रेल संचालन की दिक्कतों ने निकाली जाट आंदोलन की हवा

जनता जनार्दन संवाददाता , Apr 11, 2011, 13:08 pm IST
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रेल संचालन की दिक्कतों ने निकाली जाट आंदोलन की हवा हाल में विख्यात समाजसेवी अन्ना हजारे ने जन लोकपाल विधेयक को लेकर नयी दिल्ली में जंतर मंतर पर आमरण अनशन करके महज चार दिन में सरकार को झुका दिया। उनको देश भर से व्यापक जनसमर्थन भी हासिल हुआ। लेकिन कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश, हरियाणा और कुछ अन्य हिस्सों में रेलों का संचालन ठप्प करने के बावजूद जाट आरक्षण के सवाल पर न तो जनसमर्थन हासिल कर सके न ही सरकार ने उनकी मांगों को माना। अपनी मांगों के लिए शांतिपूर्ण आंदोलन करने की स्वतंत्रता भारतीय संविधान द्वारा सबको दी गयी है। महात्मा गांधी जी ने अंग्रेजी राज के खिलाफ आंदोलन चलाते समय हमेशा इस बात का ख्याल रखा था कि उससे कभी आम जनता को कोई असुविधा न होने पाए। पर हाल के वर्षों में आंदोलनों के तौर-तरीके बदलते जा रहे हैं। कभी रेलों का संचालन ठप कर देना तो कभी राजमार्गो पर धरना देना यह आंदोलन का बड़ा हथियार बनता जा रहा है। इससे सरकार की सेहत पर कुछ फर्क पड़ता हो या न हो पर आम लोगों को सबसे ज्यादा तकलीफ होती है। रेलगाडिय़ां खास तौर पर आंदोलनों का निशाना बन रही हैं। रेल संचालन की बाधाओं से जहां एक ओर रेलवे प्रशासन को काफी नुकसान उठाना पड़ रहा है, वहीं आम लोगों को भी बहुत कठिनाइयों के साथ आर्थिक क्षति उठानी पड़ती है।

25 फरवरी 2011 को रेल बजट प्रस्तुत करते समय रेल मंत्री सुश्री ममता बैनर्जी ने आए दिन होने वाली तोड़ फोड़, आगजनी, जाम, उग्रवादी हमलों तथा जन आंदोलनों का खास तौर पर उल्लेख किया था और राज्य सरकारों के समक्ष एक अनूठी पेशकश की थी। उनका कहना था कि जो राज्य सरकार अपने इलाके में पूरे साल बिना किसी बाधा के रेल संचालन में मदद करेगी उसे दो अतिरिक्त परियोजनाओं का तोहफा मिलेगा। कई जगहों पर होने वाले रेल रोको आंदोलनों से रेलवे को भारी क्षति हो रही है। अप्रैल से दिसंबर 2010 के दौरान 115 मामलों में रेलवे को भारी नुकसान उठाना पड़ा। उस दौरान 1500 यात्री गाडियों को स्थगित करना पड़ा और 1500 को डाइवर्ट करके चलाना पड़ा। इसी तरह रेल बजट पर चर्चा के दौरान रेल मंत्री ने कहा था कि चूंकि रेलें हर जगह साक्षात दिख जाती हैं इस लिए उस पर लोग गुस्सा उतारते हैं। यह प्रवृत्ति ठीक नहीं है। कितने जतन से लोग बाग यात्रा के लिए घर से बाहर निकलते हैं लेकिन आंदोलनकारियों को उनका दुख दर्द समझ में नहीं आता है।

