कोरोना से इतना डरे हुए क्यों हैं आप?

कोरोना से इतना डरे हुए क्यों हैं आप? जिस समय पूरी दुनिया का बड़ा हिस्सा किसी एक धारा में बह रहा हो और उसके पक्ष में तर्क गढ़ रहा हो उस समय उसकी उलटी धारा में सोचना और बोलना कई तरह के खतरे जरूर पैदा करता है। लेकिन क्या यह खतरा सिर्फ इसलिए नहीं उठाया नहीं जाना चाहिए कि आप अकेले हैं? कोरोना संक्रमण से पैदा हुए मुद्दों ने भी ऐसी ही स्थिति पैदा कर दी है। पूरा देश आतंकित है। सरकार और मीडिया की जुगलबंदी लगातार इस आतंक को बड़ा कर रहे हैं। पूरा देश ठप है। लोगों की रोजी-रोटी छिन गई है। किसान खेत से फसल नहीं काट पा रहे हैं। जो सामान मौजूद है वह भी कहीं पहुंच नहीं रहा है और इस बात के पूरे आसार हैं कि आने वाले दिनों में हालात और भी खराब हों। सरकार ने भले न कहा हो, लोगों के मन में आशंका है कि सरकार लॉक डॉउन की अवधि और बढ़ा सकती है। अगर ऐसा होता है तो सरकार के पक्ष में गिटिर-पिटिर कर रहे लोगों का भी वही हाल होने वाला है जो रोटी-रोटी का आसरा छिनने से बेसहारा हुए लोगों का हुआ है। 

बहुत से लोग टिप्पणियां कर रहे हैं कि यह सरकार की आलोचना का समय नहीं है। उसके फैसलों और तौर-तरीकों की कमियों को गिनाने का समय नहीं है। लेकिन, क्या वे बता सकते हैं कि जब यह सुनामी सब कुछ ठीक न होने लायक हालात में पहुंचा देगी तब आप सवाल करके करेंगे भी क्या? 
 
इसीलिए, ठीक इस वक्त मैं आपसे जानना चाहता हूं कि कोरोना से आप इतना डरे हुए क्यों हैं? आपके आतंक का कारण क्या है? क्या आपने एक मिनट रुक कर यह सोचने की कोशिश की है कि क्या सचमुच कोरोना इतना भयावह संक्रमण है कि उससे बचाव के नाम पर पूरी जिंदगी को ठप कर देने को उचित माना जाए? क्या आपका भय औचित्यपूर्ण है? क्या सरकार की प्रतिक्रिया और उसके उपाय सचमुच औचित्यपूर्ण हैं। जिन पश्चिमी देशों ने लॉकडाउन किया उन्हें उससे क्या मिला और क्या हमारे देश की स्थितियां वास्तव में ऐसी हैं कि हम उन उपायों को अपना सकें जो कम आबादी वाले सम्पन्न देश कर सकते हैं। 
दरअसल आपके भय का कारण लगातार संदर्भ के कटे आंकड़ों के सहारे पैदा किया जा रहा भय। चीन, इटली, स्पेन और अमेरिका के आंकड़ों को भयावहता की कसौटी मानते हुए आप हर दिन बढ़ते आंकड़ों के साथ पहले से ज्यादा आतंक के भंवर में गहरे उतरते जाते हैं। कोशिश करने पर आपमें से कुछ लोगों को याद आ जाएगा कि एक दौर में एड्स/एचआईवी वायरस का भय पूरी दुनिया के साथ ही अपने देश पर भी व्याप्त था। हर दिन अखबारों में आंकड़े छपते थे। उसकी भयावहता की कहानियां प्रकाशित होती थीं और ऐसा लगता था कि किसी न किसी कारण से एड्स पूरी दुनिया को जकड़ लेगा। उस समय एड्स का कोई इलाज नहीं था और एचआईवी संक्रमित व्यक्ति में इसके लक्षणों के उभरने की कोई समयसींमा भी निर्धारित नहीं थी। 

मैं आपसे और लॉकडाउन के पक्षधर हर व्यक्ति से पूछना चाहता हूं कि क्या आपने देश में हर साल मृत्यु के आंकड़ों और कारणों पर पहले कभी ध्यान दिया है? क्या आप विश्व स्वास्थ्य संगठन और हर पर कोरोना के आंकड़ों पर निगाह रखने वाली संस्थाओं के आंकड़ों को देखा है और उनका विश्लेषण करने की कोशिश की है? क्या आपको इस बात का इलहाम है कि कोरोना से होने वाली मौतों का प्रतिशत उन रोगों से कम है जिनसे जूझना आपकी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा है? बीते साल देश में कितनी मौतें हुई थीं और इन मौतों में किस कारण का कितना हिस्सा था? अद्यतन आंकड़ों के अनुसार कोरोना से मौतों का वैश्विक प्रतिशत पांच प्रतिशत से कम है। इसकी तुलना में कई गुना ज्यादा मारक सार्स और मर्स महामारियों के बारे में आपमें से बहुत लोगों को पता तक नहीं है। 
 
