राजनैतिक चंदा: भ्रष्टाचार का लाइसेंस
सत्यव्रत त्रिपाठी ,
Apr 23, 2015, 13:13 pm IST
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विकासशील प्रजातंत्र में सशक्त राजनीतिक दलों को प्रतियोगितापूर्ण जनतांत्रिक राजनीति का माहौल बनाना जरूरी होता है। पार्टी को इसमें टिके रहने, मुकाबला करने और जनतांत्रिक गतिविधियों से जुड़े रहने और चुनाव प्रचारों के लिए धन की जरूरत होती है। इन दिनों राजनीतिक फंड और पार्टी के लिए दान लेना समस्या बन गई है। पार्टियों को धन उपलब्ध कराने या फिर उसे मदद करने, खर्च और जनता के सामने उसका ब्योरा देने का कोई विधिवत प्रावधान नहीं है।
हालांकि कमजोर संगठन के लिए भ्रष्टाचार के जोखिम और वित्तीय कमी कोई मायने नहीं रखती है। कुछ बातों को छोड़ दें तो धन ही अपनी आवाज को बुलंद करने में पार्टियों के लिए मददगार साबित होता है। कोई भी पार्टी अपर्याप्त संसाधनों में सशक्त भागीदारी नहीं निभा पाती है। जिन पार्टियों के पास पर्याप्त संसाधन हैं, वे अपने सामाजिक आधार की बदौलत अपनी अलग पहचान बनाती हैं और अपने प्रतिद्वंद्वियों से मुकाबला करती हैं। जिन पार्टियों को कुछ ही स्रोतों से धन मिलता है, वे जनता तक अपने विस्तृत्व विचारों को नहीं पहुंचा पाती हैं। सत्ताधारी पार्टियों को “प्रशासनिक संसाधनों की भी मदद मिल जाती है” जिससे वे मित्रों को लाभ पहुंचाने और दुश्मनों को सजा दिलाने में उपयोगी साबित हो जाते हैं। विरोधी पार्टियों को राज्य की शक्ति और धन का लाभ नहीं मिलता है। मजबूत और अनुशासित जनतांत्रिक प्रणाली में पार्टी नेता व्यक्तिगत पहचान के आधार पर धन जुटा सकते हैं, अपनी पैठ बनाते हैं, पार्टी में अपने हिसाब से चर्चा आदि करा लेते हैं और धन के लिए दान देने वालों पर दबाव बनाने में सफल होते हैं, वहीं सत्तारूढ़ पार्टी के नेता इसी तरीके से अन्य व्यवस्थाओं का लाभ लेते हैं। व्यवस्थित प्रजातंत्र में, उस पार्टी और राजनीतिक का बाजार गर्म रहता है जो नीति निर्धारक और निजी मामलों के बीच बिचौलिए का काम करते हैं। इस लिहाज से इस पर रोक लगना और ऐसी बुराइयों का उजागर होना जरूरी है। हमारा मूल उद्देश्य विकास और लक्ष्य तक पहुंचाने के लिए एक सक्रिय राजनीतिक स्थिति और सशक्त राजनीतिक माहौल बनाने में संतुलित तरीके से काम करना है। विभिन्न संगठनों ने राजनीतिक फंड में पारदर्शिता का दबाव डालने के लिए अध्ययन किया है। उदाहरण के लिए, “पॉलिटिक्स हैंडबुक” में यूएसआईडी ने संबंधित मामले पर काम किया है। भारत की स्थिति भारत दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्था है। 2014 में दुनिया ने सबसे बड़ा चुनाव देखा, जो कई मायनों में भारत की लोकतांत्रिक ताकत की झांकी था। आंकड़ों में बात करें तो इस चुनाव में अब तक की सबसे बड़ी तादाद में लोगों ने पूरे उत्साह के साथ मतदान किया। इस प्रक्रिया के दौरान अभूतपूर्व संख्या में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) का इस्तेमाल किया गया और इस प्रक्रिया में तैनात किए गए अधिकारियों और सुरक्षा बलों की संख्या भी अभूतपूर्व थी, जिन्होंने सुनिश्चित किया कि भारत का सबसे बड़ा चुनावी उत्सव किसी दिक्कत के बगैर संपन्न हो जाए। यदि डाले गए मतों का आंकड़ा देखा जाए तो यह अब तक का सबसे प्रभावशाली चुनाव भी था। इसलिए यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि चुनावी राजनीति के इतिहास में