप; श्री रामचंद्र भगवान के सुंदर चरित्र करोड़ों कल्पों में भी गाए नहीं जा सकते. तभी तो प्रभु के लीला-चरित्र के वर्णन के लिए साक्षात भगवान शिव और मां भवानी को माध्यम बनना पड़ा.

राम चरित पर अनगिन टीका और भाष उपलब्ध हैं. एक से बढ़कर एक प्रकांड विद्वानों की उद्भट व्याख्या. इतनी विविधता के बीच जो श्रेष्ठ हो वह आप तक पहुंचे यह 'जनता जनार्दन' का प्रयास है. इस क्रम में मानस मर्मज्ञ श्री रामवीर सिंह जी की टीका लगातार आप तक पहुंच रही है.

हमारा सौभाग्य है कि इस पथ पर हमें प्रभु के एक और अनन्य भक्त तथा श्री राम कथा के पारखी पंडित श्री दिनेश्वर मिश्र जी का साथ भी मिल गया है. श्री मिश्र की मानस पर गहरी पकड़ है. श्री राम कथा के उद्भट विद्वान पंडित राम किंकर उपाध्याय जी उनके प्रेरणास्रोत रहे हैं. श्री मिश्र की महानता है कि उन्होंने हमारे विनम्र निवेदन पर 'जनता जनार्दन' के पाठकों के लिए श्री राम कथा के भाष के साथ ही अध्यात्मरूपी सागर से कुछ बूंदे छलकाने पर सहमति जताई है. श्री दिनेश्वर मिश्र के सतसंग के अंश रूप में प्रस्तुत है, आज की कथाः
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जड़ चेतनहिं ग्रंथि पड़ि गयी।
जदपि मृषा छूटत कठिनयी।।
जीव स्वरूप-भान, सत्संग के माध्यम से संभव, वरेण्य। उत्तरकांड, मानस।
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परम संत आंजनेय द्वारा जीव विभीषण को उसके तात्त्विक-स्वरूप की स्मृति दिलाई गयी कि “तुम कौन हो”? विभीषण की समस्या यह थी कि मैं रावण को छोड़कर कैसे जाऊँ? रावण तो मेरा बड़ा भाई है। और बड़ा भाई बुरा भी है, तो उसको छोड़ना धर्म के विरुद्ध नहीं है क्या? अब शरीर की दृष्टि से देखें तो यही लगता है कि वे रावण के छोटे भाई हैं। लेकिन हनुमानजी ने विभीषण को याद दिलाया कि मित्र! तुम अपने आप को भूल गये हो, अपने को ठीक-ठीक अगर पहचान लो, तो तुमने धर्म का जो अर्थ मान लिया है, धर्म का वह सही अर्थ नहीं है। क्यों?

हनुमानजी, विभीषण को भ्राता कहकर पुकारते हैं। और यह भ्राता कहकर पुकारने का अर्थ है, विभीषण को उसके स्वरूप की याद दिलाना। जीव, अपने को भूल गया है कि जिन लोगों को उसने अपना सब कुछ मान लिया है, उन्हीं के लिए जीवन में सब कुछ पाप, पुण्य, न्याय, अन्याय कर रहा है। और यह मानकर कर रहा है कि यही धर्म है। क्योंकि ए सब लोग हमारे हैं। अतः इनके लिए हम जो कुछ करें सब उचित है। विभीषण भी इसी समस्या से ग्रसित हैं। इसलिए हनुमानजी ने तुरन्त कहा-
“तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता।”

हनुमानजी ने कहा-”भइया विभीषण सुनो”! इस वाक्य को सुनकर विभीषण चौक पड़े। आप देखें! बहिरंग दृष्टि से हनुमानजी और विभीषण भाई हैं क्या? न एक देश के, न एक प्रान्त के, न एक जाति के, न एक कुल के। कहाँ एक बन्दर और कहाँ एक पुलस्ति कुल में जन्म लेने वाला। दोनों भाई कैसे हो सकते हैं? भाई तो वह है, जो
एक माँ के गर्भ से जन्म ले, एक पिता द्वारा जिसका जन्म हो। पर हनुमानजी ने एक सूत्र दे दिया उनको। बोले मित्र! मैं तुम्हारा भाई हूँ। लेकिन किस नाते से? तो हनुमानजी ने तुरन्त कह दिया कि, इस जन्म में तुम्हारे शरीर की जो माँ है, यदि उसको ही माँ मानोगे,तब तो रावण तुमको भाई लगेगा, लेकिन अनंत काल से जो जीव की शाश्वत माँ है, उन माँ पर जब तुम्हारी दृष्टि जायेगी, तो तुम यह समझ लोगे कि रावण तुम्हारा सगा भाई नहीं है, बल्कि मैं तुम्हारा सगा भाई हूँ। उन्होंने यही कहा-
“तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता।
देखी चहउँ जानकी माता।।”

