कैमरन ने यूरोप और वैश्विक समुदाय को अस्थिरता के भंवर में छोड़ दिया
अमित दासगुप्ता ,
Jul 01, 2016, 11:49 am IST
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ब्रेक्सिट के पक्ष में हुए मतदान के बाद ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन के भाषण को सोशल मीडिया पर पहले तो सराहना मिली, लेकिन कुछ ही समय बाद आशंकाओं के बादल घिर गए और महसूस किया जाने लगा कि खराब टाइमिंग और जनभावना को गलत समझे जाने के कारण एक गलत फैसला हो गया, जिसकी वजह से वैश्विक बाजार में अस्थिरता व अनिश्चितता की स्थिति पैदा हो गई।
ब्रेक्सिट के पक्ष में हुए मतदान के बाद ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन के भाषण को सोशल मीडिया पर पहले तो सराहना मिली, लेकिन कुछ ही समय बाद आशंकाओं के बादल घिर गए और महसूस किया जाने लगा कि खराब टाइमिंग और जनभावना को गलत समझे जाने के कारण एक गलत फैसला हो गया, जिसकी वजह से वैश्विक बाजार में अस्थिरता व अनिश्चितता की स्थिति पैदा हो गई। ब्रिटेन वर्षो से यूरोपीय संघ का सदस्य तो रहा है, लेकिन बेमन से। चर्चिल (ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री) ने कभी जनरल दी गॉल (फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति) से कहा था कि यदि ब्रिटेन को यूरोप और पूरी दुनिया में से किसी एक को चुनना हो तो वह दूसरे विकल्प को चुनेगा, न कि यूरोप को। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जब तबाह हो चुके यूरोप को एकजुट बनाने के लिए वर्ष 1951 में पेरिस संधि के जरिये यूरोपीय कोयला एवं इस्पात समुदाय (ईसीएससी) का गठन हुआ तब भी ब्रिटेन ने एक दशक बाद 1961 में इसकी सदस्यता के लिए आवेदन दिया और तब तक ईसीएससी यूरोपीय आर्थिक समुदाय (ईईसी) के रूप में परिवर्तित हो चुका था। यहां तक कि उस समय भी ब्रिटेन के लोग इससे जुड़ने को लेकर बहुत अधिक उत्साहित नहीं थे और 1975 में जनमत संग्रह के बाद ही इसका फैसला लिया जा सका। ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री हैराल्ड विल्सन को इसमें सफलता मिली और वह ब्रिटेन की सदस्यता लेने में कामयाब रहे। कैमरन को भी कुछ ऐसी ही आस थी, जो टूट गई। हालांकि इस बारे में कई संकेत उन्हें पहले ही मिल चुके थे, लेकिन वह इन्हें समझ नहीं पाए। वास्तव में पिछले साल अक्टूबर में द इकोनोमिस्ट मैग्जीन ने ‘द रिलक्टेंट यूरोपीयन’ शीर्षक लेख के जरिये अनुमान जताया था कि यूरोप के शरणार्थी संकट और यूरो के मूल्य में गिरावट के कारण अधिकांश ब्रिटिश नागरिक यूरोपीय संघ से बाहर होने का विकल्प चुन सकते हैं। यूरोपीय संघ से बाहर निकलने के चुनाव के वास्तविक कारणों का अब भी विश्लेषण किया जाना है और इन्हें समझना बाकी है, लेकिन तीन बातें साफ हैं- पहली, यूरापीय संघ से अलग होने की राय रखने वालों में से 58 प्रतिशत की उम्र 65 साल या इससे अधिक है। दूसरे, उत्तरी आयरलैंड और स्कॉटलैंड यूरोपीय संघ में बने रहना चाहते हैं और तीसरे, लंदन ने भी ब्रेक्सिट के खिलाफ वोट दिया। जो भी यूरोपीय संघ से अलग होने के पक्ष में थे, उनके सोशल मीडिया पर जारी बयानों से पता चलता है कि वे शरणार्थी संकट, खासकर इस्लामिक देशों और सीरिया में जारी संकट, यूरो मूल्य में अस्थिरता, कई यूरोपीय देशों, जैसे- ग्रीस और पुर्तगाल में वित्तीय संकट, ब्रसेल्स की आक्रामक नौकरशाही और संप्रभुता खोने के डर से परेशान थे। ब्रेक्सिट का असर क्या होगा, इसे समझना अभी बाकी है, लेकिन जनमत संग्रह के तुरंत बाद का वातावरण अनिश्चितता