लोगों के गुस्से से ड़रो, ये गुस्सा भड़क गया तो क्या होगा

जनता जनार्दन संवाददाता , Dec 24, 2011, 16:16 pm IST
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लोगों के गुस्से से ड़रो, ये गुस्सा भड़क गया तो क्या होगा

हिसार में चोट खाई कांग्रेस बदले के मूड में है। वो अन्ना की टीम को हर हाल में हरा देना चाहती है। आंदोलन की धार को कुंद करने का बीड़ा उसने उठा लिया है। इसलिए कभी किरण बेदी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए जा रहे हैं तो कभी अरविंद को उनकी पत्नी के जरिये नीचा दिखाने की कोशिश हो रही है और टीम अन्ना कह रही है कि अगर हम दोषी हैं तो हमें फांसी दे दो लेकिन जन लोकपाल ले आओ।

सरकार जनलोकपाल ले आएगी इसमें अभी संशय दिखता है। कभी-कभी लगता है कि अगर मौजूदा सरकार को जेपी का आंदोलन झेलना होता तो वो क्या करती? जो सरकार सिर्फ जन लोकपाल की मांग से घबरा रही है वो क्या करती अगर जेपी की तरह अन्ना ने कह दिया होता कि मनमोहन सिंह को हर हाल में इस्तीफा देना होगा, संसद भंग करनी होगी और नए सिरे से चुनाव करवाने होंगे और रोज स्कूल कॉलेज बंद होते , पुलिस लाठीचार्ज करती, लोग गोलियों का शिकार होते।

मुझे ये कहने में जरा भी हिचक नहीं है कि जेपी का आंदोलन अपनी मूल आत्मा में हिंसक था और अन्ना का आंदोलन अहिंसक। मुझे याद पड़ता है कि जब 20 दिसंबर 1973 को अहमदाबाद के एल डी इंजीनियरिंग कॉलेज में दिसंबर महीने में 40 फीसदी मेस बढ़ने पर छात्र उग्र हुए थे तब कॉलेज कैंटीन में आग लगा दी गई थी और रेक्टर के दफ्तर को तहस-नहस कर दिया गया था। ये आंदोलन की शुरुआत थी। 10 जनवरी को अहमदाबाद बंद का आह्वान किया गया और राजनीतिक पार्टियां उसमें कूद पड़ीं तो भी जमकर हिंसा और उत्पात हुआ था।

जेपी तबतक गांधी के रास्ते पर थे। सक्रिय राजनीति से दूर, दलविहीन राजनीति की वकालत कर रहे थे और संसदीय व्यवस्था में उनकी आस्था ज्यादा नहीं थी। लेकिन अहमदाबाद पहुंचते ही 1942 की क्रांति के इस हीरो को जोश हो आया। जेपी ने हिंसा की न तो बुराई की और न ही उसकी आलोचना। उलटे कह बैठे "बरसों से मुझे रास्ता नहीं सूझ रहा था, गुजरात के छात्रों ने उन्हें राह दिखाई है। राजनीतिक बदलाव की राह दिखी है मुझे"। यानी जेपी को छात्रों के हिंसक आंदोलन में बदलाव के लक्षण दिख रहे थे। सोचो अगर अन्ना ने ऐसे किसी हिंसक आंदोलन का पक्ष लिया होता तो कपिल सिब्बल, पी चिदंबरम और अरूंधति राय क्या कहते?

ये सही है कि गुजरात के आंदोलन से प्रेरित होकर बिहार के छात्र जब सड़कों पर उतरे और आंदोलनकारी छात्रों ने जेपी से आंदोलन की बागडोर संभालने की गुजारिश की तो जेपी ने साफ कहा था कि वो तभी नेतृत्व करेंगे जब आंदोलन अहिंसक होगा और वो सिर्फ बिहार तक सीमित नहीं रहेगा। और साथ ही ये ताकीद भी की थी सलाह सबसे लेंगे लेकिन अंतिम फैसला उनका होगा और सबको उसे मानना होगा।

