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सोहेला: संबलपुर के साहसी सपूतों का समावेशी स्मारक

गौरव अवस्थी , Aug 13, 2025, 9:48 am IST
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सोहेला: संबलपुर के साहसी सपूतों का समावेशी स्मारक छत्तीसगढ़ के बॉर्डर पर ओड़िशा के अंतिम कस्बे सोहेला से गुजरते वक्त चौराहे के बायीं तरफ महात्मा गांधी और उनके पैदल सैनिकों की 11 मूर्तियां अचानक आकर्षित करती हैं. यह मूर्तियां पश्चिम ओड़िशा के क्रांतिकारियों की गाथा सुनने की जिज्ञासा पैदा करने लगती हैं. इसलिए कि ऐसी मूर्तियां तो देश की राजधानी दिल्ली में हैं. फिर इनका यहां क्या उद्देश्य? लेकिन उद्देश्य है. पश्चिम ओड़िशा के कोसल प्रांत में प्रथम स्वाधीनता संग्राम से लेकर स्वाधीनता संग्राम तक का इतिहास बड़ा है. पुराना है और जुझारू भी.

सन 1942 का अगस्त महीना था. महात्मा गांधी भारत छोड़ो आंदोलन का आगाज कर चुके थे. उनके आह्वान पर संबलपुर क्षेत्र के युवा भी मचल उठे. तत्कालीन संबलपुर (अब बरगढ़) जिले के एक छोटे से गांव पाणिमोरा के युवाओं की में हृदय में गांधीजी के सिद्धांत, आदर्श के साथ आजाद भारत का सपना पैदा हो चुका था. 'भारत छोड़ो' आंदोलन का आह्वान सुनकर पाणिमोरा गांव के युवाओं ने ब्रिटिश सरकार की अदालतों को अहिंसक और शांतिपूर्वक ढंग से अपने 'कब्जे' में कर लिया. 

उन्हीं सत्याग्रही युवाओं में से चमरु परिडा ने 'न्यायाधीश' बनकर अदालत का काम शुरू किया. जितेंद्र प्रधान 'अर्दली' बन गया और पूर्णचंद्र प्रधान 'पेशकार'. जज साहब ने आदेश दिया, "आप स्वतंत्र भारत के नागरिक हैं. कृपया सभी याचिकाएं ब्रिटिश सरकार को नहीं, बल्कि महात्मा गांधी को लिखकर जमा करें." 1942 की यह घटना, भारतीय स्वाधीनता संग्राम की उज्ज्वल मगर कम चर्चित घटना थी. एक और 'पैदल सैनिक' थी अग्निकन्या पार्वती गिरि. सम्लेईपदर में जन्मी पार्वतीगिरि ने महात्मा गांधी के 'भारत छोड़ो आंदोलन' से प्रेरित होकर बरगढ़ के एसडीओ कार्यालय पर कब्जा कर लिया. और एसडीओ को बांधकर लाने का आदेश पारित कर दिया. गांधीजी की अहिंसा की नीति का पालन करने वाली पार्वती गिरि का दुस्साहसिक कार्य अदम्य साहस का ज्वलंत प्रमाण था.

 9 अगस्त, 2020 को इन संग्राम स्थलियों को जोड़ने वाली समन्वय स्थली सोहेला में 11 मूर्तियों का अनावरण किया गया. सन 1942 में स्वतंत्रता आंदोलन में प्रमुख भूमिका निभाने वाले सेनानी जितेंद्र प्रधान के कर कमलों द्वारा इन 11 मूर्तियों का अनावरण किया गया. सोहेला में स्थापित '11मूर्तियाँ' दांडी यात्रा का एक कलात्मक संस्करण है. इसमें दिखाए गए हैं गांधीजी और उनके दस अनुयायी. ये दस 'समावेशी' भारतवर्ष के प्रतीक हैं. वे समाज के प्रत्येक वर्ग और धर्म का प्रतिनिधित्व करते हैं. 9 अगस्त, 2020 को संग्रामी पीठस्थलियों की समन्वय स्थली सोहेला में स्थापित अमूल्य भोई की कलाकृति '11 मूर्तियों' का अनावरण का उद्देश्य है स्वतंत्रता संग्राम के महान नायकों की चेतना और स्मृति को पुनर्जीवित करने का सबसे शक्तिशाली प्रयास.

