Wednesday, 09 October 2024  |   जनता जनार्दन को बुकमार्क बनाएं
आपका स्वागत [लॉग इन ] / [पंजीकरण]   
 

क्या अन्ना आन्दोलन को समझ न पाया साहित्यिक समाज

जनता जनार्दन संवाददाता , Sep 12, 2011, 17:58 pm IST
Keywords: Literary community   Anna Hazare   Movement   Anant Vijay   साहित्य समाज   अन्ना हजारे   आन्दोलन   नासमझी   अनंत विजय   
फ़ॉन्ट साइज :
क्या अन्ना आन्दोलन को समझ न पाया साहित्यिक समाज

बचपन से सुनता था कि उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद कहा करते थे कि साहित्य समाज का दर्पण होता है । एक और बात सुनता था कि साहित्य राजनीति के पीछे नहीं बल्कि समाज के आगे चलनेवाली मशाल है । मैं इसे सुनकर यह सोचता था कि अगर साहित्य मशाल  है, तो साहित्यकार उस मशाल की लौ को लगातार जलाए रखने का काम करते हैं । भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे का दिल्ली में ऐतिहासिक अनशन खत्म हो गया है । अब तमाम तरीके से लोग उस जन उभार और आंदोलन को मिले व्यापक जनसमर्थन का आकलन कर रहे हैं । यह वो वक्त था जब साहित्य और साहित्यकारों के सामने यह चुनौती थी कि वो साबित करे कि राजनीति के पीछे चलनेवाली मशाल नहीं है । लेकिन अन्ना के आंदोलन के दौरान कमोबेश साहित्यकारों का जो ठंडा या विरोध का रुख रहा उससे घनघोर निराशा हुई ।

हंस के संपादक और दलित विमर्श के पुरोधा राजेन्द्र यादव को को अन्ना के आंदोलन में आ रहे लोग भीड़ और उनका समर्थन एक उन्माद नजर आता है । उस भीड़ और उन्माद को दिखाने-छापने के लिए वो मीडिया को कोसते नजर आते हैं । उनका मानना है कि अन्ना के आंदोलन के पीछे व्यवस्था परिवर्तन का विचार कम और एक समांतर सत्ता कायम करने की आकांक्षा ज्यादा है । पता नहीं राजेन्द्र यादव को इसमें समांतर सत्ता खड़ा करने के संकेत कहां से मिल रहे हैं, जबकि अन्ना हजारे और उनके लोग मंच से कई कई बार ऐलान कर चुके हैं कि वो चुनाव नहीं लड़ना चाहते हैं । अन्ना हजारे ने तो कई बार अपने साक्षात्कार में इस बात को दोहराया है कि अगर वो चुनाव लड़ते हैं तो उनकी जमानत जब्त हो जाएगी । टीम अन्ना भी हर बार व्यवस्था परिवर्तन की बात करती है ।

दरअसल ये जो सोच है वो अपने दायरे से बाहर न निकलने की जिद पाले बैठे है । राजेन्द्र यादव तो दूसरी शिकायत है कि अन्ना हजारे का जो आंदोलन है वो लक्ष्यविहीन है और जिस भ्रष्टाचार खत्म करने की बात की जा रही है वो एक अमूर्त मुद्दा है । उनका मानना है कि जिस तरह से आजादी का लड़ाई में हम अंग्रेजों की सत्ता के खिलाफ लड़े थे या फिर जयप्रकाश आंदोलन के दौरान इंदिरा गांधी की निरंकुश सत्ता के खिलाफ पूरा देश उठ खड़ा हुआ था, वैसा कोई साफ लक्ष्य अन्ना के सामने नहीं है । भ्रष्टाचार के खिलाफ जो लड़ाई लड़ी जा रही है वह अदृश्य है । करप्शन व्यापक रूप से समाज और नौकरशाही की रग रग में व्याप्त है, उसे खत्म करना आसान नहीं है । एक तरफ तो राजेन्द्र यादव कहते हैं कि ये समांतर सत्ता कायम करने की आंकांक्षा है तो दूसरी तरफ उन्हें कोई मूर्त लक्ष्य दिखाई नहीं देता है ।

राजेन्द्र यादव को अन्ना का आंदोलन बड़ा तो लगता है, लेकिन इसके अलावा उन्हें सबसे आधारभूत आंदोलन नक्सलवाद का लगता है । उनका मानना है कि नक्सलवादी आंदोलन सारे सरकारी और अमानवीय दमन के बावजूद व्यवस्था परिवर्तन के लिए सैकड़ों लोगों को बलिदान के लिए प्रेरित कर रहा है । यादव जी को नक्सलवादी आंदोलन व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई लगता है, जबकि अन्ना का आंदोलन समांतर सत्ता कायम करने की आकांक्षा । क्या यादव जी यह भूल गए कि भारतीय सत्ता को सशस्त्र विद्रोह में उखाड़ फेंकने के सिद्धांत पर ही नक्सलवाद का जन्म हुआ लगभग पांच दशक बाद भी नक्सलवादी उसी सशस्त्र विद्रोह के सिद्धांत के लिए प्रतिबद्ध हैं और उनका अंतिम लक्ष्य दिल्ली की सत्ता पर काबिज होना है । जबकि अन्ना का आंदोलन ना तो कभी सत्ता परिवर्तन की बात करते है और न ही हिंसा की । 

