देहमुक्ति स्त्री की एकमात्र आकांक्षा नहीं: डॉ आशा पाण्डेय
सुजाता शिवेन ,
Sep 09, 2012, 17:27 pm IST
Keywords: Dr. Asha Pandey Introduction of Asha Pandey Asha Pandey Interview Dr. Asha Pandey Stories Travelogues of Asha Panday Novels India Hindi Library Amravati Vidarbha state committee डॉ. आशा पाण्डेय डॉ. आशा पाण्डेय का एक परिचय डॉ. आशा पाण्डेय का साक्षातकार डॉ. आशा पाण्डेय की कहानी यात्रा वृतांत कहानी संग्रह भारत हिन्दी पुस्तकालय अमरावती विदर्भ प्रदेश समिति
हिन्दी की चर्चित लेखिका डॉक्टर आशा पाण्डेय साहित्य के साथ-साथ सामाजिक जीवन में भी काफी सक्रिय रही हैं. उच्च शिक्षा के साथ, समाज , साहित्य और पारिवारिक परिवेश में तालमेल की अद्भुत महारत के बीच इन्होने खूब लिखा और पढ़ा. यहां पेश है लेखक, अनुवादक और फेस एन फैक्ट्स और जनता जनार्दन की साहित्य समन्वयक सुजाता शिवेन से डॉक्टर आशा पाण्डेय की बातचीत के खास अंश:
प्रश्न :- आपके रचना कर्म की शुरुआत कब और कैसे हुई ? उत्तर :- निश्चित समय या तारीख बता पाना तो मुश्किल है । मन में साहित्य के प्रति अगाध स्नेह तो होश सम्भालने के बाद से ही महसूस की हूँ। मैं तो सोचती हूँ कि कोई भी रचना कागज पर उतरने के पहले एक लम्बे अरसे तक दिमाग में तैयार होती रहती है । मुझे जब साहित्य का क ख ग भी नही समझता था तब भी दर्दीले लोकगीत मुझे रुला देते थे । पाठ्यक्रम में लगी कविताओं को मैं इतनी-इतनी बार पढ़ती थी कि वे सब मुझे अब भी कंठस्थ हैं। मुझे तो लगता है मेरे रचना कर्म की शुरुआत का असली समय वही रहा होगा, भले ही मन के मन में ही । कागज पर उतरने वाली मेरी पहली कविता के बारे में जहाँ तक मुझे याद आता है, मैं छठी कक्षा में रही होऊँगी जब गणतन्त्र दिवस पर एक कविता लिखी थी। स्कूल में सुनाई भी थीं । उसके बाद से साल दो साल के अन्तराल पर एकाध कविता लिखने लग गई थी। बी.ए. पूरा करते - करते कहानी लेखन की तरफ भी रुझान हो गया था, लेकिन बस गिनती की कविताएँ और कहानियाँ थीं मेरे पास । नियमित लेखन तो सन् २००२ से शुरू हुआ । प्रश्न :- आप मूलत: कहानियाँ लिखती हैं ? इसके अलावा भी क्या किसी और विधा में अपनी कलम चलाई हैं ? उत्तर :- जी हाँ, जैसा कि मैंने अभी आपको बताया कि लेखन की शुरुआत तो कविता से हुई । आज भी मैं कविताएँ लिखती हूँ। शीघ्र ही मेरा एक काव्य संकलन आने वाला है । इसके अलावा मैं यात्रावृत्तान्त, संस्मरण, डायरी, सामाजिक विषयों पर लेख आदि भी लिखती हूँ । इन दिनों तो दोहा और हायकु लिखना भी शुरू की हूँ । प्रश्न :- आज के इस आधुनिक युग में स्त्री-मुक्ति आन्दोलन को आप किस नजरिंये से देखती हैं ? उत्तर :- मेरा मानना है कि युग चाहे जो भी हो, समय चाहे जैसा भी हो, ‘स्त्री-मुक्ति’ शब्द को सही अर्थों में समझना होगा। देश में तमाम संस्थाएँ स्त्री-मुक्ति के लिए कार्य कर रही हैं और उसका सकारात्मक परिणाम भी सामने है किन्तु, ये जो हिन्दी साहित्य में स्त्री मुक्ति के नाम पर नारी विमर्श, नारी अस्मिता का एक नया आन्दोलन चल निकला है उसमें मुझे कहीं से भी स्त्री मुक्ति का कोई प्रयास दिखाई नही देता। ये तो मुझे वैसा ही लगता है जैसे किसी वस्तु के विज्ञापन में (चाहे वहाँ नारियों को दिखाना जरूरी हो या ना हो ) नारियों को कम वस्त्रों में दिखा कर उस वस्तु की विक्री बढ़ा लेने की बात सोचते हैं वैसे ही संपादक नारी विमर्श के नाम पर नारी देह की कहानियाँ छापकर पत्रिका की बिक्री बढ़ा लेना चाहते हैं । देहमुक्ति या अपनी देह पर अपना अधिकार स्त्री की प्रथम आकांक्षा हो सकती है किन्तु एक मात्र नही । जहाँ करोड़ों की