विनोबा भावे जेपी से इसी मसले पर नाराज थे और जेपी से उन्होंने पूछा भी था, "क्या उन्हें पता है कि छात्र आंदोलन कैसे शुरू हुआ था, लूट और आगजनी इसका आरंभ बिंदु था। वो कैसे इस पर लगाम लगाएंगे"। जेपी आंदोलन के हिंसक स्वरूप से दुखी होकर ही विनोबा ने आपातकाल के शुरुआती दिनों को "अनुशासन पर्व" कहा था। प्रसिद्ध इतिहासकार बिपिन चंद्रा लिखते हैं कि "ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जब जेपी ने गैर जिम्मेदाराना भड़काऊ बय़ान दिए"। जेपी कहते थे कि अगर कोई विपक्षी पार्टी सरकार बदलने का माद्दा रखती है और इसके लिए हिंसा का सहारा लेती है तो वो उसे समर्थन देंगे। अन्ना का आंदोलन तो सिर्फ कानून बनाने तक है और कानून न बनाने की स्थिति में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को हराने के लिए प्रचार करने की चेतावनी तक सीमित है।

लेकिन जेपी ने छात्र आंदोलन की लीडरशिप हाथ में लेते ही इंदिरा गांधी हटाओ का नारा बुलंद किया था और बाद में इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद पुलिस, प्रशासन और सेना से अपील की थी कि वो गैरकानूनी सरकार के आदेशों को न मानें। सोचो अगर आज अन्ना ये कह दें कि मनमोहन सिंह सरकार अगर जनलोकपाल कानून नहीं बनाती है तो लोग उसका आदेश मानने से इंकार कर दें तो क्या होगा? जो सरकार अभी से शीर्षासन कर रही है और जो तथाकथित सरकारी बुद्धिजीवी अभी इस आंदोलन को लोकतंत्र के लिए खतरा बता रहे हैं वो तब किस जुमले का इस्तेमाल करते? हैरानी तो तब होती है जब यही बुद्धिजीवी जेपी आंदोलन की तारीफ करते हैं और अन्ना को कोसते हैं।

जबकि अन्ना के आंदोलन में शुरू से अंत तक एक पत्थर नहीं चला, किसी बस का कांच नहीं टूटा , कहीं कर्फ्यू नहीं लगा, पुलिस को कहीं भी आंसू गैस का इस्तेमाल नहीं करना पड़ा, कोई हताहत नहीं हुआ सिर्फ एक दिन देर रात कुछ हुड़दंगियों ने शराब पीकर पुलिस पर हमला किया था और उन्हें घायल किया था। उसके लिए भी अन्ना ने बाकायदा मंच से माफी मांगी थी, जेपी ने पूरे आंदोलन में कभी भी हिंसा के लिए खेद नहीं जताया। जेपी उन्हीं गांधी जी को आदर्श मानने थे जिन्होंने चौरीचौरा कांड के बाद आंदोलन वापस ले लिया था क्योंकि वहां हिंसा हुई थी।

जेपी स्वभाव से समाजवादी थे और समाजवादी को हिंसा से परहेज नहीं होता। अन्ना स्वभाव से गांधीवादी हैं और गांधीवादी कभी भी हिंसा को सही नहीं ठहराता। इसलिए जेपी ने छात्रों से अहिंसा का वायदा तो ले लिया था लेकिन हिंसा जब भी उनको आंदोलन में जरूरी लगी वो सहारा लेते गए। वो कहते थे कि अभी उनका आंदोलन गांधीवादी रास्ते पर है लेकिन अगर जरूरत पड़ी तो राज्य सत्ता के खिलाफ खुली बगावत का आह्वान करने से भी नहीं चूकेंगे। जेपी को हिंसा से परहेज होता तो वो कभी आरएसएस की खुली मदद नहीं लेते। इस मसले पर समाजवादी और सर्वोदयी उनसे खासे दुखी भी थे लेकिन जब जनसंघ पर फासीवादी होने का आरोप कांग्रेस ने लगाया तो जेपी ने कहा अगर जनसंघ फासीवादी है तो मैं भी फासीवादी हूं। अन्ना की टीम तो आरएसएस से कोसों दूर है।

जिस तरह से आंदोलन को कमजोर करने की साजिश सरकार के इशारे पर हो रही है वो खतरनाक है। क्योंकि लोग भ्रष्टाचार से काफी गुस्से में हैं और अभी गुस्से को नियंत्रित करने के लिए अन्ना नाम का एक शख्स है। अगर ये शख्स नहीं रहा तो फिर इस गुस्से को सरकार कैसे रोकेगी और इस गुस्से के हिंसक होने में वक्त नहीं लगेगा। इसलिए मनमोहन सिंह और सोनिया को अपने लोगों पर नियंत्रण ऱखना चाहिए, नहीं तो इतिहास बेरहम होता है वो इंदिरा गांधी तक को नहीं बख्शता।

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