रामचरित मानस उत्तरकांड में चारों युग और उनके गुण- अवगुण

रामचरित मानस उत्तरकांड में चारों युग और उनके गुण- अवगुण नई दिल्लीः पुलिस सेवा से जुड़े रहे प्रख्यात मानस मर्मज्ञ श्री राम वीर सिंह उत्तर कांड की लगातार सप्रसंग व्याख्या कर रहे थे. राम वीर जी अपने नाम के ही अनुरुप राम कथा के मानद विद्वान हैं. श्री राम चर्चा समूह में अलग-अलग समय पर मानस विद्वान प्रभु राम कथा पर टीका करने का भार उठाते रहे हैं.

आज के व्याख्याकार जगदीश प्रसाद दुबे जी हैं, जिस पर श्री दिनेश्वर मिश्र जी की टीका भी दी जा रही है. यह चर्चा उत्तर कांड में श्री राम जी की लीला पर गरुड़ जी की शंका से जुड़ी हुई है, जिसका समाधान काग भुशुण्डि जी प्रभु कथा सुनाकर कर रहे हैं. इसीलिए इसे भुशुण्डि रामायण भी कहते हैं. संत और असंत है कौन? जीवन नैया से पार के उपाय हैं क्या? उन्हें पहचाने तो कैसे?

सद्गति के उपाय हैं क्या? मानस की इस चर्चा में एक समूचा काल खंड ही नहीं सृष्टि और सृजन का वह भाष भी जुड़ा है. जिससे हम आज भी अनु प्राणित होते हैं -भ्रातृ प्रेम, गुरू वंदन, सास- बहू का मान और अयोध्या का ऐश्वर्य, भक्ति-भाव, मोह और परम सत्ता का लीला रूप... सच तो यह है कि उत्तर कांड की 'भरत मिलाप' की कथा न केवल भ्रातृत्व प्रेम की अमर कथा है, बल्कि इसके आध्यात्मिक पहलू भी हैं.

ईश्वर किस रूप में हैं...साकार, निराकार, सगुण, निर्गुण...संत कौन भक्ति क्या अनेक पक्ष हैं इस तरह के तमाम प्रसंगों और जिज्ञासाओं के सभी पहलुओं की व्याख्या के साथ गोस्वामी तुलसीदास रचित राम चरित मानस के उत्तरकांड से संकलित कथाक्रम, उसकी व्याख्या के साथ जारी है.
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*ॐ*
*नित्य मानस चर्चा*
*उत्तरकांड*

नित जुग धर्म होहि सब केरे
हृदय राम माया के प्रेरे
सुध्द सत्व समता विग्याना
कृत प्रभाव प्रसन्न  मन जाना
सत्व बहुत रज कछुरति कर्मा
सबबिधि सुख त्रेता कर धर्मा
बहु रज स्वल्प सत्व कछु तामस
व्दापर धर्म हरष भय मानस
तामस बहुत रजोगुन थोरा
कलि प्रभाव बिरोध चहूं ओरा
बुध जुग धर्म जानि मन माही
तजि अधर्म रति धर्म कराही
काल धर्म नहि ब्यापहि ताही
रघुपतिचरन प्रीति अति जाही
नट कृत बिकट कपट खगराया
नट सेवकहि न ब्यापइ माया
हरि मायाकृत दोष गुन बिन हरि भजन न जाहि
भजिये राम तजि काम सब अस विचार मन माहि
तेहि कलिकाल बरष बहु बसउं अवध बिहगेस
परेउ दुकाल विपति बस तब मै गयउं बिदेस.

श्री भुसुण्डी जी ने गरूड जी को सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलयुग में सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण के अनुपात के बारे में बताया है. सभी युगों में प्रभु श्री राम जी की माया से प्रेरित होकर सबके हृदय में नित्य धर्म होता है, किन्तु सतयुग में सत्वगुण की प्रधानता होगी. सत्वगुण की अधिकता होने के कारण मनुष्य, समभाव रखने वाला होता है तथा मन मस्तिष्क में ज्ञान विज्ञान का समावेश रहता है. जब व्यक्ति विकारों से मुक्त होगा, तो सदैव प्रसन्न ही रहेगा.

त्रेता युग में, मनुष्य में सतोगुण अधिक रजोगुण कुछ कम होता है. अपने कर्त्तव्यों के प्रति सजगता रहती है. त्रेता युग में सतोगुण की अधिकता होने कारण मनुष्य विकारों से मुक्त रह कर सब प्रकार से सुखी रहता है.