तथा भ्रम का है। उत्तरी आयरलैंड तथा स्कॉटलैंड पहले ही ब्रिटेन से अलग होने की आवाज बुलंद कर चुके हैं। वहीं, लंदन को यूरोपीय संघ का हिस्सा बनाए रखने के लिए भी ब्रिटेन में लॉबिंग शुरू हो चुकी है। दूसरे जनमत संग्रह की बात भी शुरू हो चुकी है। धुर दक्षिणपंथी लॉबी जनमत संग्रह और आव्रजन जैसे भावनात्मक मुद्दे का लाभ उठाने की कोशिश कर सकते हैं। ऐसे में विघटनकारी शक्तियों के सिर उठाने की आशंकाएं भी हैं। फ्रांसीसी नेता मरिन ले पेन पहले ही कह चुकी हैं कि ब्रिटेन ने एक आंदोलन शुरू किया है, जो नहीं रुकेगा। अलगाव की यह भावना फैलने का खतरा है, जिससे ब्रिटेन की एकजुटता के विचार को नुकसान हो सकता है। यूरोपीय संघ के कानून के अनुच्छेद 50 के अनुसार, ब्रेक्सिट वोट के दो साल के भीतर यूरोपीय संघ और ब्रिटेन के नए संबंधों को पुनर्परिभाषित हो जाना चाहिए। लेकिन यह उतना आसान नहीं है, जितना जान पड़ता है। क्या ब्रेक्सिट के बाद ब्रिटेन ट्रांस-अटलांटिक ट्रेड एंड इंवेस्टमेंट से बाहर हो जाएगा? क्या ब्रिटेन डब्ल्यूटीओ में अकेले ही जाएगा? यूरोपीय संघ के उन नागरिकों का क्या होगा, जो ब्रिटेन में काम करते हैं और ब्रिटेन के उन लोगों का क्या होगा जो यूरोपीय संघ के विभिन्न देशों में काम करते हैं? ये महज कुछ सवाल हैं, जिनके जवाब तलाशने होंगे। वोट को लेकर गहरी खीझ है और हालांकि कैमरन ने साल के आखिर तक इस्तीफा देने की बात कही है, जब पार्टी प्रधानमंत्री के लिए नए नेता का चुनाव करेगी, लेकिन इस बीच बातचीत की प्रक्रिया जल्द शुरू करने और अनिश्चिता को समाप्त करने का दबाव बढ़ गया है। अपनी दूरदर्शिता के लिए जानी जाने वाली जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल ने इसे पहले ही भांप लिया और वोट के तुरंत बाद छह संस्थापक देशों- बेल्जियम, फ्रांस, जर्मनी, इटली, लक्जमबर्ग और नीदरलैंड्स- के साथ आगामी कदमों पर चर्चा के लिए बैठक बुलाई। उन्होंने तुरंत अगलाव को लेकर चेताते हुए कहा कि स्पष्ट रोडमैप की जरूरत है और संघ से बाहर होने को लेकर जल्दबाजी ठीक नहीं होगी। यह यूरोपीय संघ के अध्यक्ष के उस रुख से बिल्कुल उलट है, जो चाहते हैं कि ब्रिटेन जल्द बाहर हो। यह मुश्किल वक्त है और सभी की निगाहें एक बार फिर मर्केल की सूझबूझ पर टिकी हुई हैं कि वह अपने शांत रवैये से यूरोपीय संघ को बचा सकें। यह दिलचस्प है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी एक वास्तविक यूरोपीय देश के रूप में उभरा है। पूरे प्रकरण में सर्वाधिक त्रासदीपूर्ण शायद यह नहीं है कि ब्रिटेन अलग-थलग पड़ गया है या वैश्विक अर्थव्यवस्था अस्थिर हो गई है, बल्कि यह है कि जिन लोगों ने भी ब्रेक्सिट के पक्ष में वोट किया, उनमें से अधिकांश वरिष्ठ नागरिक हैं, लेकिन इसका नुकसान ब्रिटेन के युवाओं को झेलना पड़ेगा, जो यूरोपीय संघ में मिलने वाले अवसर से चूक जाएंगे। कैमरन को संभवत: इतिहास में जगह बनाने की उम्मीद थी और निश्चित तौर पर ऐसा होगा भी। पर इसकी संभावना कम ही है कि उनके प्रति नरमी दिखाई जाएगी। बतौर लोकतंत्र, हम सभी जनइच्छा के सम्मान के महत्व को समझते हैं। लेकिन लोकतांत्रिक शासन एक जिम्मेदार शासन भी है। कुल मिलाकर, जनमत संग्रह को लेकर सही समय का चुनाव नहीं किया गया और न ही रणनीतिक स्तर पर यह दुरुस्त रहा। कैमरन ने न केवल ब्रिटेन को, बल्कि पूरे यूरोप और वैश्विक समुदाय को अस्थिरता के भंवर में डाल दिया है। निश्चित तौर पर यह एक प्रशासक का गुण नहीं है। |
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