इसलिए स्वीकारे गए अन्ना !
सिर पर गांधी टोपी। सफेद धोती-कुर्ता। सांवला दबा रंग। कद पांच फिट, पांच इंच। बोलचाल में गंवई, रत्ती भर भी शहर का पुट नहीं। न अंग्रेजी की समझ और न अंग्रेजी बोलने की कोशिश। हिंदी में भी हाथ तंग। सिर्फ मराठी में धारा प्रवाह। ऐसा शख्स, जो बगल से गुजर जाए, तो दिखे न। पास बैठा हो, तो बात करने का मन न करे। दिल्ली शहर में अजनबी। उम्र 74 साल। लेकिन इस शख्स की दिल्ली दीवानी है। मुंबई में उसके नाम पर लोग उपवास रख रहे हैं। दफ्तर से छुट्टी लेकर धरने-प्रदर्शन में शामिल हो रहे हैं। बंगलुरु में शायद ही कोई उसकी भाषा समझता हो, पर उसकी धुन पर इनफोसिस जैसी अत्याधुनिक कंपनी के आला मैनेजर झूम रहे हैं, कसमें खा रहे हैं। आखिर यह जादू क्या है? यह शख्स युवा पीढ़ी का पसंदीदा कैसे बन गया? नई पीढ़ी का सबसे हॉट आइकॉन।
अन्ना हजारे पहली नजर में बदलते हिन्दुस्तान के लिए मिसफिट हैं। पहनावे में भी और आचार-व्यवहार में भी। तीन महीने पहले तक लोगों को लगता था कि नई पीढ़ी के नए आइकॉन या तो शाहरुख खान हैं या फिर महेंद्र सिंह धौनी। यह वो पीढ़ी है, जो शीला की जवानी पर थिरकती है और बदनाम मुन्नी की अदाओं पर मचलती है, राखी सावंत के भौंडे जोक्स पर हंसती है। यह वो पीढ़ी है, जिसके लिए देर रात पब जाना, तेज म्यूजिक पर झूमना, और फिर किसी खूबसूरत साथी की तलाश में रात गुजार देना जिसकी पहचान है। यह वो युवा है, जो टैटू गुदवाने पर गर्व महसूस करता है, बॉडी पियर्सिंग जिसका शगल है और जो अपने को कूल डूड कहलवाना पसंद करता है।
यह वो पीढ़ी है, जिसके बारे में हमारे बुजर्ग कहते हैं कि वह अपने रास्ते से भटक गई है, जिसे भारतीय परंपरा और संस्कृति का कोई ज्ञान नहीं है, जो धीरे-धीरे पश्चिमी सभ्यता की गुलाम बन गई है, जिसे देसी आलू के पराठे की जगह मैकडोनाल्ड के बर्गर ज्यादा भाते हैं, केएफसी के चिकन के आगे, जो मुर्ग-मुसल्लम को भूल चुका है। मां-बाप के पांव छूने के बजाय जो हाय और बाय से काम चलाता है। ऐसी पीढ़ी के नौजवानों को आखिर हो क्या गया है कि वे 74 साल के एक धुर गंवई को अपना आदर्श मान के भ्रष्टाचार की लड़ाई में कूद पड़े हैं? यह सवाल तो हमें पूछना ही पड़ेगा। कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि एक जमाना था, जब देश का युवा मार्क्स, लेनिन और चे-गुएरा के नाम पर क्रांति की मशाल जलाने को तैयार था, वही अब इंटरनेट पर पोर्नोग्राफिक वीडियो के लिए मारा-मारा फिरता है। तो क्या यह पीढ़ी फिसल गई है? या फिर पुरानी पीढ़ी की आंखों का चश्मा कमजोर हो गया है?
