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मानस मीमांसाः श्री राम और श्री कृष्ण लीला उतनी सत्य जितना यह जगत
दिनेश्वर मिश्र ,
Sep 14, 2017, 7:16 am IST
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![]() गोसाईं जी का श्री रामचरित मानस हो या व्यास जी का महाभारत, कौन, किससे, कितना समुन्नत? सबपर मनीषियों की अपनी-अपनी दृष्टि, अपनी-अपनी टीका... इसीलिए संत, महात्मन, महापुरूष ही नहीं आमजन भी इन कथाओं को काल-कालांतर से बहुविध प्रकार से कहते-सुनते आ रहे हैं. सच तो यह है कि प्रभुपाद के मर्यादा पुरूषोत्तम अवताररूप; श्री रामचंद्र भगवान के सुंदर चरित्र करोड़ों कल्पों में भी गाए नहीं जा सकते. तभी तो प्रभु के लीला-चरित्र के वर्णन के लिए साक्षात भगवान शिव और मां भवानी को माध्यम बनना पड़ा. राम चरित पर अनगिन टीका और भाष उपलब्ध हैं. एक से बढ़कर एक प्रकांड विद्वानों की उद्भट व्याख्या. इतनी विविधता के बीच जो श्रेष्ठ हो वह आप तक पहुंचे यह 'जनता जनार्दन' का प्रयास है. इस क्रम में मानस मर्मज्ञ श्री रामवीर सिंह जी की टीका लगातार आप तक पहुंच रही है. हमारा सौभाग्य है कि इस पथ पर हमें प्रभु के एक और अनन्य भक्त तथा श्री राम कथा के पारखी पंडित श्री दिनेश्वर मिश्र जी का साथ भी मिल गया है. श्री मिश्र की मानस पर गहरी पकड़ है. श्री राम कथा के उद्भट विद्वान पंडित राम किंकर उपाध्याय जी उनके प्रेरणास्रोत रहे हैं. श्री मिश्र की महानता है कि उन्होंने हमारे विनम्र निवेदन पर 'जनता जनार्दन' के पाठकों के लिए श्री राम कथा के भाष के साथ ही अध्यात्मरूपी सागर से कुछ बूंदे छलकाने पर सहमति जताई है. श्री दिनेश्वर मिश्र के सतसंग के अंश रूप में प्रस्तुत है, आज की कथाः ****** जस तुम्हार मानस बिमल, हंसिनि जीहा जासु। मुकुता हल गुन गन चुनइ, राम बसु हित तासु। बाल्मीकीय-राम प्रीति, राम रचित मानस बिगत बिबेच्य प्रसंग गतिमान -------------------------- आप सभी को यह हृदयंगम है कि, जिस प्रकार 'शवच्छेदन' का निष्कर्ष ही उपयोगी होता है, उसी प्रकार नग्न-यथार्थ के स्थान पर ऐतिहासिक सत्प्रेरक साहित्य ही सर्व जन हितकारी होगा। महाभारत के मुख्य नायक पांडव हैं और प्रतिद्वंद्वी उनके ही बन्धु कौरव हैं। दोनों राज्य के लिए संघर्ष करते हुए, करोड़ों ब्यक्तियों को कट जाने देते हैं। रामचरितमानस में बन्धुत्व के आदर्श राम और भरत हैं, जो एक दूसरे के लिए राज्य का परित्याग करने में संतोष का अनुभव करते हैं। स्वभावतः संघर्ष -प्रिय मानव मन, कौरवों-पांडवों के चरित्र को अपना आदर्श मान लेता है। वह यह सोचकर संतुष्ट हो जाता है कि, जब द्वैपायन ब्यास जैसा महापुरुष उनके चरित्रों को अपना आदर्श मान सकता है, तो उनका अनुगमन करना क्या बुरा है? नारद, ब्यासजी को श्रीमद्भागवत की रचना के लिए प्रेरित करते हैं, और इस रचना के बाद ही ब्यास, सन्तोष, शान्ति और प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। श्रीमद्भागवत में भी इतिहास का अभाव नहीं है। उसमें भी राजाओं का इतिहास एवं उनकी बंशावली का वर्णन है, किन्तु इसमें दो भिन्नतायें हैं -पांडवों के स्थान पर इसके केन्द्र कृष्ण हैं और इतिहास वर्णन का उद्देश्य इतिहास न होकर, उसके प्रति वितृष्णा और वैराग्य उत्पन्न करना है। सारे इतिहास का वर्णन करने के बाद, उनकी निरर्थकता की घोषणा की गयी है। इतिहास साधारणतया, किस दिशा में प्रेरित करता है, इसका बड़ा ही मार्मिक