![]() |
कोरोना महामारी के बीच उत्तर प्रदेश चुनाव की सुगबुगाहट
डॉ संजय कुमार , एसोसिएट प्रोफेसर एवं यू.पी. कोऑर्डिनेटर ,
May 27, 2021, 18:09 pm IST
Keywords: Panchayat Election 2021 Election 2021 UP Election 2021 Assembly Election UP UP Election 2021 UP Assembly Election 2022 BJP Government UP Yogi Adityanath Government Yogi CM UP यूपी चुनाव 2022 विधानसभा चुनाव 2022 यूपी में विधानसभा चुनाव चुनाव उत्तरप्रदेश 2022
![]() पंचायत चुनाव के परिणाम ने भाजपा एवं योगी सरकार को पहली बार गहरी चिंता में डाल दिया है. पिछले 25 वर्षों में लगभग हरेक मौके पर सत्ताधारी दल को पंचायत चुनाव में असंदिग्ध सफलता मिलती रही है, परन्तु कोरोना महामारी के दौरान हुए पंचायत चुनाव ने भाजपा के लिए गहरी चिंता की लकीरें खींच दी है. क्या 2022 का आगामी विधानसभा चुनाव फिर से एक बार सत्ता परिवर्तन का साक्षी बनेगा अथवा योगी सरकार पुनः सत्तासीन होगी? यह देखना न सिर्फ बेहद रोचक होगा वरन तमाम राजनीतिक पंडितों एवं भविष्यवक्ताओं के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण होगा.
एकदम से उत्तर प्रदेश में सियासी गतिविधियाँ तेज़ हो गयी हैं. प्रधानमंत्री मोदी की पसंद के माने जाने वाले एवं नौकरशाह से राजनेता बने अरविन्द शर्मा पुनः चर्चा के केंद्र में आ गए हैं. वहीँ दूसरी और उप मुख्यमंत्री केशव मौर्य को दिल्ली बुलाया गया है. कयास तो किसी बड़े राजनीतिक उठापठक की हो रही है. क्या उतर प्रदेश भी उत्तराखंड की राह जाएगा, जहाँ त्रिवेंद्र सिंह रावत की जगह तीरथ सिंह रावत को सत्ता सौंप दी गई. बहरहाल कयासों का यह दौर चलता रहेगा जब तक कि कोई साफ़ तस्वीर सामने नहीं आ जाती है. दूसरी और योगी सरकार लगातार कोरोना महामारी के बीच अपने सरकार पर आये जनआक्रोशीय संकट का सामना विभिन्न राहतों की घोषणा करके कर रही है. वो जनता को आश्वस्त करना चाहते है कि सरकार उनके साथ खडी है. ताज़ा घोषणा के अनुसार योगी सरकार ‘गरीब कल्याण योजना’ के अंतर्गत अगस्त तक गरीबों को मुफ्त राशन के साथ भत्ता भी देगी. साथ हीं सभी सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों (सीएचसी) पर 20 - 20 ऑक्सीजन युक्त बेड की व्यवस्था करने के लक्ष्य के साथ सरकार आगे बढ़ रही है.आने वाले समय में कोरोना पीड़ित एवं गरोबों हेतु अन्य घोषणाएं भी सवाभाविक रूप से अपेक्षित होगी.
जाहिर से बात है, ये घोषणाएं न सिर्फ सरकार के ऊपर आये संकट से जुड़ा है, वरन इसके अपने चुनावी निहितार्थ भी हैं. वैसे भी 2020 की पहली कोरोना लहर में योगी सरकार ने प्रवासी मजदूरों के सामने आये आर्थिक संकट से निपटने हेतु तमाम घोषणाओं के साथ उन्हें अमलीजामा पहनाने में कोई कसर नही छोड़ी थी.अगस्त 2020 में सीएसएसपी द्वारा कराये गए ऑनलाइन सर्वे में इस बात की पुष्टि भी हुई है. परन्तु इस बार का संकट पिछले सौ वर्षों में आया सबसे बड़ा संकट है. प्रदेश की जनता आर्थिक, सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक रूप से लगातार टूट रही है. सरकार की उपरोक्त घोषणाएं जनता को कहाँ तक आश्वस्त करती है, यह बेहद समीचीन है. परन्तु सरकार के अन्य मंत्रीगण जिस प्रकार से गैरजिम्मेदाराना व्यवहार का आचरण कर रहे हैं, वह आगामी विधानसभा चुनाव हेतु कोई अच्छी तस्वीर नहीं पेश कर रहा है. और अंततः यदि सरकार को चुनाव में कोई अनापेक्षित परिणाम मिल जाय तो मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा. ताज़ा उदाहरण शिक्षा विभाग