दरअसल राजेन्द्र यादव भी उसी तरह की भाषा बोल रहे हैं जिस तरह की माओवादियों की समर्थक लेखिका अरुंधति राय बोल रही हैं । अरुंधति राय को भी जनलोकपाल बिल में समानंतर शासन व्यवस्था की उपस्थिति दिखाई देती है । अन्ना के आंदोलन में पहले भारत माता की तस्वीर लगाने और उसके बाद गांधी की तस्वीर लगाने और वंदे मातरम गाने पर भी ऐतराज है । ऐतराज तो अन्ना के मंच पर तमाम मनुवादी शक्तियांयों के इकट्ठा होने पर भी है । लेकिन अन्ना के साथ काम कर रहे स्वामी अग्वनवेश और प्रशांत भूषण तो अरुंधति के भी सहयोगी हैं । अरुंधति को इस बात पर आपत्ति थी कि अनशन के बाद अन्ना एक निजी अस्पताल में क्यों गए । इन सब चीजों को अरुंधति एक प्रतीक के तौर पर देखती हैं और उन्हें यह सब चीजें एक खतरनाक कॉकटेल की तरह नजर आता है ।

पता नहीं हमारे समाज के बुद्धिजीवी किस दुनिया में जी रहे हैं । अन्ना के समर्थन में उमड़े जनसैलाब में दलितो,अल्पसंख्यकों और आदिवासियों को ढूंढने में लगे हैं । बड़े लक्ष्य को लेकर चल रहे अन्ना हजारे के आंदोलन में जिस तरह से स्वत: स्फूर्त तरीके से लोग शामिल हो रहे हैं वह आंखें खोल देनेवाला है । घरों में संस्कार और आस्था जैसे धार्मिक चैनलों की जगह न्यूज चैनल देखे जा रहे थे, जिन घरों से सुबह-सुबह भक्ति संगीत की आवाज आया करती थी, वहां से न्यूज चैनलों के रिपोर्टरों की आवाज या अन्ना की गर्जना सुनाई देती थी।

अन्ना के समर्थन में सड़कों पर निकले लोगों के लिए ट्रैफिक खुद ब खुद रुक जाता था और आंदोलनकारियों को रास्ता देता था । ये सब एक ऐसे बदलाव के संकेत थे जिसे पकड़ पाने में राजेन्द्र यादव और अरुंधति जैसे लोग नाकाम रहे । अन्ना हजारे के आंदोलन से तत्काल कोई नतीजा न भी निकले, लेकिन इसके दूरगामी परिणाम होंगे, जिसको समझने में राजेन्द्र-अरुंधति जैसे महान लेखक चूक गए ।

लेखकों के अलावा हिंदी में काम कर रहे लेखक संगठनों की भी कोई बड़ी भूमिका अन्ना के आंदोलन के दौरान देखने को नहीं मिली । अगर किसी लेखक संगठन ने चुपके से कोई प्रेस विज्ञप्ति जारी कर दी हो तो वह ज्ञात नहीं है । यह एक ऐतिहासिक मौका था जिसमें शामिल होकर हिंदी के मृतप्राय लेखक संगठन अपने अंदर नई जान फूंक सकते थे । लेकिन विचारधारा के बाड़े से बाहर न निकल पाने की जिद या मूर्खता उन्हें ऐसा करने से रोक रही है ।

समय को न पहचान पाने वाले इन लेखक संगठनों की निष्क्रियता पर अफसोस होता है ।प्रगतिशील लेखक संघ अपने शुरुआती सदस्य प्रेमचंद की बात को भी भुला चुका है । साहित्य समाज का दर्पण तो है पर आज के साहित्यकार उस दर्पण से मुंह चुराते नजर आ रहे हैं । जब लेखकों के सामने यह साबित करने की चुनौती थी कि साहित्य राजनीति का पिछलग्गू नहीं है तो वो खामोश रहकर इस चुनौती से मुंह चुरा रहे हैं । इस खामोशी से लेखकों और लेखक संगठनों ने एक ऐतिहासिक अवसर गंवा दिया है ।

ऐसा नहीं है कि हिंदी के सारे साहित्यकार अन्ना के आंदोलन के विरोध में हैं – कई युवा और उत्साही लेखकों के अलावा नामवर सिंह और असगर वजाहत जैसे वरिष्ठ लेखकों को अन्ना का आंदोलन अहम लगता है । नामवर सिंह कहते हैं कि अन्ना का आंदोलन समाज को एक नई दिशा दे सकता है,यह सदिच्छा से किया गया आंदोलन है और इसका अच्छा परिणाम होगा । वहीं असगर वजाहत को भी लगता है कि अन्ना का आंदोलन एक नया रास्ता खोल रहा है । नामवर और असगर जैसे और कुछ लेखक हो सकते हैं, होंगे भी लेकिन बड़ी संख्या में जन और लोक की बात करनेवाले लेखक जन और लोक की आंकांक्षाओं को पकड़ने में नाकाम रहे ।

अनंत  विजय
अनंत  विजय लेखक अनंत विजय वरिष्ठ समालोचक, स्तंभकार व पत्रकार हैं, और देश भर की तमाम पत्र-पत्रिकाओं में अनवरत छपते रहते हैं। फिलहाल समाचार चैनल आई बी एन 7 से जुड़े हैं।