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महाभारत को जातिवादी चुनाव में न घसीटें

महाभारत को  जातिवादी चुनाव में न घसीटें नई दिल्ली: हत्वो वा प्राप्स्यसि  स्वर्ग  जित्वावा  भेक्ष्यसे महीम्
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिष्चयः

या तो तू मारा जा कर स्वर्ग को भोगेगा या संग्राम में जीतकर पथ्वी का राज्य भोगेगा। असल में गीता का यह श्लोक कृष्ण के द्वारा अर्जुन के लिए कहा गया है, जब वे  अपने अधिकारों  और आत्म सम्मान  की रक्षा के लिए अपने सगे संबंधियों से लड़ने की बात कर रहे है। जातिवाद तो इस युद्ध में कहीं नजर नहीं आता। 

पूरा महाभारत जातिवाद के खिलाफ है। अपने सम्मान के लिए किसी से युद्ध करने की बात कही गई  है। इसलिए वर्तमान भारतीय चुनाव को महाभारत से तुलना करना ही विश्व के महान महाकाव्य की मर्यादा को समझ नहीं पाने के बराबर है।

यदि महाभारत की महानता पर गंभीरता के साथ विचार करें तो उसकी  भव्यता के सामने विश्व की किसी भी भाषा की कोई रचनात्मक कृति सामने नहीं आतीं लेकिन भारतीय मानसिकता ही ऐसी है कि जब तक उससे किसी प्रकार का कोई  लाभ नहीं दिखे तो अपने देश और देश की उपलब्धियों पर गौरव बहुत कम होता है।

इसलिए उत्तर भारत में आज तक महाभारत की प्रति को घर में नहीं रखने की हिदायत दी जाती है। उसकी एक भी प्रति घर में रखने से घर में कलह की संभावना पैदा हो जाती है।

ऐसा अंधविश्वास आज भी जीवित है क्योंकि महाभारत पाठकों को यथार्थवादी दृष्टि देता है और हम चीजों को असली रुप में देखने की हिम्मत नहीं रखते है क्योंकि हम उन्हीं मूल्यों नैतिक मूल्यों में आस्था  रखते हैं जो अच्छा लगता है। और सत्य का असर कड़वा होता है।

जीवन के इस कड़वेपन के सत्य को हमेशा  स्वीकार करने से कतराते रहे है। इसलिए हमारी मानसिकता महाभारत के सच को स्वीकारने से कतराता रहता है। जो बीमारियां हमें प्रदूषित सुस्वादु भोजन  से मिलती हैं उनकी ओर ध्यान नहीं जाता, ऐसा भोजन अच्छा लगता हैं। इसलिए महाभारत के सामाजिक सच को स्वीकारने में हमें डर लगता है।

यही कारण है कि महाभात के साहित्यिक और सामाजिक सत्य को अनदेखा करते रहे है। तभी तो हम आज भ्रष्ट देश  के जात-पात पर आधारित चुनाव की तुलना महाभारत से कर रहे हैं जबकि उस कालजयी महाकाव्य की परिस्थितियों की तुलना आज के प्रजातांत्रिक चुनाव से हो ही नहीं सकती।  

महाभारत की गीता के 700 श्लोक का अध्ध्यन करें तो साफ साफ लिखा है कि है ‘‘यदि आजादी और अधिकार को कोई भी व्यक्ति छीनता है तो उसके लिए संघर्ष करो । इस संधर्ष में भले ही तुम्हारी मौत हो जाए तो वह मरना वीर गति को प्राप्त होने  जैसा है और यदि अपने अधिकारों  की रक्षा के लिए तुम अपने  पितामह ,या बंधु को मार डालते हो तो वह सुख और  यश  का व्यक्ति हकदार है।’’

महा भारत में कहीं जात पात नहीं है। वह अपने सगे संबंधियों के बीच  अपने अधिकार का युद्ध है। वहां स्रे दादा और पोते के बीच का युद्ध है। आज के भारतीय चुनाव की तरह जो कि पूरी तरह जातिवादी राजनीति पर आधारित है इसके विपरीत है।  इसलिए महाभारत को चुनावी महाभारत की संज्ञा देना बहुत अखरता हैं।

दूसरी बात यह कि महाभारत काल में प्रजातंत्रात्मक व्यवस्था नहीं थी। वह काल राजा महाराजाओं का था जिसमें जनता को दास के रुप में इस्तेमाल किया जाता था। उस व्यवस्था को आज की व्यवस्था से जोड़ कर देखा नहीं जा सकता। तीसरी बात यह कि वह महाभारत रक्त रंजित था जिसमें लाखों लोग मारे गए थे। 

लाखों स्त्रियां विधवा हुई थी। लेकिन भारत के चुनाव में प्रतिद्वंद्वियों की हत्या की इजाजत नहीं है। किसी भी रुप में देखा जाय तो प्रजातांत्रिक चुनाव के संदर्भ में महाभारत शब्द का इस्तेमाल कहीं से उचित नहीं लगता।
राधेश्याम तिवारी
राधेश्याम तिवारी लेखक राधेश्याम तिवारी हिन्दी व अग्रेज़ी के वरिष्ठतम स्तंभकार, पत्रकार व संपादकों में से एक हैं। देश की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में आपके लेख निरंतर प्रकाशित होते रहते हैं। फेस एन फैक्ट्स के आप स्थाई स्तंभकार हैं। ये लेख उन्होंने अपने जीवनकाल में हमारे लिए लिखे थे. दुर्भाग्य से वह साल २०१७ में असमय हमारे बीच से चल बसे

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