से जुड़ा है. पंचायत चुनाव में प्राथमिक, माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा से जुड़े हजारों शिक्षकों एवं कर्मचारियों ने कोरोना महामारी के दौरान ड्यूटी की. प्राथमिक शिक्षक संघ ने 1621 लोगों के मरने का न सिर्फ दावा किया, वरन इस सम्बन्ध में सभी हताहतों की पूरी लिस्ट भी सौंपी है. परन्तु बेसिक सिक्षा मंत्री डॉ सतीश चन्द्र दिवेदी ने सिर्फ 3 शिक्षकों के मरने की पुष्टि की है. ताज़ा विवाद उनके भाई का सिद्धार्थ विश्वविद्यालय में नियुक्ति से जुड़ा है. स्वाभाविक है कि इन सब घटनाओं का प्रभाव जनता के मन-मस्तिष्क पर पड़ता है. शिक्षकों एवं कर्मचारियों का चुनाव में ड्यूटी करना कोई नई बात नहीं है, परन्तु कभी भी एक्का-दुक्का अपवाद को छोड़कर किसी की मौत नहीं हुई है. परन्तु इतनी बड़ी संख्या में मौत कोरोना के अलावा और कुछ हो नहीं सकता है. यह बात भी जग जाहिर है कि चुनाव के दौरान सामाजिक दूरी के नियमों की जमकर धज्जियाँ उड़ाई गई थी. आखिर इसके लिए कौन जिम्मेदार है. प्रशासन ने शायद स्थिति का गंभीरतापूर्वक आकलन नहीं किया था. जनता के मन में निराशा का भाव है. लगभग सभी परिवारों ने कोई न कोई अपना खोया है. इस संकट से उपजी घोर सामाजिक निराशा मौन स्वीकृति के साथ बहुत कुछ बयाँ कर रही है. योगी सरकार इन सब स्थितियों से कैसे निपटती है, यह देखना और समझना बाकी है.
उपरोक्त परिस्थितिजन्य संकट उत्तर प्रदेश में क्या गुल खिलाएगा? हालांकि अभी तक के चार वर्षों के योगी शासन को एक कठोर शासन माना जा रहा था, जो अपराधियों एवं असामाजिक तत्वों के साथ कड़ाई के साथ डील कर रही थी. परन्तु कोरोना महामारी और इससे जनित राजनीतिक विवशता आगामी विधानसभा चुनाव हेतु चरित्रगत पृष्ठभूमि तैयार कर रही है. चुनाव के दौरान कोरोना से निपटने में प्रशासनिक विफलता एवं असंवेदनशीलता बहुत सारे प्रश्न खड़े कर रही है. हमेशा चुनावी मोड में होना भाजपा की एक विशिष्टता है, परन्तु यही विशिष्टता अब इसके गले की हड्डी बन रही है. लगातार सरकार के ऊपर यह आरोप लगाए जा रहे है कि इसने महामारी से ज्यादा चुनाव को तरजीह दी. बंगाल के बारे में भी यही कहा गया. जिसके कारण भारत में कोरोना की दूसरी लहर अभी तक भयानक साबित हुई है. स्थिति को समझते और संभालते शायद देर हो चुकी है. विपक्षी दलों भी इस मुद्दे को खूब उछाल रहे हैं. परन्तु उत्तर प्रदेश में अभी तक विपक्षी दलों ने ऐसा कुछ सार्थक नहीं किया है जो जनता को मरहम लगा सके और उसे आश्वस्त कर सके. सिर्फ ट्विटर के माध्यम से चुनाव नहीं लडे जाते हैं. अखिलेश यादव लगातार यही कर रहे है. समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता एकाध अपवाद को छोड़कर कहीं जमीन पर नज़र नहीं आ रहे है. शायद ये भी कोरोना के थमने का इंतिजार कर रहे हैं. दूसरी और मायावती औए बसपा पूरी तरह सीन से गायब है.. शायद मायावती को अभी ही अपने पुराने फोर्मुले ”सोशल इंजीनियरिंग’ पर अगाध विश्वास है. उन्हें ऐसा लगता है कि उनके कोर वोटर अभी भी उनके साथ हीं जुड़े हुए हैं, और चुनाव के समय यही फोर्मुला उसके काम आएगा. जबकि भारत और उत्तर प्रदेश की राजनीति जाति के बजाय वर्ग आधारित हो चली है, जिसका श्रेय भाजपा को जाता है. राहुल और प्रियंका लगातार सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं, जिसका कुछ फायदा इन्हें मिल सकता है. |
क्या आप कोरोना संकट में केंद्र व राज्य सरकारों की कोशिशों से संतुष्ट हैं? |
|
हां
|
|
नहीं
|
|
बताना मुश्किल
|
|
|