लेकिन रेलों या सडक़ों को निशाना बनाते हुए अपनी राजनीति चमकाने वालों को भला आम लोगों की फिक्र कहां है? ऐसा होता तो कम से कम वे बार-बार ऐसी गलती नहीं दोहराते। रेल या सडक़ जाम कर देना आंदोलनों में फैशन की शक्ल लेता जा रहा है। मार्च 2011 की शुरूआत में दक्षिण भारत में रेल सेवाएं बुरी तरह प्रभावित रहीं। पृथक तेलंगाना राज्य की मांग मनवाने के लिए रेलों को निशाना बनाया गया। तेलंगाना राष्ट्र समिति के अध्यक्ष एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री चंद्रशेखर राव ने अपने समर्थकों को 1 मार्च को सुबह 6 बजे से सायं 6 बजे तक गावों और शहरों में रेल पटरियों को अपने कब्जे में लेकर उन पर धरना देने का निर्देश देकर बुरी हालत खड़ी कर दी। उनका कहना था कि रेलों को पूरी तरह जाम कर देने का मतलब केंद्र सरकार को जगाना है। आंदोलन में भाजपा और तेलुगू देशम पार्टी भी मददगार बनी। तेलंगाना के समर्थन में ग्रामीण अपने जानवरों तथा बैलगाड़ी के साथ रेल पटरियों पर काबिज हो गए। इस आंदोलन के चलते 25 एक्सप्रेस ट्रेनों को रद्द करना पड़ा और उत्तर भारत के एक बड़े इलाके से दक्षिण का संपर्क टूट सा गया।

इस घटना में रेल प्रशासन संभल भी नहीं पाया था कि 5 मार्च 2011 को रेल पटरियों पर ही जाटों का आंदोलन शुरू हो गया और 19 मार्च तक लाखों यात्रियों को बड़ी नारकीय स्थिति से गुजरना पड़ा। कई गाडिय़ां तो 20-20 घंटे बिलंब से चलीं। जाटों ने मुरादाबाद से 45 किमी दूर गजरौला और अमरोहा के बीच स्थित काफूरपुर नामक छोटे से स्टेशन को अपना निशाना बनाया,जहां से रोज 85 रेलगाडिय़ां गुजरती हैं। दिल्ली-लखनऊ के व्यस्त रेल मार्ग पर स्थित काफूरपुर स्टेशन पर जाटों के धरने को उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार का समर्थन था। लेकिन काफूरपुर में न तो प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री बैठते हैं, न कोई बड़ा प्रशासनिक अधिकारी, जो जाटों की मांग को पूरा कर सकता है। उनको धरना ही देना था तो दिल्ली में जंतर मंतर पर देते। तब शायद उनको जनसमर्थन भी मिलता। लेकिन लाखों रेल यात्रियों को तकलीफ देकर उनकी होली के त्यौहार में भंग डाल देने वालों को भला कैसे समर्थन मिल सकता था।

जाटों के आंदोलन से एक पखवारे तक रेलों के संचालन में बहुत अधिक बाधा आयी। लखनऊ मेल जैसी रेल गाड़ी जो बड़ी दुर्घटनाओं में भी निरस्त नहीं होती थी और जिसके समयपालन का अनूठा रिकार्ड रहा था, रेल प्रशासन को उसे भी रद्द करना पड़ा। इसी तरह दिल्ली-जयपुर रेल मार्ग भी खासा प्रभावित हुआ। जाट आंदोलन के चलते 1424 ट्रेन प्रभावित हुईं और 706 निरस्त। बदली राह से 369 गाडिय़ां चलीं जबकि बीच राह में 349 रद्द हुईं। अकेले उ.प्र.के आंदोलन से ही 100 करोड़ की चपत लगी और माल यातायात बुरी तरह प्रभावित हुआ। हरियाणा और पंजाब भी रेल यातायात बुरी तरह प्रभावित रहा और उत्तर रेलवे को करारी चपत लगी।

जाटों के आंदोलन की आंच से उत्तर प्रदेश ही नहीं राजस्थान और हरियाणा भी प्रभावित रहा। सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग कर रहे जाटों को उत्तर प्रदेश में जहां मायावती सरकार का समर्थन मिल रहा था वहीं हरियाणा में भूपिंदर सिंह हुड्डा सरकार का। देश में जाट 13 राज्यों में हैं और उनकी कुल संख्या आठ करोड़ के आसपास है। हालांकि उनकी सामाजिक और आर्थिक हैसियत ऐसी है कि उनको कोई आरक्षण नहीं दिया जाना चाहिए लेकिन 1999 में राजस्थान और दिल्ली, 2000 में उत्तर प्रदेश, 2001 में म.प्र. तथा 2003 में हिमाचल में आरक्षण दे दिया गया, पर जम्मू कश्मीर, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब तथा हरियाणा में उनको आरक्षण नहीं मिला। यह आंदोलन केंद्रीय सेवाओं में आरक्षण को लेकर था। जाट आरक्षण संघर्ष समिति ने 14 जून 2010 को मुरादनगर में गंग नहर का पानी दिल्ली जाने से रोकने के अलावा 63 जगहों पर जाम भी लगाया था। कामनवेल्थ खेलों में भी उन्होंने बवाल करने का प्रयास किया था पर बाद में अपना कदम वापस ले लिया।