अब तुम बताओ कि तुम जनकनंदिनी को क्या मानते हो? और यदि माँ मानते हो तो भाई! तुम्हारी माँ भी वही है और मेरी माँ भी वही है। तो जब दोनों की माँ एक है तो भाई-भाई ही तो हम हुए। तो बेचारे विभीषण चक्कर में फँस गये कि अभ्यास तो रावण को भाई कहने का था। एक सज्जन ने प्रश्न पूछा कि विभीषण तो बेचारा शरण में गया, पर बहुत देर तक बन्दरों ने रोक रखा, तत्पश्चात् भगवान राम और सुग्रीव में तर्क, वितर्क हुआ और तब कहीं जाकर सुग्रीव ने हनुमानजी और अंगद को उन्हें लाने के लिए भेजा।

तो इतना बिलंब शरण में क्यों हुआ? उत्तर दिया गया कि बस एक ही अभ्यास के कारण देर हुई। क्या?-बन्दरों ने पूछा- आपका परिचय? तो कह देते कि हनुमान का भाई हूँ। और यह कह देते तो तुरन्त बुलवा लिए जाते, पर उनके मुँह से निकला-
“नाथ दसानन कर मैं भ्राता।”
मैं रावण का भाई हूँ। बस देर इसी में लग गयी।
यह जो संस्कार में रावण की तीब्र अनुभूति है, अभ्यास बना हुआ है, इसी कारण उन्हें रुकना पड़ा। हनुमानजी के भ्राता कहने का तात्पर्य यही है कि हम दोनों की माँ तो विदेहनंदिनी सीता हैं, और इस परिस्थिति में मित्र! क्या तुम्हें क्रोध नहीं आता? कि जिस ब्यक्ति ने तुम्हारी माँ को बन्दी बना रक्खा है, जो तुम्हारी माँ को सता रहा है, तुम उसी ब्यक्ति की सेवा कर रहे हो? और तब विभीषण को धर्म की एक नयी दृष्टि मिली।

हनुमानजी का उपदेश, केवल उपदेश ही नहीं रहा, आगे चलकर हनुमानजी ने क्रियात्मक रूप से विभीषण को उनका गौरव बताया। क्या? सारी लंका जल गयी और विभीषण का घर नहीं जला। हनुमानजी ने विभीषण
को संकेत किया, बोले- विभीषण! तुम समझते थे कि लंका में सबसे अधिक शक्तिशाली रावण है, और मान बैठे थे कि तुम सबसे कमजोर हो, पर तुम अपनी शक्ति को नहीं जानते, तभी तुम्हें भ्रम हो गया। अरे!लंका में नित्य तो तुम्हीं हो, और सब जितने हैं अनित्य हैं। देखो न! सभी ने अपने-अपने घर से घी-तेल भेजा, तुमने नहीं भेजा तो सभी जल गये, तुम्हीं नहीं जले। और इसका अभिप्राय क्या हुआ? कि शरीर, इन्द्रिय जो है वह तो सब जल ही जाता है, पर जीव जो है, वह नहीं जलता--

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।

हनुमानजी कहते हैं जीव! तू अपने स्वरूप को भूल गया है। तू मरण-धर्मा शरीर के साथ अपने को मरण-धर्मा मान बैठा है। और इसलिए तू भगवान के सम्मुख जाने से बंचित है। एक बार तू अपने को पहचान और अनित्य के स्थान पर नित्य की शरणागति ग्रहण कर। जीव विभीषण को स्वरूप की स्मृति दिलाना, हनुमानजी जैसे संत का कार्य था।