वास्तव में यह सबसे बड़ा चुनाव था। इस चुनाव में विजयी होने वाली भारतीय जनता पार्टी को 16 करोड़ से भी ज्यादा मत प्राप्त हुए, जो दुनिया में किसी भी पार्टी को मिले वोटों से ज्यादा हैं। इस भारी भरकम कार्य को सफलतापूर्वक संपन्न करने के लिए भारत के निर्वाचन आयोग के अधिकारियों और पदाधिकारियों ने जो अथक प्रयत्न किए, उनके लिए आयोग को बधाई दी जानी चाहिए। जो धन खर्च किया गया, उसके लिहाज से भी यह चुनाव सबसे खर्चीला चुनाव था। कई जगहों पर नोटों से भरे थैले बरामद हुए, जिनसे इस बात की पुष्टि हुई कि भ्रष्ट हरकतें हमारी चुनाव प्रणाली का हिस्सा हैं। इसके साथ ही ऐसे कई उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा, जिनके खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं और उनमें से कई ने जीत भी हासिल की। हालांकि प्रशासनिक तंत्र कमोबेश निष्पक्ष ही रहा फिर भी धांधली की घटनाएं हुईं और चुनाव आयोग तथा सर्वोच्च न्यायालय ने सभी तरह की गड़बड़ी रोकने के लिए सख्त दिशानिर्देश जारी किए थे, लेकिन यह चुनाव भ्रष्ट बातों से पूरी तरह मुक्त नहीं रह सका। यही कारण है कि राष्ट्रीय आयोग को 2001 में संविधान की समीक्षा के बाद टिप्पणी करनी पड़ी, “चुनाव के लिए कोष की जरूरत ही भ्रष्टाचार के ढांचे की नींव बन गई है।” चुनाव में मुद्रा शक्ति (मनी पावर) की भूमिका की वजह से भारत में चुनाव व्यवस्था में सुधार इन दिनों चर्चा का विषय बना हुआ है, जो व्यवस्था के मूल में ही एक तरह की बीमारी बन गई है। विभिन्न संस्थानों, कमिटियों और संगठनों द्वारा कानून और अनुमोदन के रूप में तरह-तरह से कोशिशें की गईं। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं : 1. संथानम कमिटी ने 1964 में और वांचू कमिटी ने 1973 में सिफारिशें की थीं। संस्थापक ने इनके रिपोर्ट को देखने के बाद पाया था कि बेहिसाबी काले धन इन भ्रष्टाचारों के सबसे बड़े स्रोत थे। राजनीतिक दलों के स्टेट फंड के लिए दोनों सिफारिशें की गई थीं। 2. रिप्रेजेंटेशन ऑफ पीपल्स एक्ट (आरपीए), 1951 की धारा 77 के अंतर्गत भारतीय चुनाव अधिनियम के मुताबिक, प्रत्येक उम्मीदवार को चुनाव से जुड़े सभी खर्च के सही हिसाब का खुलासा करना चाहिए और नामांकन से लेकर चुनाव परिणाम आने तक वे अपने खाते को जमा करने के लिए पाबंद हैं। इसके साथ ही, अधिनियम की धारा 123(6) के मुताबिक, चुनाव में अतिरिक्त खर्च भ्रष्टाचार की श्रेणी में आता है। इससे चुनाव पर होने वाले खर्च की सीमा भी कम हुई। 3. विभिन्न राज्यों में उम्मीदवारों द्वारा चुनाव पर होने वाले अधिकतम खर्च को निर्वाचन अधिनियम, 1961 के नियम 90 के तहत कम किया जा सकता है। 4. साथ ही, निर्धारित समय सीमा में चुनाव खर्च का हिसाब तैयार नहीं करने पर अधिनियम 1951 के तहत संसद और राज्य विधानसभा से सदस्यता अयोग्य करार दी जा सकती है। 5. सुप्रीम कोर्ट ऐसे कई मामलों में फैसला सुना चुका है जिनमें सवाल उठाए गए थे कि क्या राजनीतिक पार्टी या किसी उम्मीदवार का चुनाव खर्च धारा 123 की उपधारा 6 में आती है जो आरपीए, 1951 की धारा 77 में है। कनरलाल गुप्ता बनाम अमरनाथ चावला (1975(3) एससीसी 646) जैसे चर्चित मामले में सुप्रीम कोर्ट अपना विचार व्यक्त कर चुका है कि राजनीतिक पार्टी द्वारा किए गए खर्च में उम्मीदवार के चुनाव खर्च को भी जोड़ा जाना चाहिए। ... contd.
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