वोट बैंक के नाते इस बार के आंदोलन में खूब राजनीतिक दांव-पेंच भी चले और जाट नेता यशपाल मलिक की भी खासी फजीहत हुई। उत्तर प्रदेश सरकार बाल केंद्र के पाले में डालते हुए कहा कि सरकारी नौकरियों में जाटों को आरक्षण देने का अधिकार केंद्र सरकार के पास है। प्रदेश सरकार ने केंद्रीय गृह मंत्री को पत्र लिख कर मामले को जल्द निस्तारण करने की मांग की। मायावती सरकार ने समर्थन दिया जिसके कारण उनका हौंसला और बढ़ गया। लेकिन वोट बैंक के गणित के नाते कई दलों ने मौन साधे रखना ही बेहतर समझा । पश्चिमी उ.प्र.में ताकतवर राष्ट्रीय लोकदल तथा भारतीय किसान यूनियन ने इस आंदोलन से दूरी बना ली पर आरक्षण का समर्थन किया।

जाट आंदोलन को जन समर्थन नहीं मिला। आंदोलन के तौर तरीकों पर खुद जाट नेताओं ने ही कई सवाल खड़े किए। रालोद मुखिया चौधरी अजित सिंह ने कहा कि जिस तरह से जाट आंदोलन चला, उससे नौसिखिए नेताओं की भद्द पिट गयी है। आंदोलनकारियों के पक्ष में जनता खड़ी नहीं हुई। अजित सिंह का कहना था कि जाट आंदोलन मायावती द्वारा प्रायोजित था और सरकार ने ही उनको उकसाया और भडक़ाया। लोकतंत्र में सबको अपनी बात कहने का अधिकार है, चक्का जाम एक दिन के लिए किया जाता है ताकि संदेश सरकार और आम जन तक पहुंच जाये। मगर किसी को यह अधिकार नहीं है कि वह आम लोगों के लिए समस्याएं खड़ी करे। हाईकोर्ट के निर्देश के बाद प्रदेश के एक मंत्री के कहने भर से जाटों ने रेल पटरियां खाली कर दीं। इसी तरह रालोद सांसद जयंत चौधरी ने भी रेल यातायात बाधित करने के तरीके पर आपत्ति जतायी और कहा कि यह अनुचित है। अखिल भारतीय जाट महासभा के महासचिव युद्धवीर सिंह ने कहा कि चौ.चरण सिंह का अनुयायी होने के नाते हम मानते हैं कि जो सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचा रहा है, वह राष्ट्रद्रोह का काम कर रहा है। हमने बिना किसी पर पत्थर फेंके, बिना सडक़ और रेल रोके अपनी राजनीतिक ताकत पर आरक्षण दिलाया है।

जाटों का यह आंदोलन भी इलाहाबाद हाईकोर्ट की सख्ती के नाते समाप्त हुआ, अन्यथा वे महीनों रेल पटरी पर काबिज रहने का मंसूबा बांधे हुए थे। यह आंदोलन 19 मार्च को इलाहाबाद हाईकोर्ट के सख्त आदेश के बाद समाप्त हुआ। हाईकोर्ट ने उ.प्र. के पुलिस प्रमुख को आदेश दिया कि तत्काल कार्रवाई करके पटरी खाली करायी जाये और रेलों के सुचारू संचालन के लिए पूर्ण सुरक्षा मुहैया करायी जाये। हाईकोर्ट ने कहा कि नागरिकों को जिन कठिनाइियों का सामना करना पड़ा है, अदालत इसे देख कर मूकदर्शक नहीं रह सकती है। यह राज्य सरकार का दायित्व है कि वह सामान्य स्थिति बहाल करे और सुचारु रूप से रेल संचालन सुनिश्चित करे। अदालत ने यह चेतावनी भी दी थी कि अगर बाधित यातायात न शुरू हुआ तो इसके लिए स्वयं अधिकारी ही जिम्मेदार होंगे। इसी तरह हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने भविष्य में ऐसी घटनाओ को रोकने के लिए राज्य सरकार से दिशानिर्देश जारी करने को भी कहा और रेल पटरियों और सडक़ जाम करने वालों पर रासुका लगाने की भी वकालत की।

