हिमाचल में कांग्रेस के सामने क्या हैं विकल्प?

जनता जनार्दन संवाददाता , Feb 28, 2024, 17:17 pm IST
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हिमाचल में कांग्रेस के सामने क्या हैं विकल्प?

हिमाचल में मंगलवार को राज्यसभा चुनाव में क्रॉस वोटिंग के बाद सुखविंदर सुक्खु सरकार पर ही बन आई. बुधवार की सुबह जैसे ही सूरज की किरण देवभूमि की धरती पर पड़ी तो सियासी गरमाहट का आगाज हो गया और सूरज चढ़ते-चढ़ते तो पारा चरम पर था. सुक्खु कैबिनेट में मंत्री और पूर्व मुख्यमंत्री विक्रमादित्य सिंह ने पद से इस्तीफा दे दिया. हालांकि बीजेपी में जाने की अटकलों पर विक्रमादित्य सिंह ने कहा कि अभी ऐसा कुछ नहीं है. यह अफवाह है. लेकिन कहते हैं ना राजनीति संभावनाओं का खेल है. विकल्प कभी खत्म नहीं होते. बस उनके इस्तेमाल का वक्त आना बाकी होता है. तो सुक्खु सरकार के पास क्या अब भी विकल्प बचे हैं. चलिए समझते हैं.

पहले खबर आई कि सुखविंदर सिंह सुक्खु ने पद से इस्तीफे की पेशकश की है. लेकिन बाद में उन्होंने इससे इनकार कर दिया. लेकिन अगर सुक्खु इस्तीफे की पेशकश करते तो यह उनकी तरफ से बड़ा कदम होता. यह सीधे-सीधे कांग्रेस की हिमाचल प्रदेश अध्यक्ष प्रतिभा सिंह और उनके बेटे विक्रमादित्य सिंह के लिए मैसेज का काम करता, जो उनका विरोधी गुट माना जाता है. 

बताया ये भी जा रहा है कि जिन 6 विधायकों ने बगावत का रास्ता अपनाया है, सुक्खु के इस्तीफे की पेशकश उनके दर्द पर दवा की तरह काम करती. लेकिन सुक्खु ने इस्तीफे की बात से इनकार कर संदेश दे दिया है कि हिमाचल में उनकी ही चलेगी. 

कांग्रेस आलाकमान ने डैमेज कंट्रोल के लिए अपने 'संकटमोचक' डीके शिवकुमार और हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र हुड्डा को बतौर पर्यवेक्षक शिमला भेजा है. कुछ मामलों में शिवकुमार कामयाब रहे हैं, कुछ में असफलता हाथ लगी है. देखना होगा कि इस बार वह इस चैलेंज से कैसे निपटते हैं.

क्या मानेगा वीरभद्र का परिवार?

अगर कांग्रेस राज्य में अपनी सरकार बचाना चाहती है तो सबसे पहला काम जो उसे करना होगा कि वीरभद्र सिंह का परिवार आलाकमान की बात मान ले. हिमाचल में काफी हद तक समीकरण अब भी कांग्रेस के हक में हैं. बात अभी घर में ही है. इसलिए सुलझाने की कोशिशों में अगर थोड़ा और दम लगाया जाए तो गाड़ी फिर पटरी पर लौट सकती है. राज्यसभा चुनाव में पूरी बाजी कांग्रेस के हाथ में थी. 

राज्य की इकलौती राज्यसभा सीट के लिए कांग्रेस के पास 40 विधायकों का समर्थन था. जबकि बीजेपी के महज 25 विधायक हैं. लेकिन बावजूद इसके बीजेपी अपने उम्मीदवार हर्ष महाजन को कांग्रेस के अभिषेक मनु सिंघवी के खिलाफ जिताने में कामयाब रही. ये नतीजे कांग्रेस के लिए सदमे से कम नहीं हैं. यह न सिर्फ कांग्रेस के संगठन की नाकामी तो दर्शाता है, साथ ही यह भी बताता है कि अपनी पाटी के विधायकों पर ही सरकार का जोर नहीं है.

बीजेपी का यह कदम इतना मजबूत था कि अब राज्य की 4 लोकसभा सीटों पर उसके जीतने के चांस और मजबूत हो गए हैं. साथ ही रूठे हुए उम्मीदवारों को पार्टी आलाकमान की ओर से ऐसा ऑफर मिलना चाहिए जो कम से कम बीजेपी के ऑफर पर तो भारी ही पड़े.

जैसे महाराष्ट्र में शिवसेना और एनसीपी में टूट के बाद जो गुट बने उन्होंने बीजेपी का दामन थाम लिया, जिसके बाद शरद पवार के गुट वाली और उद्धव ठाकरे की शिवसेना को असली दल की मान्यता तक नहीं मिली. अगर यही दांव बीजेपी हिमाचल में अपनाती है तो कांग्रेस को उसकी काट ढूंढनी होगी. मसलन अगर बीजेपी प्रतिभा सिंह या फिर विक्रमादित्य सिंह को मुख्यमंत्री पद का ऑफर दे सकती है. साथ ही बागियों को भी कैबिनेट में पद की पेशकश कर सकती है. इसी को देखते हुए कांग्रेस को भी वीरभद्र के परिवार को मनाना होगा. साथ ही विधायकों को भी अपने साथ बनाए रखने की उसके सामने चुनौती होगी. लेकिन ऑफर के तराजू का संतुलन ऐसा होना चाहिए ताकि सुक्खु और उनके समर्थक बाद में जाकर बागी ना बन जाएं.

पुरानी गलतियों से ना सीखना

हिमाचल में इस वक्त कांग्रेस के लिए आगे कुआं और पीछे खाई जैसी स्थिति है. खुद पर्यवेक्षकों को समझ नहीं आ रहा कि क्या कदम उठाएं. लेकिन शायद कांग्रेस अपनी पिछली गलतियों से नहीं सिख पाई है, इतना तो पक्का है. इससे पहले राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी उसके सामने ऐसी स्थिति आ चुकी है. 5 साल राजस्थान में तो जैसे-तैसे सरकार चल गई. लेकिन मध्य प्रदेश में कमलनाथ की 18 महीने में सरकार गिर गई और छत्तीसगढ़ में पार्टी की अंदरूनी कलह ही चुनाव में ले डूबी.

साल 2018 में जब कांग्रेस को मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में जीत मिली थी तो उसने टीएस सिंहदेव, सचिन पायलट और ज्योतिरादित्य  को सीएम पद नहीं सौंपा और कमलनाथ, अशोक गहलोत और भूपेश बघेल जैसे नेताओं पर भरोसा जताया. लेकिन इसके बाद जो कलह मची, उस पर आलाकमान काबू नहीं कर पाया. अब यही हाल हिमाचल में देखने को मिल रहा है. सुक्खु ने विक्रमादित्य को मिले दो मंत्रालयों में से एक वापस ले लिया, जो उनको नागवार गुजरा. साथ ही प्रतिभा सिंह चाहती थीं कि उनके समर्थक विधायक मंत्री बनें,वो भी नहीं हुआ. लिहाजा अब घड़ी की सुई तेजी से घूम रही है और कांग्रेस ने अगर जल्द कोई ठोस कदम नहीं उठाया तो बात 'हाथ' से निकलने में देर नहीं लगेगी.  

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