सार्स और मर्स को छोड़िए, आप तो हर साल 20,000 या ज्यादा मौतों का कारण बनने वाले मलेरिया को लेकर भी कभी चिंतित नहीं हुए। न ही, गांव के गांव साफ कर देने वाला काला अजार आपकी चिंता या किसी एक जिले में भी लॉकडाउन का कारण बना। पिछले 40 सालों से हर साल पूर्वी उत्तर प्रदेश में गोरखपुर और आसपास के जिलों के साथ ही बिहार के मुजफ्फरपुर और आसपास के जिलों में हजारों बच्चों को मौत की नींद सुला देने वाले एक्यूट इन्सेफेलाइटिस सिंड्रोम और जापानी इंसेफेलाइटिस को लेकर न आपको चिंता हुई न ही प्रदेश और केंद्र सरकारों के स्वास्थ्य विभागों की नींद टूटी। उनमें संक्रमण के प्रसार की दर और संक्रमितों की मृत्यु दर कोरोना से कई गुना अधिक है। हृदय रोगों का प्रसार तेजी से हो रहा है। देश में कैंसर पट्टियां पैदा हो गई हैं और हर साल लाखों मौतें कैंसर के कारण होती हैं, पर इनके खिलाफ कभी कोई व्यापक अभियान नहीं शुरू हुआ। डेंगी और अभी हाल तक देश के कई हिस्सों में फैले रहे तीव्र संक्रामक और उच्च मृत्युदर वाले स्वाइन फ्लू को लेकर भी किसी सरकार ने वैसी प्रतिक्रिया नहीं दिखाई जैसी कोरोना को लेकर दिख रही है। इसका कारण क्या है? क्या यह अपनी गलतियों और चूकों को ढंकने की खातिर पश्चिम की भेड़चाल अपना लेने से अलग कुछ है?
 
हर छह महीने में मौसम के बदलाव के समय फैलने वाले वायरल बुखारों से जूझने का आदी यह देश पांच प्रतिशत की मृत्युदर वाले कोरोना के डर से पूरी तरह से बंद करने की कवायद में उलझा है। यह सब करते हुए न सरकार ने और न ही इन बातों का समर्थन करते हुए आपने सोचा कि ऐसा करने से क्या मिलेगा? पूरे देश को कितने दिनों तक घरों में बिठा कर जिंदा रखने का बूता है किसी में? और जिनके पास घर नहीं हैं, उनको रखने की कितनी व्यवस्था है? बेरोजगारी और अर्थाभाव में कितनी मौतें होंगी इसका कोई हिसाब लगाया है? कोरोना संक्रमण से होने वाली मौतों से ज्यादा मौतें तो अभी तक इसकी वजह से लगाई गई बंदिशों से बचने में हो चुकी हैं।
 
देश में अभी तक कुल 35,000 संदिग्ध मामलों की जांच हुई है जिनमें से लगभग एक हजार संक्रमित मिले हैं और 27 की मौत हुई है। हो सकता है यह संख्या बढ़ती हुई इसके 40-50 गुना तक पहुंचे। फिर भी यह संख्या पिछले साल सड़क दुर्घटनाओं में हुई ढाई लाख मौतों की संख्या को नहीं पार सकेगी। अगर ढाई लाख मौतों के लिए जिंदगी एक दिन भी नहीं रोकी जा सकती तो जिस संक्रमण का आपके पास कोई इलाज भी नहीं है, उससे संभावित मौतों को रोकने के लिए पूरे देश को ठप कर देना किस तर्क के हिसाब से ठीक हो सकता है?
 
हां, इसके प्रसार को सीमित रखने के लिए सावधानी जरूर बरती जानी चाहिए। उसके लिए आतंक नहीं जागरूकता और व्यापक और सर्वसुलभ मुफ्त जांचों की व्यवस्था की जानी चाहिए। उस पर आने वाला खर्च पूरे देश को ठप करने से पैदा होने वाले हालात के आर्थिक मूल्य का हजारवां हिस्सा भी नहीं होगा। 
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