उ.प्र. की मुख्यमंत्री मायावती ने आंदोलन समाप्त हो जाने के बाद कहा कि रेल लाइन पर चले लंबे धरने के लिए केंद्र सरकार ही जिम्मेदार है। केंद्र ने उत्तर प्रदेश सरकार को वार्ता से अलग रखा। इसी तरह राज्य सरकार ने आंदोलनकारियों को रेल लाइन से हटाने के लिए अर्धसैनिक बलों की 50 कंपनियां मांगी थी जिसका आज तक जवाब नहीं मिला। हालांकि मुख्यमंत्री के पास इस बात का जवाब नहीं है कि बिना केंद्रीय मदद के ही कैसे जाटों को रेलों की पटरियों से हटा दिया गया। दिलचस्प बात यह भी है कि हाई कोर्ट के आदेश के कुछ ही समय बाद उ.प्र. में वन निगम के उपाध्यक्ष विनोद कुमार तेजियान ने जब प्रोन्नति में कोटा बहाली की मांग को लेकर देहरादून-बांद्रा एक्सप्रेस को दो घंटे रोक दिया तो उनसे नाराज मुख्यमंत्री मायावती ने उन्हें बर्खास्त करके जेल भिजवा दिया और उनका राज्यमंत्री का दर्जा समाप्त कर दिया गया। यह कैसा दोहरा व्यवहार है।

उत्तर प्रदेश जैसी कहानी हरियाणा में भी दोहराई गयी। हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा ने तो जाटों के ओबीसी में शामिल करने की मांग पर पूरा समर्थन दी दे दिया और उदारता बरती। इसी तरह पंजाब में भी जाटों को आरक्षण के मामले को लेकर रेल पटरियों को जाम करने का प्रयास हुआ। पंजाब में जाट सिखों को भी आरक्षण देने की मांग उठी। हरियाणा में रेल संचालन इतना प्रभावित रहा कि राजीव गांधी मेगा थर्मल प्लांट हिसार को बंद कर देना पड़ा। रेलों के ठप होने से कोयला आपूर्ति बाधित हो गयी और कई इलाकों में बिजली संकट खड़ा हो गया। उस दौरान छात्रों का इंतहान भी चल रहा था पर पटरियों पर डटे लोगों को इसकी चिंता कहां थी? हरियाणा में भी एक पखवारे बाद रेल सेवाएं बहाल हो सकीं। जींद, भटिंडा, कुरुक्षेत्र जैसा बेहद महत्वपूर्ण रेल मार्ग पूरी तरह से ठप रहा। जाट आरक्षण समिति तथा मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा के बीच में लंबी वार्ता के बाद प्रदेश में पिछड़ा वर्ग आयोग गठित करने की घोषणा हुई जिसके बाद आंदोलन खत्म हुआ। उन्होंने जाटों की मांगो पर विचार के लिए अन्य पिछड़ा वर्ग में जाट, रोड, त्यागी विश्नोई तथा जट सिखों को शामिल करने का प्रस्ताव रखने की बात कही। इसके पहले श्री हुड्डा यह कह रहे थे कि हरियाणा सरकार ने जाट आरक्षण के लिए केंद्र सरकार को पत्र लिखा है। आंदोलनकारी केंद्र में जाकर इसकी पैरवी करें।

हरियाणा में रेल सेवाएं मिर्चपुर कांड को लेकर चले आंदोलन में भी बुरी तरह प्रभावित हुईं। उल्लेखनीय है कि ऊंची जाति के 98 लोगों पर पुलिस द्वारा की गयी कार्रवाई के खिलाफ खापों द्वारा बीते दिसंबर और जनवरी माह में रेलों की पटरियों पर कब्जा करके आंदोलन चलाया गया था। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने तीखी टिप्पणी करते हुए कहा था कि चाहे राजस्थान का गुर्जर आंदोलन हो या हरियाणा का मिर्चपुर कांड किसी न किसी कारण से आए दिन रेल और सडक़ जाम किए जा रहे हैं। ऐसी घटनाओं पर सरकार की निष्क्रियता बहुत खतरनाक है। हम अराजकता की ओर बढ़ रहे हैं और ताकतवर लोगों का समूह राज्य को बंधक बना रहा है। हम किसी समुदाय से ऐसे व्यवहार को बर्दास्त नहीं कर सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राज्य सरकार को सख्त कदम उठाने चाहिए। ताकतवर लोग कानून से ऊपर नहीं हो सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने मिर्चपुर कांड में खापों द्वारा रेल पटरी जाम करने वालों का नाम पूंछते हुए हरियाणा सरकार से जानना चाहा था कि क्या कार्रवाई की गयी।