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अगली कथा-
अस संजोग ईस जब करई।
तबहुँ कदाचित सो निरुअरई।।
उत्तरकांड, मानस, ज्ञान-दीपक-प्रसंग। अहंता, ममता-विसर्जित-बुद्धि शुद्धि प्रयास। अतुल्य, अद्भुत, अगम्य
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जड़ शरीर और चेतन जीव के बीच जो अनंत जन्मों से कुसंस्कारों के कारण गाँठ पड़ गयी है, उसे खोलने के लिए गोस्वामीजी ने ज्ञान दीपक प्रसंग का समावेश किया है, जो बुद्धि को शुद्ध करने का एक काब्यमय-
रूपक है। मनुष्य की बुद्धि अशुद्ध है,और अशुद्ध बुद्धि के द्वारा वह सही ढंग से सोच भी नहीं पाता। हमारे पास समझने का जो साधन है वह तो बुद्धि ही है। और वह है अशुद्ध! तो क्या करें! बुद्धि के शुद्ध होने पर जब हम सत्य को समझने की चेष्ठा करेंगे, तभी सत्य को समझ पायेंगे। इसलिए बुद्धि को शुद्ध करने की प्रक्रिया बड़ी सूक्ष्म रूप में प्रस्तुत की गयी। कहा गया--
सात्त्विक श्रद्धा धेनु सुहाई।

इसका अभिप्राय है कि ब्यक्ति की बुद्धि में पहले श्रद्धा का उदय होना चाहिए। अगर बुद्धि श्रद्धाहीन होगी, तो ब्यक्ति के अंतःकरण में ज्ञान की उपलब्धि नहीं होगी--
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानम्।

ब्यक्ति जब बुद्धिमान होता है तो उसमें अहंकार की संभावना रहती है। वह यह मान बैठता है कि मुझसे बढ़कर बुद्धिमान कोई नहीं है। यह बुद्धि की बड़ी विचित्र प्रकृति है। अपने से बड़ा बलवान, अपने से बड़ा धनवान तो ब्यक्ति को मान्य होता है, किन्तु अपने से बड़ा बुद्धिमान मानने में उसे कठिनाई होती है। और श्रद्धा तो तभी होती है, जब सामने वाले ब्यक्ति में हम अपने से अधिक बुद्धिमत्ता देखते हैं।

तो सबसे पहली आवश्यकता यह है कि हमारी बुद्धि में श्रद्धा-बृत्ति आये। हमारा अहंकार नष्ट हो जाय और हम संतों, महापुरुषों, गुरुजनों के प्रति, उनकी बुद्धि के प्रति श्रद्धावान बनें।

गोस्वामीजी श्रद्धा की तुलना गाय से करते हुए क्रम से वर्णन करते हैं कि जैसे एक बहुत सुन्दर, अच्छी गाय हो, पर उसे चारा न खिलाया जाय, तो वह दूध कहाँ से देगी? इसी प्रकार ब्यक्ति के जीवन में श्रद्धा तो हो पर सत्कर्म न हो, तो उस श्रद्धा से कोई लाभ नहीं होगा। कई लोग बड़े श्रद्धालु तो दिखाई देते हैं, लेकिन वे चाहते हैं कि महाराज ही सब कुछ कर देंगे, हमें कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। ऐसी श्रद्धा उन्हें निष्क्रिय बना देती है। इसलिए श्रद्धा के साथ जब सत्कर्म जुड़ेगा--

जप, तप, ब्रत, जम, नियम, अपारा।
जो श्रुति कह सुभ धर्म अचारा।।

असंख्य प्रकार के जप, तप, ब्रत, यम नियमादि शुद्ध धर्म और आचारों की बात श्रुतियों ने कही है। श्रद्धारूपी गाय इन सत्कर्मों का चारा खाकर दूध देने के योग्य बनती है। आगे चलकर लिखा गया कि गाय दूध तो देती है, लेकिन बछड़े को देखकर। जब तक बछड़ा सामने नहीं होगा, उसका वात्सल्य नहीं उमड़ेगा, तब तक गाय के स्तन में दूध नहीं आएगा। इसी प्रकार श्रद्धा और सत्कर्म के साथ भाव-बच्छ, भावना रूपी बछड़ा भी हो। तात्पर्य है कि श्रद्धा हो, सत्कर्म हो, भावना भी जुड़ी हो। हमारा कर्म हमें बोझ न मालूम हो। कर्म में रसानुभूति हो, उसमें आनंद की अनुभूति हो।