द्वापर युग में रजोगुण की अधिकता हो जाती है. सतोगुण बहुत कम हो जाता है और तमोगुण का समावेश हो जाता है. इसलिये द्वापर युग में हर्ष और भय दोनों रहते हैं.

कलियुग में सतोगुण विल्कुल नहीं रहता. तमोगुण और रजोगुण की अधिकता हो जाती है, इसीलिये कलियुग में चारो ओर काम, क्रोध, ईर्ष्या, लोभ, अहंकार आदि के कारण वैर, विरोध, आतंक, भय का वातावरण बना रहता है.

युग चाहे कोई भी हो पंडित (ज्ञानी) युगों के प्रभाव को ध्यान में रखते हुये अधर्म को छोडकर धर्म के पालन करने का प्रयास करते हैं. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जिनके हृदय में प्रभु श्रीराम जी के चरणो में प्रेम है, उनको किसी भी युग का प्रभाव नहीं पडता.

जाकर नामलेत जग माही
सकल अमंगल मूल नसाही

प्रभु श्री राम के स्मरण करने से सभी कष्ट स्वत: दूर हो जाते हैं.  क्योंकि माया भी तो श्री राम जी की है, और प्रभु श्री राम के स्मरण और भजन करने से ही माया जनित गुण दोषों से छुटकारा मिल सकता है. श्री भुसुण्डी, गरूड जी से कहते हैं कि उस कलिकाल में मैं बहुत वर्षों तक अयोध्या में रहा. एक बार अकाल पडने पर विपत्ति के कारण मैं विदेश (उज्जैन) चला गया.

निष्कर्ष यह है कि सर्वोपरि ईश्वर स्मरण है, यदि हम ईश्वर का स्मरण करेंगे, ईश्वर के प्रति समर्पित रहेंगे तो  कलियुग का भी प्रभाव हमारे ऊपर नहीं होगा.

दिनेश्वर मिश्र जी का मंतव्यः

नट कृत विकट कपट खगराया।
नट सेवकहिं न ब्यापइ माया।।

उत्तरकांड, मानस-103/4

-श्री जे.पी.दुबेजी का विमर्श उत्कृष्टतम्। साधुवाद। श्रीमद्भागवत् में - ”हासो जनोन्मादकरी च माया” कहा गया है। श्रीरामचरितमानस में भी--”माया हास बाहु दिगपाला।” कहकर इसी मत की पुष्टि की गयी है।

काकभुसुंडिजी अपनी यात्रा के प्रथम भाग में उड़ते हुए सप्तावरण तक पहुँच गये, किन्तु यात्रा के दूसरे भाग में वे बिना उड़े ही स्वयं को अयोध्या में प्रभु के चरणों के सन्निकट पाते हैं। यात्रा का प्रथम भाग यदि साधना-पथ की ओर इंगित करता है, तो दूसरा भाग, प्रभ की कृपा की ओर। काकभुसुंडिजी ने ज्योंही आँखें खोलकर देखा, प्रभु उन्हें मुस्कुराते हुए देख रहे थे--

मोहिं बिलोकि राम मुसुकाहीं।

प्रभु की यही मुस्कुराहट ही माया का प्रतीक है, जिसका उल्लेख श्रीमद्भागवत् और श्रीरामचरितमानस की उपरोक्त पंक्तियों में किया गया है। सारी सृष्टि, प्रभु का माया-बिलास ही है और इस माया के चक्र में पड़ा हुआ जीव अनगिनत जन्मों से भ्रमित हो रहा है।

इस माया से मुक्त होने का उपाय क्या है? माया जादूगरी है। जादूगरों का साधारण खेल भी दर्शकोँ को विस्मित कर देता है। बुद्धिमान-से-बुद्धिमान ब्यक्ति भी इसका रहस्य नहीं समझ पाता, तो फिर उस महामायानाथ के रहस्य को समझ पाना, किसके लिए संभव है?

उसके लिए तो यही कहा गया है कि---

जो माया सब जगहिं नचावा। जासु चरित लखि काहुँ न पावा।।

स्वयं सृष्टि-रचयिता कहे जाने वाले,ब्रह्मा भी गरुड़ से यही कहते हैं-

हरि माया कर अमिति प्रभावा। बिपुल बार जेहि मोहिं नचावा।।

किन्तु इस माया के रहस्य को समझने का एक उपाय है, जिसका वर्णन शीर्षक पंक्ति में काकभुसुंडिजी करते हैं। जिसका अर्थ है कि जादूगर जब अपने चेले को सारा रहस्य समझा देता है, तब वह जादू के सारे दृश्यों को देखकर भी भ्रमित नहीं होता। मायानाथ जी ने अपने इस चेले काकभुसुंडिजी को माया का रहस्य समझाने के लिए ही मुस्कुराहट का प्रदर्शन किया, जो बाद में उनकी हँसी के रूप में परिणत हो गयी। प्रभु खिलखिलाकर हँस पड़े। हँसते ही उनका मुख खुला और काकभुसुंडिजी उसमें पैठ गये तथा उन्हें छोटे से दिखाई देने वाले मुख में प्रभु के विराट रूप का साक्षात्कार हुआ।

