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विश्व हिंदी दिवस: 'हिंदी न मिटी है न मिटेगी'

विश्व हिंदी दिवस: 'हिंदी न मिटी है न मिटेगी' नई दिल्ली: विश्व हिंदी दिवस है, यह महज एक दिवस नहीं बल्कि विश्व पटल पर यह दिखाने की कोशिश है कि हिंदी अभी मरी नहीं, जिंदा है। भारत में ही नहीं बल्कि विश्व के कई छोटे और बड़े देशों में भी हिंदी बोली, पढ़ी और सुनी जा रही है। हिंदी साहित्यों और फिल्मों का विदेश में निरंतर बड़ा होता बाजार इसका प्रमाण है।

बहरहाल, इस सच्चाई से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि रोमन लिपी के 26 अक्षरों की अंग्रेजी, देवनागरी लिपि के 52 अक्षरों पर भारी पड़ गई है। अंग्रेजी को प्रतिष्ठा से जोड़ दिया गया है, जबकि हिंदी पढ़ने में लोगों को संकोच और हिचक हो रही है। इस भाषाई जद्दोजहद के बीच हिंदीप्रेमियों ने आज भी हिंदी को बचाए रखा है।

विश्व हिंदी दिवस मनाने का मुख्य उद्देश्य लोगों पर इसे थोपने की बजाय हिंदी के प्रति जागरूकता पैदा करना और इसे अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में पेश करना है। इसी मंशा के साथ नागपुर में 10 जनवरी, 1975 को प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजन हुआ था, जिसके बाद 2006 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 10 जनवरी को प्रति वर्ष विश्व हिंदी दिवस के रूप मनाए जाने का ऐलान किया था।

संविधान सभा ने 14 सितंबर, 1949 को एकमत से हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया था, लेकिन हिंदी को अब तक देश में कामकाज की भाषा का दर्जा नहीं मिल पाया है। नेशनल बुक ट्रस्ट के उपनिदेशक इबरान हुल्लक कहते हैं, ”देश के कानून से लेकर कामकाज अंग्रेजी भाषा में होता है। देश के नेता छोटे से लेकर बड़े आयोजनों में भी हिंदी की अनदेखी कर अंग्रेजी भाषा में भाषण देने की प्रथा चलाए हुए हैं। चीन और रूस के नेता भारत आकर अपनी मातृभाषा में ही भाषण देते हैं, लेकिन हमारे यहां हिंदी तो राम भरोसे हैं।

भारत में हिंदी की जो दुर्दशा है, उससे इतर वैश्विक देशों में हिंदी को लेकर खासा उत्साह है। अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, जापान, मिस्र, यूरोपीय देशों और रूस में भी हिंदी को वैकल्पिक भाषाओं के रूप में पाठ्यक्रम में शामिल किया जा रहा है। चीन सरीखे देशों में तो हिंदी पढ़ाने के लिए हिंदी शिक्षकों की भर्ती की जा रही है।

हिंदी कवयित्री और लेखिका इला कुमार कहती हैं, कौन कहता है कि हिंदी को तरजीह नहीं दी जा रही। कभी अमेरिका जाकर देखिए, आपको हिंदी सीखने के उत्सुक छात्रों की अच्छी खासी-जमात देखने को मिलेगी। इनमें सिर्फ अमेरिकी ही नहीं, विश्व के कई देशों से आकर अमेरिका में बसे लोग शामिल हैं। इला कुमार अमेरिका में प्रकाशित होने वाली हिंदी पत्रिका ‘विश्वा’ की संपादक भी हैं। वह कहती हैं, ”अमेरिका में हिंदी पत्रिका प्रकाशित हो रही है, इससे बड़ा गौरव भारत के लिए और क्या होगा।

इन सब सुखद अनुभूतियों के बीच एक सवाल अब भी बरकरार है कि जब विदेशी धरती पर हिंदी सीखने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है तो भारत में हिंदी की ऐसी दुर्दशा क्यों? इस सवाल का जवाब देते हुए हिंदी साहित्यकार राजकुमार राकेश कहते हैं कि लोगों से ही भाषा बनती और बिगड़ती है। देश के अति निम्न वर्ग को छोड़ दें तो समाज का हर वर्ग अपने बच्चों को अच्छे अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ाने को तरजीह देता है।

