दिल्ली के एक गांव पर हजार सितम !

दिल्ली के एक गांव पर हजार सितम ! नई दिल्ली: राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के दक्षिण में बसे गांव नांगलदेवत ने हजार वर्षो में न जाने कितने उतार-चढ़ाव देखे और विदेशी आक्रांताओं के आक्रमण झेले। लेकिन प्राचीन मंदिरों वाले पालम गांव का आजादी के बाद भी दुर्भाग्य ने पीछा नहीं छोड़ा। पालम हवाईअड्डे का जब-जब विस्तार हुआ, इस गांव को सितम झेलना पड़ा। इस गांव पर मुगलकाल में कई आक्रमण हुए।

अंग्रेजों के शासनकाल में भी इसने फिरंगियों से लोहा लिया। फिर स्वाधीनता संग्राम और विनोबा भावे के भूदान आंदोलन ने अग्रणी भूमिका निभाई। लेकिन 1964-65 में जब पालम हवाईअड्डे का विस्तार हुआ तब यहां की बेहद उपजाऊ 12000 बीघा जमीन ग्रामवासियों से छीन ली गई। इसके बदले उन्हें मात्र 11 रुपये प्रति गज के हिसाब से मुआवजा दिया गया।

इसके बाद सन् 1972 में गांव की आबादी को यहां से अन्यत्र चले जाने का नोटिस थमा दिया गया। जब सरकार को एक बड़े जनांदोलन की सुगबुगाहट की भनक लगी उसने अपना फैसला टाल दिया। लेकिन 1986 में फिर सभी को गांव खाली करने का आदेश दे दिया। इस पर 360 गांवों की पंचायत बुलाई गई, लोगों ने संघर्ष किया। उस दौरान महिलाओं के साथ सैकड़ों ग्रामवासियों को गिरफ्तार कर लिया गया और उन पर झ्झूठे व मनगढ़ंत केस दर्ज कर उन्हें जेल भेज दिया गया।

गांव के एक बुजुर्ग किशनचंद सहरावत (76) बताते हैं कि दिल्ली विधानसभा के अध्यक्ष डा. योगानंद शास्त्री के श्वसुर हीरा सिंह भी ग्रामवासियों के साथ जेल गए थे। आंदोलन का नेतृत्व पालम 360 गांव के प्रधान चौ. रिजकराम सोलंकी व किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत ने किया तथा प्रो. जयपाल विद्यालंकार इसके संयोजक थे।

सहरावत ने बताया, "1998 तक केस चले, लेकिन जब साहिब सिंह वर्मा मुख्यमंत्री बने, तब उन्होंने सभी मामले बंद करा दिए। इसके बाद ग्रामवासियों ने दिल्ली उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और दरियाब सिंह बनाम यूनियन ऑल इंडिया नामक केस दर्ज कराकर गांव को बचाने का निवेदन किया।"

गांव के दोनों छोरों पर मंदिरों व संतों की समाधियों की एक अविरल श्रृंखला है। मंदिरों के साथ बने बगीचे व पेड़ों के झ्झुरमुट ने इसे अद्भुत आध्यात्मिक व रमणीय स्थल बना दिया है। मंदिरों के गगनचुम्बी गुम्बद, उसकी स्थापत्य कला और दीवारों का ढांचा प्राचीनता का स्पष्ट बखान करता है।

यहां आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या और आस्था देखते ही बनती है। हजारों किलोमीटर दूर से लोग आकर यहां एकत्रित होते हैं, पूजा-अर्चना करते हैं, प्रसाद चढ़ाते हैं, लंगर चलाते हैं और अपनी मनोकामना पूरी होने की आशा के साथ लौट जाते हैं। साल में एक बार कनागती अमावस्या पर तो इतना बड़ा मेला लगता है कि प्रशासन को भी भारी भरकम प्रबंध करना पड़ता है।

इस गांव पर फिर सितम 2007 में हुआ। जीएमआर कम्पनी ने घरों पर बुल्डोजर चला दिए और मंदिर परिसर को छोड़ पूरे गांव को मलवे के ढेर में बदल दिया। लोगों को अपना सामान भी घरों से निकालने का समय नहीं दिया गया।

गांव के हंसराज सहरावत कहते हैं कि इस हादसे को सहन न कर पाने के कारण गांव के लगभग 300 लोगों ने अपनी जान दे दी। ग्रामीणों को न जगह दी गई न अपने और परिवार के सिर ढकने के लिए टेंट की व्यवस्था की गई। जीएमआर ने मात्र छह माह का किराया देकर अपना पल्ला झाड़ लिया।

ग्रामवासियों ने अपने गांव की उपजाऊ कृषि योग्य जमीन और उसके बाद अपने घरों को उजाड़ना तो किसी तरह अपने दिल पर पत्थर रखकर स्वीकार कर लिया, लेकिन जब आस्था और विश्वास की बात आती है तो मंदिरों के लिए ग्रामवासी तिलिमला जाते हैं।

विश्वस्त सूत्र बताते हैं कि जीएमआर इन प्राचीन मंदिरों को भी तोड़ने की योजना बना रही है। जब खेत छिन गए, घर छिन गए तो अब मंदिर लेकर क्या करोगे? इस प्रश्न के उत्तर में ग्रामप्रधान सहराज सहरावत कहते हैं, "चाहे हमारी जान चली जाए पर अपने आराध्य देवों को हम किसी भी कीमत पर यहां से हटाने नहीं देंगे। बाबा समेराम व भगवान भोले के इस पवित्र स्थान में सिर्फ हमारे गांव ही नहीं, पूरे उत्तर भारत के लोगों की अगाध श्रद्धा है।"
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