कहानी, कितनी हकीकत कितना फसाना

कहानी, कितनी हकीकत कितना फसाना

पिछला साल विद्या बालन के नाम रहा। 'नो वन किल्ड जेसिका' में उनकी ऐक्टिंग को हर किसी ने सराहा। पिछले साल की यह पहली ऐसी फिल्म थी जिसने दो नायिकाओं के दम पर बॉक्स ऑफिस पर राज किया। इसी साल ' द डर्टी पिक्चर 'को मिली कामयाबी ने विद्या को बॉक्स ऑफिस की रानी का तमगा दिया।

इन फिल्मों की कामयाबी का सेहरा जब विद्या के सिर बंधा तो उनके नाम के साथ एक नया ' वन वुमन आर्मी ' का तमगा जुड़ गया। अपनी इस फिल्म में विद्या ने एकबार फिर बेहतरीन अदाकारी की। बॉलिवुड फिल्मों में अक्सर हीरोइन को शोपीस बनाकर पेश किया जाता रहा है।

एक कहानी में कितनी सच्चाई और कितनी कल्पना होती है? क्या एक कहानी पूरी तरह से सच हो सकती है? या फिर क्या एक सच असल में कहानी हो सकता है? जितने उलझे हुए ये सवाल हैं लगभग उतने ही उलझे हुए ताने-बाने हैं इस फिल्म की कहानी के। लेकिन जब ये खुलते हैं तो सब सुलझ जाता है। आप इसे देख कर खाली हाथ नहीं लौटते हैं और यही एक कहानी की सफलता है कि जब आप कुछ पढ़ें या देखें तो आपको कुछ हासिल हो।

जल्द मां बनने जा रही विद्या बागची (विद्या बालन) अपने गुमशुदा पति अर्णब बागची की तलाश में लंदन से कोलकाता आई है। एक पुलिस अफसर की मदद से वह उस ऑफिस, गेस्ट हाऊस और उन तमाम जगहों पर उसे तलाशने की कोशिश करती है, जिनका अर्णब ने जिक्र किया था। लेकिन कहीं से कोई सुराग नहीं मिलता।

बल्कि हर कोई उसे यह यकीन दिलाने पर आमादा है कि इस नाम का कोई शख्स कभी था ही नहीं। मगर कोई है जिसकी शक्ल अर्णव से मिलती है और जैसे-जैसे विद्या उसके करीब पहुंचने की कोशिश करती है एक-एक करके लाशें गिरने लगती हैं। आखिर कौन है यह शख्स और कौन है अर्णव? क्यों विद्या को इन तक पहुंचने से रोका जा रहा है और कौन कर रहा है ये सब? इन तमाम सवालों के जवाब आखिर में मिलते हैं तो इस पूरी कहानी का सच चौंका देता है।

किसी भी फिल्म की कहानी और पटकथा उसकी नींव होती है और इस फिल्म की यह नींव बेहद मजबूत है। सस्पेंस, थ्रिल, ड्रामा और सब कुछ बेहद सहज अंदाज में-अपनी फिल्मों में यह सुखद संयोग कम ही दिखाई देता है। स्क्रिप्ट को बहुत ही कायदे के साथ फैलाया गया है और एक ऊंचाई पर ले जाकर उसे समेटा गया है। बतौर लेखक यह सुजॉय घोष की सफलता है तो बतौर निर्देशक उन्होंने जिस खूबी से इसे फिल्माया है वह उन्हें एक पुख्ता मकाम पर ले जाती है। फिल्म की लोकेशंस इसे और निखारती हैं।

कोलकाता शहर को एक किरदार बना कर किसी फिल्म में इस्तेमाल करने की कोई मिसाल इधर हाल के बरसों में तो नजर नहीं आती। कोलकाता की सड़कें, उसकी गलियां, वहां का ट्रैफिक, दुर्गा पूजा का माहौल, इन सबको उसकी जीवंतता के साथ कैमरे में कैद करने के लिए सिनेमॉटोग्राफर सेतू भी तारीफ के हकदार हो जाते हैं।

विद्या बालन ने अपने हर रोल से जैसे दो कदम आगे बढ़ने की ठान ली है। अपने रोल को उन्होंने बेहद सहजता से निभाया है। प्रमब्रत चट्टोपाध्याय कमाल के कलाकार हैं। बाकी सबका काम भी असरदार रहा है,चाहे वह नवाजुद्दीन सिद्दीकी हों या फिर महज तीन सीन में नजर आए दर्शन जरीवाला।

सच तो यह है कि इस फिल्म के तमाम किरदारों को इस सफाई से लिखा गया है कि इनमें नजर आ रहे चेहरे कलाकारों के नहीं बल्कि उन किरदारों के ही लगने लगते हैं। यहां तक कि चार सीन में आने वाला एक बाल-कलाकार भी जेहन पर असर छोड़ता है। गानों की जरूरत इस कहानी में काफी कम थी और इनके मोह से बचा भी गया है। गैरजरूरी मसालों के बिना बस कहीं-कहीं सिनेमाई छूट लेती यह फिल्म देखना एक शानदार अनुभव है, जिसे मिस करना सही नहीं होगा।

कलाकार: विद्या बालन, प्रमब्रत चट्टोपाध्याय, इंरदनील सेनगुप्ता
निर्माता: सुजॉय घोष, कुशाल गाड़ा
निर्देशक: सुजॉय घोष
संगीत: विशाल-शेखर
गीत: विशाल, अन्विता दत्त, संदीप श्रीवास्तव

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