संख्या में स्त्रियाँ दो वक्त के भर पेट भोजन के जुगाड़ में जद्दोजहद कर रही हों, वहाँ मात्र देह की स्वतन्त्रता कुछ खास मायने नही रखती । मेरे विचार से स्त्री का श्रम विमर्श का मुख्य मुद्दा होना चाहिए । कितनी बड़ी बिडम्बना है कि कार्य के स्वरूप एवं समय में समानता होने के बावजूद भी स्त्री मजदूर को पुरुष मजदूर से आधी या कभी-कभी आधी से भी कम मजदूरी मिलती है । स्त्री अपनी कम मजदूरी से ही दो वक्त की रोटी तथा बच्चों के पालन-पोषण का जुगाड़ करती है जबकि पुरुष अपने हिस्से की कमाई शराब एवं जुए-सट्टे में उड़ा देता है । पत्नी यदि इस बात का विरोध करे तो उसे गाली एवं मार मिलती है। अपवाद हो सकते हैं किन्तु, अधिकांशत: यही स्थिति देखने को मिलती है। मेरे विचार से स्त्री का श्रम, जो वह अर्थ कमाने के लिए इस्तेमाल करती है तथा उसका वह धैर्य जो वह विपरीत परिस्थितियों में भी अपने बच्चों एवं घर को सम्भालने में लगाती है, मुख्य रूप से इसकी चर्चा होनी चाहिए । इसके साथ ही साथ उस हिंसा की चर्चा होनी चाहिए जो पुरुषों द्वारा शब्दों एवं नजरों से की जाती है । उन छोटी-छोटी बातों की भी चर्चा होनी चाहिए जो घर परिवार के द्वारा बोलकर उन्हें नश्तर की तरह चुभाया जाता है। नारी को इन्सान मान लेना तथा उसके वजूद का उसके निर्णय का सम्मान करना ही सही अर्थों में नारी मुक्ति की बात होगी । और मैं मानती हूँ कि इतने से ही नारी के सारे अधिकार सुरक्षित हो जायेंगे, उसकी देह पर उसका अधिकार भी। प्रश्न :- आज के इस दौर में युवावर्ग अपनी भाषा, संस्कृति व साहित्य से कटता दिखाई दे रहा है, आपका अपना अनुभव ? उत्तर :- आज भौतिकवादी सोच अपने चरम पर है । सुख एवं सुविधा की हर वस्तु हमारे पास होनी चाहिए जिसके लिए पैसा जरूरी है। पैसा कमाने के लिए हर सम्भव उपाय अपनाये जा रहे हैं। जब समाज में मान्यता की कसौटी पैसा ही हो गया है तो लोग अपने उसूल, आदर्श, अपनी संस्कृति, अपनी भाषा सब ताक पर रख कर उन हथकंडों को अपना रहे हैं जिनसे पैसा आ सके। आज का युवावर्ग इसी दौड़ में शामिल है । उसे अपनी भाषा, अपनी संस्कृति के बारे में सोचने का वक्त नही है । उसके मन में यह प्रश्न भी उठता है कि भाषा और संस्कृति के बारे में सोचने से उसका फायदा क्या होगा ? और जिस चीज से कोई आर्थिक फायदा नही है उससे जुडऩा वह क्यों चाहेगा ? आज के युवा के पास नये विषय हैं, नये विम्ब हैं, नई शैली है । पुराने मूल्य अब बेमानी लगते हैं उन्हें । इसके समानान्तर मैंने यह भी महसूस किया है कि आज का युवा वर्ग परिस्थितियों के प्रति अधिक सजग, जिम्मेदार और जुझारू है । अगर उसे सही नेतृत्व मिले तो वह अपनी संस्कृति एवं भाषा की रक्षा करते हुए भी विकास की नई राह खोज ले । क्योंकि वह भावनाशून्य या विवेकशून्य नही हैं । प्रश्न : कहानी की रचना प्रक्रिया में पहले आप प्लाट बना लेती हैं या फिर लिखने बैठती हैं और कहानी एक रौ में बनती जाती है ? उत्तर : कहीं ना कहीं से एक सूत्र तो जरूर उठाती हूँ जिसे आप प्लाट कह सकती हैं । किन्तु, पूरी की पूरी कहानी दिमाग में नही तैयार होती । जब लिखना शुरू करती हूँ तब कई बार कहानी सोचे हुए तरीके से अलग हट जाती है और एक नया रूप अख्तियार कर लेती है ।