राजस्थान में किरोड़ीमल बैसला के नेतृत्व में पांच प्रतिशत आरक्षण की मांग को लेकर चले गुर्जर आंदोलन के चलते 2007, 2008 और 2010 में रेल संचालन को भारी मुसीबतों का सामना करना पड़ा। सडक़ यातायात भी बहुत प्रभावित रहा और 70 लोगों की जान जाने के साथ करोड़ों की रेल संपत्ति का नुकसान हुआ। विभिन्न क्षेत्रों में जरूरी चीजों की सप्लाई रुक गयी थी और काफी दिक्कतें आयी थीं। उस दौरान दिल्ली-जयपुर, दिल्ली मुंबई तथा जयपुर-मुंबई मार्ग बुरी तरह प्रभावित रहा।

जून 2010 के बाद कश्मीर घाटी में ही रेलवे को आतंकवादी हरकतों के कारण करीब 100 करोड़ रुपए का नुकसान उठाना पड़ा। इसी तरह पूर्वोत्तर और असम में गणतंत्र दिवस तथा स्वाधीनता दिवस के पूर्व रेलों का सहज संचालन कठिन हो जाता है और सुरक्षा पर भारी राशि व्यय होती है। इस बार भी पूर्वोत्तर में विद्रोहियों ने हिंसा फैलाने की भरसक कोशिस की थी। इसी नाते सुरक्षा कारणों से 30 जनवरी 2011 तक इस क्षेत्र में रात में रेल सेवाओं को ही बंद कर देना पड़ा।

रेल प्रशासन को उत्तरी और दक्षिणी कश्मीर को जोडऩे वाली 119 किमी लंबी पटरियो पर भारी संख्या में सुरक्षा बलों को तैनात करने को विवश होना पड़ा। 7 मार्च 2011 को आतंकवादियों ने रेल पटरी के एक हिस्से को बम से उड़ा दिया था जिसके बाद जम्मू कश्मीर सरकारी रेलवे सुरक्षा बल के 1100 से अधिक जवानों को पटरियों की सुरक्षा के लिए तैनात करना पड़ा। इसी के साथ ही आरपीएफ तथा आरपीएसएफ के जवानों की भी तैनाती की गयी। वे बंकरों के निर्माण के साथ कई जगह टावरों से भी पटरी की निगरानी की जा रही है। बीते वर्ष 1500 करोड़ रुपए का नुकसान रेलवे को गुर्जर आंदोलन से हुआ जबकि 500 करोड़ का नुकसान नक्सलियों से। कई क्षेत्रों में नक्सलियों द्वारा रेलों को निशाना बनाया जा रहा है। राज्य सरकारों की उदासीनता के नाते इन इलाकों में स्थितियां बिगड़ती जा रही हैं।

रेलों की पटरियों पर कब्जा करके आंदोलन के बहाने सुर्खियां बटोरनी की बढ़ती प्रवृत्ति बेहद खतरनाक है। हाल के वर्षों में रेल यातायात का परिदृश्य भी बदल रहा है। 29 मार्च 2011 को भारतीय किसान मजदूर फाउंडेशन ने सुल्तानपुर में स्थानीय समस्याओं को लेकर रेलवे ट्रैक बाधित कर दिया और पटरियों पर कब्जा कर दिया जिसके चलते कई रेलगाडिय़ों का आवागमन बाधित हो गया। हालांकि जिलाधिकारी और पुलिस प्रसशान की सतर्कता से बातचीत करके रास्ता निकाल लिया गया और पांच घंटे में ट्रैक खाली हो गया। पर अगर ऐसा न होता तो संभव है कि कई दिनों तक रेल सेवाएं बाधित हो सकती थीं।