इसके साथ ही गोस्वामीजी कहते हैं कि इस बुद्धि की शुद्धता के साथ मन को भी जोड़ देना है। मन को जोड़ने का अभिप्राय यह है कि दूध दुहने का कार्य तो अहीर ही कर सकता है, जो दूध दुहने की कला में निपुण हो। वह अहीर तो सबके पास है, गोस्वामीजी का भाव है। पर इस अहीर से जो हमारे पास है, काम नहीं चलेगा। क्यों?कई बार ऐसा होता है कि लोग ऐसे ब्यक्ति को दुहने के लिए नियुक्त करते हैं जो दस घरों में दुहने के लिए जाते हैं। इसलिए दुहने वाला अगर दस घरों में जाने वाला हो तो वह समयानुसार ठीक से गाय को दुह नहीं पायेगा। इसलिए दुहने वाला ऐसा होना चाहिए जो एक ही घर में दूहे।

हम लोगों का मन अहीर तो है, पर दस घरों में दुहता रहता है। इन दस इन्द्रियों को दुहने का इसका स्वभाव बन गया है। कभी आँख के पास, कभी कान के पास, कभी नाक के पास घूमता रहता है। यह जो मन की प्रबृत्ति है, उसके स्थान पर इसको ऐसा बनाना पड़ेगा कि यह चारों ओर भटकने के स्थान पर एक ही स्थान पर रहे और साथ ही-

निर्मल मन अहीर “निज दासा”।

निर्मल हो। दुहने वाले का हाथ अगर गंदा हो तो दूध पवित्र होते हुए भी गंदा हो जायेगा। इसी प्रकार से अगर मन में मल विद्यमान रहा तो हम जिस धर्म का दूध प्राप्त करेंगे वह भी मलिन हो जायेगा। इसलिए मन निर्मल हो और निर्मल होने के साथ “निज दास” हो। निज दास का अभिप्राय यह है कि हमारा मन अनेक दिशाओं में भटकने वाला न हो।

श्रद्धा हो, सत्कर्म हो, भावना हो, मन में पवित्रता और एकाग्रता हो, तब मनुष्य के मन में अहिंसा की बृत्ति प्रतिष्ठित होगी। यही क्रम है। श्रद्धा की गाय, सत्कर्म का चारा, भाव का बछड़ा, निर्मल और एकाग्र मन का अहीर- इतना होने पर तब परम धर्म रूपी अहिंसा बृत्ति का दूध मिला, अहिंसा का उदय हुआ। पर अभी तो लंबी
यात्रा बाकी है।

इस अहिंसा के बदले में अगर हम यह चाहने लगें कि लोग हमारा सम्मान करें, हमें अहिंसा-बृत्ति प्राप्त हो चुकी है, अतः लोग हमें महान समझें, तो यह अहिंसा का दूध पतला ही रह जायेगा और पतले दूध को जब हम आग पर चढ़ा कर औटाते हैं तो वह गाढ़ा हो जाता है। गोस्वामीजी कहते हैं कि निष्कामता की आग पर इसको जरा गाढ़ा कीजिए।

अभिप्राय यह है कि अहिंसा के साथ ब्यक्ति के अंतःकरण में समग्र निष्कामता की बृत्ति का भी उदय हो। पर निष्कामता की अग्नि से गाढ़ापन तो आ जाता है, किन्तु उसके साथ गर्मी भी आ जाती है। निष्काम लोगों में कभी-कभी गर्मी बढ़ जाती है। स्वार्थी ब्यक्ति विनम्र होता है, क्योंकि वह जो कुछ करता है, उसके बदले
में कुछ लेता है, पर बदले में जिसे कुछ नहीं चाहिए, वह थोड़ा उग्र हो जाता है। निष्कामता में अगर यह बृत्ति बनी रह गयी तो काम नहीं बनेगा। इस बृत्ति को मिटाने के लिए उसे हवा से जरा ठंडा कीजिए--
तोष मरुत तव क्षमाँ जुड़ावै।