छ कहानियाँ एक रौ में बन भी जाती हैं किन्तु कुछ स्वयं को बार-बार लिखवाती हैं फिर भी एक असन्तोष बना रहता है कि, ठीक से नही बन रही है । प्रश्न : एक स्त्री होने के नाते क्या आपके लेखन कर्म में किसी तरह के कोई अवरोध का अनुभव आपको होता है ? उत्तर : बहुत अधिक तो कभी नही महसूस होता क्योंकि मैं यह मानकर चलती हूँ कि मेरी घरेलू और पारिवारिक जिम्मेदारियाँ पहले हैं, उन्हें पूर्ण करने के बाद ही मैं लेखन की ओर जाती हूँ । पुरुष लेखक भी अगर नौकरी या व्यवसाय कर रहा होता है तो पहले वह उसी कार्य को महत्व देता है । बचे समय में या बचा लिए गये समय में ही वह भी लेखन कर पाता है । हाँ, इतना अवश्य मुझे लगता है कि पुरुष लेखक घर में अपने लेखन कर्म को पहले नम्बर पर रख कर किसी भी समय लेखन कर लेता है लेकिन स्त्रियाँ लेखन को अपना प्रथम कार्य नही बना पाती हैं । उन्हें घर परिवार के सारे कार्य निपटा कर ही जो समय मिलता है उसी में लेखन करना पड़ता हैं और उसका ऋणात्मक परिणाम यह होता है कि कई बार अच्छे विचार दिमाग में बनते हैं और जब जिम्मेदारियों को निभा कर महिला कलम उठाती है तब तक वो दिमाग से गायब भी हो चुके होते हैं । वैसे मेरी कोशिश अपने लेखन को उत्कृष्ट और सशक्त बनाने की रहती है । इस विषय पर मैं कम ध्यान देती हूँ कि मैं स्त्री हूँ इसलिए पिछड़ रही हूँ या फलां लेखक पुरुष है इसलिए आगे बढ़ रहा है । मेरा मानना है कि उत्कृष्ट लेखन को कोई अधिक दिन तक नही नकार सकता । प्रश्न : आपके अपने प्रिय लेखक कौन हैं ? उत्तर : यदि मैं शुरुआती दिनों की बात करू जब हिन्दी कथा कहानी को मैंने जाना समझा, परिचित हुई तो मुंशी प्रेमचंद का नाम ही मुझे याद आता है। उनकी कहानियों को सुनकर पढक़र ही मैं हिन्दी साहित्य के पाठन की ओर आगे बढ़ी । काव्य में महादेवी एवं जयशंकर प्रसाद याद आते हैं। बाद में तो कई नाम इस आदरणीय सूची में जुड़ते गये । जैनेन्द्र, अज्ञेय, मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती, चित्रा मुद्गल आदि की कई-कई कहानियाँ मेरे दिमाग पर अमिट छाप छोड़ चुकी हैं । वैसे आपने यदि यह पूछा होता कि आपकी प्रिय रचनाएँ कौन-कौन सी हैं तो मैं एक के बाद एक का नाम बता डालती । क्योंकि मैंने महसूस किया है कि मुझे एक ही लेखक की कुछ रचनाएँ तो बहुत अच्छी लगती हैं किन्तु कुछ रचनाएँ बहुत कम प्रभावित कर पाती हैं। प्रश्न : हिन्दी के अलावा भारत की किस दूसरी भाषा के साहित्य से आप ज्यादा प्रभावित हैं? उत्तर : बड़े दु:ख के साथ बता रही हूँ कि मैं अभी भारत की अन्य भाषाओं में से किसी एक भाषा के साहित्य का पठन पूर्ण समग्रता में नही कर सकी हूँ । बांग्लाभाषा के साहित्य में शरतचन्द्र तथा महाश्वेता देवी के कुछ उपन्यास तथा कहानियों को पढ़ी हूँ । बंकिमचन्द्र का ‘आनन्दमठ’ तथा रवीन्द्र नाथ टैगोर की भी कुछ रचनाएँ पढ़ी हूँ । इसके अतिरिक्त कुछेक मराठी कहानियों का हिन्दी अनुवाद पढ़ी हूँ । इक्का दुक्का तमिल, कन्नड़, मलयालम उडिय़ा आदि को पढ़ी हूँ । इतने अल्प पाठन के आधार पर इस प्रश्न का उत्तर देना मुझे उचित नही लग रहा है। हाँ मुझे महाश्वेता देवी की कहानियाँ प्रभावित करती हैं । मराठी की भी कुछ कहानियाँ, जो मैं पढ़ सकी हूँ, मुझे बहुत अच्छी लगी थीं। प्रश्न : इन दिनों आप क्या लिख रही हैं ? उत्तर : मुख्य रूप से तो मैं कहानियाँ ही लिखती हूँ इसलिए उस पर काम चलता ही रहता है। इसके अतिरिक्त मैं इन दिनों दोहा और हायकु भी लिखना शुरू की हूँ। कविता संस्मरण एवं डायरी लेखन भी बीच-बीच में चलता रहता है। प्रश्न : युवा लेखकों से आपकी उम्मीदें क्या हैं ? उत्तर : चूँकि मैंने लेखन बहुत देर से शुरू किया इसलिए स्वयं को मैं नवलेखक ही मानती हूँ । युवा लेखक तो मुझसें आगे हैं और अच्छा लिख रहे हैं । ऐसे ही अच्छी रचनाएँ वे हिन्दी साहित्य को देते रहें यही उम्मीद करती हूँ तथा उन्हें शुभकामनाएँ भी देती हूँ । # साथ में डोक्टर आशा पाण्डेय की कहानी 'मर्ज' और उनका परिचय भी |
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