अपने अनुभवों से प्राप्त साक्षात् ज्ञान की मीमांसा करते हुए ही वह प्रभु-कृपा से ही माया से मुक्ति का उपाय हम सभी संसारी जनों को बता रहे हैं।

जादू के खेल के अंतराल में जब जादूगर की रिक्त झोली से एक बीज निकल पड़ता है, जो कुछ ही क्षणों में बृक्ष बन जाता है, फिर अगले ही क्षण उसमें आम के रसीले फल का दर्शन भी होने लगता है, तब दर्शक यही कहकर अपने आप को संतुष्ट करता है कि अरे!!यह तो जादूगर की जादूगरी है। इसी प्रकार काकभुसुंडिजी ने भी विराट दर्शन की परिसमाप्ति में प्रभु की माया का स्मरण करते हुए इसी शब्द का प्रयोग करते हुए कहा था कि---

तहँ पुनि देखेउँ राम सुजाना।
मायापति कृपाल भगवाना।।
नमन सबहिं।

आगे की कथाः

गयउं उजेनी सुनु उरगारी
दीन मलीन दरिद्र दुखारी
 गये काल कछु संपति पाई
तहं पुनि करउं संभु सेवकाई
विप्र एक बैदिक सिव पूजा
करइ सदा तेहि काजु न दूजा
परम साधु परमारथ बिंदक
संभु उपासक नहि हरि निंदक
तेहि सेवउं मै कपट समेता
व्दिज दयाल अति नीति निकेता
बाहिज नम्र देखि मोहि साईं
बिप्र पढाव पुत्र की नाईं
संभु मंत्र मोहि व्दिजवर दीन्हा
सुभ उपदेस बिबिध बिधि कीन्हा
जपेउं मंत्र सिव मंदिर जाई
हृदय दंभ अहमिति अधिकाई
मै खल मल संकुल मति नीच जाति बस मोह
हरिजन व्दिज देखे जरउं करउं बिष्नु कर द्रोह
गुर नित मोहि प्रबोध दुखित देखि आचरन मम
मोहि उपजइ अति क्रोध दंभिहि नीति कि भावई

श्री भुसुण्डी जी आगे की घटनाओं का वर्णन करते कि अयोध्या में अकाल होने कारण मैं उज्जैन चला गया कुछ समय बीत जाने पर अपने पुरुषार्थ पर कुछ सम्पति प्राप्त गयी तथा उज्जैन मे ही भगवान शंकर की आराधना करने लगा.

उज्जैन में ही एक ब्राह्मण थे जो वेदविधि से शिव जी की पूजा किया करते थे. वे परम साधू और परमार्थ के पक्षधर थे वे शम्भु के उपासक थे और जो शम्भू का उपासक होता है, वह श्री राम का भी उपासक होता है. वह श्री हरि की निन्दा नही कर सकता. श्री भुसुण्डी कहते हैं मै कपट पूर्वक उनकी सेवा किया करता था.

ब्राह्मण बडे ही दयालु और नीतिज्ञ थे. मुझे बाहर से विनम्र देखकर वह ब्राह्मण मुझे पुत्र की भांति मानकर शिक्षा देते थे. ब्राह्मण श्रेष्ठ ने मुझे शिवजी का मंत्र दिया और अनेको प्रकार से शुभ उपदेश दिये. मैं शिवजी के मन्दिर में मंत्र का जाप किया करता था. मेरे मन में दम्भ और अहंकार बढ गया. (यहां ध्यान देने वाली बात है कभी- कभी व्यक्ति को ज्ञान भक्ति का झूठा अहंकार भी हो जाता है)

भुसुण्डी जी आगे कहते हैं कि मैं दुष्ट, नीच जाति, पापमयी बुद्धि वाला श्री हरि भक्त और ब्राह्मणों को देखकर जल उठता था और विष्णु भगवान से द्रोह करता था. ब्राह्मण गुरू जी मेरे आचरण से दुखी रहते थे. मुझे प्रतिदिन भलिभॉति समझाते थे. मैं कुछ भी नही समझता था, उल्टे उनके ऊपर क्रोधित होता था. दम्भी व्यक्ति को अच्छी नीति समझ नहीं आती है.
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