संतोष की वायु से क्षमा की शीतलता ले आवे। और तब उस दूध को उसमें थोड़ा सा दही जिसे जामन कहते हैं, डालना पड़ता है। अतः आपको कहीं न कहीं से थोड़ा सा दही खोजना पड़ेगा, तब वह दूध दही में परिणत होगा। इसका अभिप्राय यह है कि जो धर्मबुद्धि प्राप्त हुई, उसे मथने योग्य बनाने के लिए स्थिर करना होगा, दही के समान जमाना होगा। वह जामन हमें कहाँ से मिलेगा? वह हमें मिलेगा किसी संत से, किसी महापुरुष से। क्योंकि जामन हमें उसी घर में मिलेगा, जिसने अपने घर में दही जमा रखी हो।

इसका अभिप्राय यह है कि ब्यक्ति जो चिंतन करेगा,वह पूर्व के विचारों से जुड़ा हुआ होगा। यह गलत होगा, यदि वह कहे कि हम बिना किसी आधार के स्वतंत्र चिंतन कर लेंगे, स्वतंत्र रूप से हम सब कुछ जान लेंगे। पूर्व के महापुरुषों ने जैसा अनुभव किया है, वह जैसे साधक के हृदय में धृति के रूप में प्रतिस्थापित होता है, इसे गोस्वामीजी इस प्रकार कहते हैं--
धृति सम जावनु देइ जमावै।
और जब दही जम जाती है तो शुरू होती है मंथन की प्रक्रिया। यह मंथन क्या है? विचार ही मंथन है। यहाँ पर गोस्वामीजी सावधान कर देते हैं। कई लोग कहते हैं कि हम विचार करते हैं। ठीक है, पर आप विचार कहाँ कर रहे हैं? विचार तो रावण भी बहुत करता था-
रावन हृदय विचारा-----
पर यह विचार मंथन कहाँ हो रहा है। सतीजी भगवान राम की परीक्षा लेने चलीं। शंकरजी ने उन्हें सावधान करते हुए कहा--देखिए! आप परीक्षा लेने जा रही हैं, पर एक बात का ध्यान रखिएगा। क्या?
जैसे जाइ मोह भ्रम भारी।
करेहु सो जतन बिबेक विचारी।।

और सतीजी ने शंकरजी के इस निर्देश का पालन किया भी--
पुनि पुनि हृदय बिचारु करि-------

सतीजी ने विचार का आश्रय लिया। शंकरजी का उपदेश ब्यर्थ क्यों गया? उसका कारण ज्ञानदीप के इस प्रसंग में बहुत सुन्दर ढंग से बताया गया कि विचार तो मथानी है। मथानी चलाइए, यह तो बिल्कुल ठीक है, लेकिन यह तो देख लीजिए कि आप मथानी चला कहाँ रहे हैं? आप पानी में मथानी चलाते रहिए, दिन रात परिश्रम करते रहिए तो भी उस पानी से मक्खन निकलेगा क्या? इसलिए अंतःकरण में यदि केवल पानी भरा हो, तो फिर विचार मंथन से क्या निकलेगा। और अगर वह पानी गंदा हो तो मंथन से उभर कर गंदगी ही तो ऊपर आयेगी। विचार करने का अधिकार कब प्राप्त होता है?--
मुदिता मथै बिचार मथानी।

श्रद्धा, सत्कर्म, सद्भावना, चित्तशुद्धि, निष्कामता, अहिंसा, निबृत्ति आदि इन सब बृत्तियों को एकत्रित कर, जब ब्यक्ति बुद्धि से विचार करने बैठता है, तब वह सही विचार करता है। सतीजी ने विचार तो किया पर वहाँ न श्रद्धा थी, न धर्मबुद्धि और न धृति--अतः उनके जीवन में विचार का विपरीत परिणाम निकला।

विचार तो बहुत लोग करते हैं, पर यह कैसे पता चले कि वे विचार कहाँ करते हैं। जब उनके विचार का निष्कर्ष सामने आता है, तब पता चलता है कि उनका विचार-मंथन, विषय-वारि को ही मथ रहा है या परम धर्म के दही को। जब विचार का निष्कर्ष भोगों का ही समर्थन करने लगे तब समझ में आ जाता है कि वह विषयवारि को ही मथता रहा होगा। विचार के द्वारा विषय-मँथन होगा, तो वहाँ भोग ही निकलेगा। लेकिन जिसके जीवन में इस ज्ञानदीप की प्रक्रिया से बुद्धि शुद्ध हो चुकी है, वह जब विचार करेगा, तब क्या प्रगट होगा?---
तब मथि काढ़ि लेइ नवनीता।
बिमल बिराग सुभग सुपुनीता।।
तब उसके जीवन में बिमल बैराग्य का उदय होगा। हृदय में शान्ति, आनंद और विश्राम की अनुभूति होगी।