चित्र, भागवत के अन्तिम परिच्छेद में प्रस्तुत किया गया है-- "कथं सेयमखंडा भूः पूर्वेर्मे पुरुषैर्धृता। मत्पुत्रस्य च पौत्रस्य मत्पूर्वा बंशजस्य वा।। तेजोन्वन्नमयं कायं गृहीत्वात्मतया बुधाः। महीं ममतया चोभौ हित्वान्तेदर्शनं गताः।। ये ये भूपतयो राजन् भुंजन्ति भुवमोजसा। कालेन ते कृताःसर्वे कथामात्राःकथासु च।। "अर्थात - "वे लोग यही सोचा करते हैं कि मेरे दादा-परदादा इस अखंड भूमंडल का शासन करते थे, अब वह मेरे अधीन किस प्रकार रहे, और मेरे बाद मेरे बेटे पोते किस प्रकार इसका उपयोग करें। वे मूर्ख इस आग, पानी और मिट्टी के इस शरीर को अपना आपा मान बैठे हैं, और बड़े अभिमान के साथ डींग हाँकते हैं कि यह पृथ्वी मेरी है। अन्त में शरीर व पृथ्वी दोनों को छोड़कर अदृश्य हो जाते हैं । 'प्रिय परीक्षित'!जो जो नरपति बड़े उत्साह और बल पौरुष से, इस पृथ्वी के उपभोग में लगे रहे, उन सबको काल ने,अपने बिकराल गाल में धर दबाया। अब केवल इतिहास में उनकी कहानी ही शेष रह गयी है।" "कथा इमास्ते कथिता महीयसां हिताय लोकेषु यशः परेयुषाम। विज्ञान -वैराग्य-विवक्षया विभो वचोविभूतिर्न तु पारमार्थ्यम।। यस्तूत्तम-श्लोक-गुणानुवादः संगीयतेभीक्ष्णममंगलघ्न यमेव नित्यं श्रिणुयादभीक्ष्णं कृष्णेमलां भक्तिमभीप्समानः।। "अर्थात -- "परीक्षित! संसार में बहुत से महान पुरुष हो गये हैं, जो सम्पूर्ण लोकों में अपने यश का विस्तार करके यहाँ से चल बसे। उनकी ये कथायें तुम्हें ज्ञान और वैराग्य का उपदेश करने के लिए कही गयी हैं। इन्हें वाणी का वैभव मात्र न समझो। इनमें परमार्थ तत्व भरा हुआ है। भगवान कृष्ण का गुणानुवाद समस्त अमंगलों का नाश करने वाला है, बड़े बड़े महात्मा उसी का गान करते रहते हैं। जो भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में अनन्य प्रेममयी भक्ति की लालसा रखता हो, उसे नित्य निरंतर भगवान के दिब्य गुणानुवाद का ही श्रवण करते रहना चाहिए "। तुलसीदास जी की दृष्टि वही है, जिसका उपदेश देवर्षि ने ब्यास को दिया। जबकि बाल्मीकिजी की दृष्टि इतिहास प्रधान है। इसे बाल्मीकिजी के, व देवर्षि नारद के वार्तालाप के रूप में हम कल विस्तार से विवेचित करेंगे । श्रीराम का चरित्र आदर्श जीवन की उच्चतम अभिब्यक्ति है, किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से देखने वाले उसपर भी अनेक विबाद खड़ा करते रहते हैं। यथा- कुछ लोगों ने कहा तुलसीदास राम को ऐतिहासिक पुरुष न मानकर उनके एक काल्पनिक ब्यक्तित्व मात्र के समर्थक हैं। वस्तुतः ब्यास और तुलसी कृष्ण और राम को इतना ठोस सत्य मानते हैं, कि उनकी तुलना में उन्हें सारा इतिहास मिथ्या प्रतीत होता है। उनके जीवन में जो घटनाएँ घटित होती हैं, वे उनकी लीला हैं। राम अपने परिचित पार्षदों के साथ विश्व रंगमंच पर अवतरित हुए। भगवान यदि राम की भूमिका में उतरते हैं, तो उनके पार्षद जय, बिजय रावण और कुंभकरण की भूमिका में आते हैं । सत् असत् के शाश्वत संघर्ष को विश्व के समक्ष प्रस्तुत करना ही उसका उद्देश्य था, जिससे मानव अपने हृदयस्थ रावण को पहचान कर उसके विनाश की प्रक्रिया जान ले। कुछ लोग राम रावण युद्ध को आर्य और द्रविड़ के संघर्ष के रूप में देखते हैं।दक्षिण वाले कहते देखे जाते हैं, उत्तर ने दक्षिण पर आक्रमण किया। एक मिथ्या उन्माद पैदा करके उसका राजनीतिक लाभ लेने का प्रयास होता रहा है। शेष आगे- |
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