भारतीय रेल विश्व की सबसे बड़ी रेल प्रणालियों में गिनी जाती है। भारतीय रेल पर रोज चलने वाली 13 हजार रेलगाडिय़ां, इसके 64,000 किलोमीटर से अधिक लंबे नेटवर्क पर 14 लाख कर्मचारियों की बदौलत रात दिन चलती हैं। भारतीय रेल 7083 स्टेशनों को जोड़ती है और रोज  भारतीय रेल 2.20 करोड़ मुसाफिरों को गंतव्य तक पहुंचाती है और रोज 2.5 मिलियन टन माल ढोती है। रेलवे यात्रियों के लिए अनुकूल, सुरक्षित और यातायात का सस्ता साधन है। रेल किराए सडक़ों की तुलना में एक चौथाई हैं। यात्री गाडिय़ां हमारी कुल गाडिय़ों का 70 प्रतिशत के करीब हैं, पर राजस्व में उनका योगदान 35 प्रतिशत से कम है, जबकि माल गाडिय़ां 30 प्रतिशत होने के बावजूद कुल राजस्व में 65 प्रतिशत का योगदान देती हैं। फिर भी आम लोगों के सरोकारों के आलोक में यात्री गाडिय़ों को प्राथमिकता दी जाती है। यानि ऐसे आंदोलनों में सबसे ज्यादा शिकार यात्री गाडिय़ां ही बनती हैं। इतने लंबे रेल नेटवर्क को अपने सुरक्षा तामझाम के सहारे तो रेलवे चला नहीं सकती है। राज्यों के जिम्मे कानून व्यवस्था को नियंत्रित करना है और ऐसा लगता है कि कई जगहों पर वे फेल हो रहे हैं। इस नाते चुनौतियां लगातार बढ़ रही हैं।

यह खुशफहमी देने वाली खबर है कि भारतीय रेल का सुरक्षा रिकार्ड लगातार बेहतर हो रहा है। 1960-61 से 2005 तक 80 प्रतिशत की गिरावट आयी, जबकि इसी दौरान यात्री यातायात में 535 प्रतिशत तथा माल यातायात में 360 प्रतिशत बढ़ोत्तरी हुई है। हर साल 50 लाख गाड़ी चलती है जिसमें से महज 400 दुर्घटना होती है। 2010-11 में रेल दुघर्टना दर घर कर 0.17 प्रतिशत रही। पर प्रदर्शनों, हड़तालों और बंद की वजह से रेलवे को काफी खामियाजा उठाना पड़ा। ऐसी हालत में भला रेलगाडिय़ों का बेहतर संचालन कैसे हो सकता है। केंद्र और राज्य सरकारों ने अगर इस दिशा में गंभीरता से प्रयास नहीं किया तो आगे काफी कठिनाइयां आ सकती हैं और यह कठिनाइयां संचालकों से भी अधिक मुसाफिरों के खाते में आएंगी।
अरविंद कुमार सिंह
अरविंद कुमार सिंह 7 अप्रैल 1965 को उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में जन्मे अरविंद कुमार सिंह ने पत्रकारिता और लेखन की दुनिया में बड़ा नाम कमाया है। पत्रकारिता की शुरूआत 1983-84 में दैनिक जनसत्ता से। चौथी दुनिया, अमर उजाला, जनसत्ता एक्सप्रेस, इंडियन एक्सप्रेस (लखनऊ संस्करण) तथा दैनिक हरिभूमि में लंबे समय तक कार्य। आकाशवाणी, दूरदर्शन, लोकसभा टीवी और कई अन्य टीवी चैनलों पर नियमित विषय विशेषज्ञ । दिल्ली सरकार की प्रेस मान्यता समिति समेत कई समितियों के सदस्य भी रहे। विभिन्न विश्वविद्यालयों में अतिथि प्राध्यापक और परीक्षक। 'भारतीय डाक: सदियों का सफरनामा' पुस्तक हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू तथा कई भारतीय भाषाओं में एन.बी.टी. द्वारा प्रकाशित। पुस्तक का एक खंड एनसीईआरटी द्वारा आठवीं कक्षा के हिंदी पाठ्यक्रम में। हिंदी अकादमी द्वारा साहित्यकार सम्मान (पत्रकारिता), इफ्को हिंदी सेवी सम्मान-2008, विद्याभाष्कर पुरस्कार, गणेश शंकर विद्यार्थी स्मृति समाजोत्थान और रचनात्मक पत्रकारिता पुरस्कार समेत दर्जन भर पुरस्कारों से सम्मानित।

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