विषय लम्बा है, अतः आगे की चर्चा ---
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जोग अगिनि करि प्रगट तब कर्म सुभासुभ लाइ।
बुद्धि सिरावै ग्यान घृत ममता मल जरि जाइ।।
उत्तरकांड,मानस,ज्ञान-दीपक-प्रसंग,वरेण्य
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विगत विवेच्य-प्रवाह में हम विमल वैराग्य के उदय की प्रक्रिया तक पहुँचे थे। गोस्वामीजी कहते हैं कि बस अब एक सीढ़ी और बाकी है। यह अन्तिम प्रक्रिया पूरा करके पूर्ण विश्राम कीजिए। इतनी लम्बी प्रक्रिया के बाद अब
और क्या बचा रह गया? गोस्वामीजी में सजगता की मानो पराकाष्ठा है। वे कहते हैं--विमल वैराग्य आ गया, मक्खन निकल आया, पर मक्खन में भी मठा का कुछ-न-कुछ अंश रहता ही है, थोड़ी-सी खटास भी रहती है। उस अवस्था में उस मक्खन से अगर कोई दिया जलावै तो उसमें थोड़ा जल का अंश विद्यमान होने के कारण दीपक ठीक से नहीं जल पायेगा।

इसी प्रकार इस बिमल वैराग्य में भी किंचित अशुद्धता अवशिष्ट है। इस अशुद्धता के दूर होने पर ही शुद्ध ज्ञान का उदय होगा और इसी शुद्ध ज्ञान के द्वारा ब्यक्ति सत्य का साक्षात्कार करेगा। यह अशुद्धता क्या है? गोस्वामीजी कहते हैं--
जोग अगिनि करि प्रगट तब कर्म सुभासुभ लाइ।
बुद्धि सिरावै ज्ञान घृत ममता मल जरि जाइ।।

---”तब योग रूपी अग्नि प्रकट करके उसमें समस्त शुभाशुभ कर्मरूपी ईंधन लगा दें और जब वैराग्य रूपी मक्खन का ममता रूपी मल जल जाए, तब उस ज्ञान रूपी घृत को बुद्धि से शीतल करें।”

इतनी लम्बी साधना के बाद जब अंतःकरण में श्रद्धा से लेकर बिमल वैराग्य तक जहाँ अहिंसा आदि सब कुछ आ गया तब भी उसमें मल को खोज लेने वाली यह जो सूक्ष्म दृष्टि है, वह साधक के जीवन में अपेक्षित और बड़े महत्त्व की है। बिमल वैराग्य में भी मल का सन्धान, यह मल कोई वैसा मल नहीं है। शब्द है “ममता” किसी ऐसे वैसे वस्तु से तो नहीं, परन्तु अन्त में वैराग्य से भी ममता हो सकती है। यह अति सूक्ष्म मल जो सार वस्तु से भिन्न न होते हुए भी अन्ततः ज्ञानदीप की उपलब्धि में बाधक ही है।

इसका अभिप्राय यह है कि शुद्ध ज्ञान को अनाबृत्त करने के लिए भौतिक वस्तुओं से ममता को काटने वाले वैराग्य के प्रति ही अगर ममता हो गयी, तो एक सूक्ष्म आवरण तो बना ही रहा। यद्यपि यह एक अत्यंत उच्च अवस्था या एक प्रकार से समाधि की अवस्था है, पर यहाँ भी ममता का एक संस्कार, एक सूक्ष्म आवरण तो बना ही रहा, इसीलिए यह “सविकल्प-समाधि” है। और इस सूक्ष्म आवरण के भी समाप्त हो जाने पर जब “निर्विकल्प-समाधि” होगी, तब परम सत्य का साक्षात्कार होगा। अतः इस पथ की अन्तिम और सबसे बड़ी प्रक्रिया यही है। समग्र जीवन से इस ममता को पूर्णतः निकाल देना है। समाधि के द्वारा इस ममता के विकल्प को भी मिटा देना है।

नमन सबहिं।
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