चश्मा तो आज भी वही है। उसका नंबर भी वही है और नई पीढ़ी भी फिसली नहीं है। बस हम अपने पूर्वाग्रहों की हठधर्मिता में उसको समझना भूल गए हैं। असल में, यह पीढ़ी अब पहले से ज्यादा जागरूक है, ज्यादा आत्मविश्वास से भरी हुई है और पूरी तरह से भारतीय है। यह पहले की पीढ़ी की तरह से कुंठित भी नहीं है, बस यही फर्क है। इसलिए यह नई पीढ़ी खुले मन से पश्चिम की चीजों को ग्रहण करती है। यह उससे न तो भ्रमित होती है और न ही उससे आतंकित और विस्मित है। यह पीढ़ी हमसे पहले की पीढ़ी की तरह यूनीडायमेंशनल भी नहीं है। उसकी शख्सियत बहुआयामी है। इसलिए वह एक साथ कई संस्कृतियों को स्वीकार करती है, और जितना जरूरी है, उतना उनमें से आत्मसात भी करती है। मां-बाप के पैर न छूने का मतलब यह कतई नहीं है कि नई पीढ़ी उनका सम्मान नहीं करती।
नई पीढ़ी पहले से ज्यादा पारदर्शी है। ज्यादा खुली। पर तमाम सभ्यताओं के बावजूद उसका मन अपनी संपूर्णता में भारतीय है, इसलिए आज का युवा अन्ना को रिजेक्ट नहीं करता। वह उनको परखता है। गहराई में उतरकर उनको पहचानता है। अन्ना की पहचान वह उनके कपड़ों से नहीं करता और न ही उनके हाव-भाव से। वह अन्ना की अंतरात्मा में जब झांकता है और वहां उसे जब एक खास तरह की ईमानदारी दिखती है, तो वह उनकी बात पर यकीन कर उनके साथ हो लेता है। सेना का यह मामूली हवलदार उसको आकर्षित करता है, क्योंकि वह अपने इर्द-गिर्द के छल से आजिज आ चुका है।
अन्ना में दोहरा चरित्र नहीं दिखता, जो उसे आज अपने जन प्रतिनिधियों में नजर आता है। जनप्रतिनिधि कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं, चेहरे पर मक्कारी साफ झलकती है। ईमानदारी कम। अन्ना इस भीड़ में अकेले हैं। उनकी सादगी और ईमानदारी उनको नैतिक बल देती है। वह शारीरिक सत्ता के नहीं, आध्यात्मिक सत्ता के स्वामी प्रतीत होते हैं। बिल्कुल उसी तरह, जैसे गांधीजी थे। या फिर आजादी के बाद जेपी में लोगों को इसकी झलक मिली थी।
महात्मा गांधी हमेशा कहते रहे कि साध्य के साथ साधन भी पवित्र होना चाहिए। चरित्र में दोहरापन नहीं होना चाहिए। कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं हो। भौतिक सत्ता की जगह नैतिक सत्ता को जन प्रतिनिधि महत्व दें। ऐसा नहीं था कि गांधीजी के जमाने में उनसे ज्यादा पढ़े-लिखे और काबिल लोग नहीं थे। जवाहरलाल नेहरू, चक्रवर्ती राजागोपालाचारी, राजेंद्र प्रसाद जैसे इंटेलेक्चुअल जॉयंट थे, लेकिन देश की जनता ने गांधीजी पर ही विश्वास किया।
उनका नैतिक बल कितना तेज था कि देश के विभाजन के समय कहा गया, काश! देश में दो गांधी होते, तो जैसे गांधीजी की मौजूदगी में पूर्वी भारत मे दंगे रुक गए, वैसे ही देश की पश्चिमी सीमा पर भी थम जाते, हजारों लोगों की जानें न जातीं। यानी एक व्यक्ति की नैतिक सत्ता पूरी सेना पर भारी पड़ गई थी। आज के युवा को अन्ना में इन्हीं गांधीजी का अक्स दिखता है। नेताओं के फरेबी रूप से उसको घिन आती है।
देश की संसद में और उसके बाहर बैठे नेताओं को यह सोचना चाहिए कि आखिर देश के युवाओं से उनका वह संपर्क क्यों नहीं है? लोग उन पर भरोसा करने को तैयार क्यों नहीं हैं? यह बात जब तक राजनीतिक सत्ता नहीं सोचेगी, तब तक देश के लोकतंत्र पर खतरे के बादल मंडराते रहेंगे, और ये खतरा किसी अन्ना से नहीं होगा, खुद जनता के नुमांइदों से होगा। और एक गांधी टोपी पूरी नेता बिरादरी पर भारी पड़ेगी।