23 मार्च 1930 से 6 अप्रैल 1930 के बीच आयोजित ऐतिहासिक दांडी यात्रा गांधी जी की एक सोची समझी रणनीति थी, जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में निर्णायक साबित हुई. 1930 की दांडी यात्रा ने नमक अधिनियम 1882 के खिलाफ भारतीय जनता को लामबंद किया. ओड़िशा की धरती और ओड़िया जाति के लिए यह बहुत गर्व की बात है कि 1930 में गांधीजी के इस ऐतिहासिक मार्च में भाग लेने का विरल अवसर ओड़िया युवा मोतीवास दास को भी मिला था.

कोसल प्रांत की वीरता का इतिहास प्रथम स्वाधीनता संग्राम से भी पुराना है. संबलपुर मिट्टी के वीरवर सुरेंद्रर साय ने भारत को पराधीनता की बेड़ियों से आजाद कराने का सपना 1857 के सिपाही विद्रोह से 30 साल पहले 1827 में ही देख लिया था. वीर सुरेंद्रर साय ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष शुरू किया. उनका सशस्त्र संघर्ष भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का शुरुआती अन्यतम संघर्ष था. सन 1840 में वीर सुरेंद्रर साय को कैद कर हजारीबाग जेल में डाल दिया गया परंतु सन 1857 में नाटकीय रूप से जेल के सीखचे तोड़कर उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ फिर से संबलपुर क्षेत्र में सशस्त्र संघर्ष शुरू कर दिया. उनके नेतृत्व को गोंड, बिंझाल और कई गांवों के जमींदारों और गौंतियों का समर्थन प्राप्त था.

घेँस के जमींदार माधो सिंह ने वीर सुरेंद्रर साय के सशस्त्र संघर्ष को अटूट समर्थन और सहयोग दिया. माधो सिंह और उनके परिवार हटी सिंह, अरी सिंह, कुंजल सिंह, बैरी सिंह का वीरतापूर्ण संघर्ष भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की अनूठी कहानी है. घेँस के वीर जवानों ने सिंघौदा घाटी को ब्रिटिश सेना के पहुँच से बाहर कर दिया था . वीर सुरेंद्रर साय के गुरिल्ला युद्ध में इन वीरों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. माधो सिंह का पूरा परिवार ब्रिटिश आक्रोश का शिकार हुआ. हटी सिंह को उम्र कैद की सजा सुनाकर अंडमान भेज दिया गया. वह ओड़िशा से अंडमान भेजे जाने वाले योद्धाओं में से अग्रगण्य थे.

बरगढ़ के पास बारपहाड़ के घने जंगलों में स्थित डेब्रीगढ़ सशस्त्र संग्राम का अन्यतम मूकसाक्षी है. लखनपुर के जमींदार बलभद्र सिंहदेव के पुत्र कमल सिंहदेव और उनके सहयोगियों के साहसी सशस्त्र संघर्ष ने ब्रिटिश सरकार को झकझोर कर रख दिया. वर्तमान बरगढ़ जिले के पाणिमोरा, समलेइपदर, डेब्रीगढ़, घेँस और ओड़िशा के सीमांत पर स्थित सिंघोड़ा घाटी स्वतंत्रता संग्राम का प्रमुख स्थल थी. ये स्थान ओड़िशा के स्वतंत्रता सेनानियों के रग-रग में शौर्य को प्रतिबिंबित करता है.

पश्चिम ओड़िशा के महान क्रांतिकारी एवं स्वतंत्रता सेनानियों को शत-शत नमन!!!
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