हिंदी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को हेय दृष्टि से देखा जाता है, ऐसे माहौल में हिंदी के प्रति सम्मान कैसे जागृत होगा। इसके लिए सरकार की ओर से नहीं, बल्कि घर से ही माता-पिता द्वारा बच्चों में मातृभाषा के प्रति सम्मान जगाने की जररूत है। अंग्रेजी का ज्ञान ठीक है, लेकिन इस चक्कर में हिंदी को तुच्छ समझने की मानसिकता छोड़नी होगी।

आज हिंदी का स्वरूप काफी व्यापक हो गया है। साहित्य, फिल्म, कला, संस्कृति, संचार सभी क्षेत्रों में हिंदी को प्रमुखता दी जा रही है। हिंदी भाषा में आ रहे बदलाव पर अमूमन हिंग्लिश के चलन से हिंदी का स्वरूप विकृत होने का विरोध करते हुए राजकमल प्रकाशन के मुख्य कार्यकारी अधिकारी आमोद महेश्वरी कहते हैं, विश्व की ऐसी कोई भी भाषा नहीं है, जिसमें समय के साथ बदलाव नहीं आया हो। विश्व की किसी भाषा में सबसे अधिक बदलाव आया है तो वह अंग्रेजी है।

शेक्सपियर की अंग्रेजी और आज की अंग्रेजी भाषा में जमीन-आसमान का फर्क है। पर इससे अंग्रेजी का महत्व कम नहीं हुआ। हिंदी पढ़ने वाले हमेशा से थे और रहेंगे।” विदेश में हिंदी के प्रचार-प्रसार से लाखों भारतीयों को रोजगार भी मिल रहा है। भारतीय बाजार के लिए हिंदी अनिवार्य है। बेशक, आपने ऑक्सफोर्ड से पढ़ाई की हो, लेकिन यदि भारतीय बाजार में उतरना है तो हिंदी को अपनाना होगा, क्योंकि इस भाषा में प्रचार-प्रसार के जरिये ही आप बाजार के एक बड़े हिस्से तक पहुंच सकते हैं।

नई दिल्ली के प्रगति मैदान में चल रहे 10वें विश्व पुस्तक मेले में हिंदी साहित्य की भरमार है। मेले में आपको बड़ी संख्या में हिंदी के युवा लेखकों का साहित्य देखने को मिल जाएगा। तरुण भटनागर, संजय कबीर, विजय सौहार्द जैसे युवा लेखकों की जमात देखकर नहीं कहा जा सकता कि हिंदी भीड़ में गुम हो गई है।

पुस्तक मेले में चीन को अतिथि देश का दर्जा दिया गया है। यहां महात्मा गांधी, प्रेमचंद और रवींद्रनाथ टैगोर की कृतियों की चीनी भाषा में अनूदित किताबें देखने को मिलेंगी तो वहीं चीनी लेखकों की कृतियां जल्द ही हिंदी में भी उपलब्ध होंगी।

एक हिंदीप्रेमी रोहित कश्यप कहते हैं, ”हिंदी का दायरा बढ़ा है। आज से 10-15 साल पहले की तुलना में हिंदी लिखने और पढ़ने वालों की संख्या बढ़ी है। युवा हिंदी में लिख रहे हैं और उन्हें प्रोत्साहित भी किया जा रहा है। हिंदी की दुर्दशा हो गई है, ये सब हवा-हवाई बाते हैं। हिंदी वर्ग इतना विशाल है कि तेल, कंघी से लेकर ब्रांडेड कपड़ों के प्रचार-प्रसार के लिए भी आपको हिंदी की जरूरत है।

हिंदी को अब भी संयुक्त राष्ट्र की भाषा के रूप में पहचान नहीं मिली है, जिसके लिए कोशिशें जारी हैं। योग को अंतर्राष्ट्रीय पहचान दिलाने के लिए 177 देशों का समर्थन प्राप्त हुआ था। हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा के रूप में पहचान दिलाने के लिए भी इसी तरह के समर्थन की आवश्यकता है। यदि ऐसा होता है तो हिंदीप्रेमियों का आत्मविश्वास बढ़ेगा।
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