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लूटकेस Film Review

जनता जनार्दन संवाददाता , Aug 09, 2020, 11:17 am IST
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लूटकेस Film Review

जिंदगी को ड्यूटी समझने वाले आम आदमी की जिंदगी में सिर्फ पाली बदलती है. कभी वह दिन में काम करता है, कभी रात में. मगर पाली बदलने वाले इस काम से उसकी किस्मत नहीं बदलती. मुंबई में एक अखबार सावधान टाइम्स में मशीनमैन की नौकरी करने वाले नंदन कुमार (कुणाल केमू) को यही महसूस होता है. एक रात प्रेस से घर लौटते हुए उसे नोटों से भरा सूटकेस मिलता है, तो लगता है कि अब किस्मत बदल गई. मगर यह मुफ्त का चंदन है, आखिर नंदन कब इसे घिस कर अपने माथे पर तिलक लगाता रहेगा.


डिज्नी हॉटस्टार पर रिलीज हुई लूटकेस इसी काले धन की कहानी है. जिसे कॉमिक अंदाज में कहने की कोशिश है. अपराधियों और नेताओं के गठबंधन की गांठ का इतना रुपया इस सूटकेस में है कि आम आदमी पूरे जीवन में नहीं कमा सकता. जब कमा नहीं सकता तो फिर मुफ्त में मिले धन को पचा कैसे सकता है. नंदन कुमार के घर का हाल यह है कि जब-तब शक्कर खत्म हो जाती है. दस साल से उसकी बीवी लता (रसिका दुग्गल) शिमला घूमना चाहती है परंतु शिमला के नाम पर उसने मिर्च के सिवा कुछ नहीं देखा. छुट्टियों में बच्चे का वाटर पार्क कैंसल कर नहीं सकते. लता पति को समझाती है कि कुछ एक्स्ट्रा काम करो और मुझे भी अचार-पापड़ का बिजनेस करने दो. चार पैसे ऊपर आएंगे तो गृहस्थी की गाड़ी पटरी पर बनी रहेगी. इन बातों के बीच मिला सूटकेस नंदन की मुश्किलें हल नहीं कर पाता. पैसा कमाने में जितनी सामर्थ्य नहीं लगती, उससे ज्यादा ताकत शायद उसे खर्च करने में लगती है. और एक लोअर मिडिल क्लास आदमी कितने रुपये खर्च कर सकता है. सूटकेट में पैसा पाटिल (गजराज राव) का है, जो मिनिस्टर है. वह इसे वापस पाने के लिए अंडरवर्ल्ड से लेकर पुलिस (रणवीर शौरी) तक को खोजबीन में लगा देता है.


फिल्म इसी पैसे की तलाश और नंदन द्वारा उसे पत्नी समेत सबसे छुपाने और थोड़ा-थोड़ा खर्च करने की कोशिशों के बीच घूमती है. यहां खास तौर पर कुणाल के दृश्य एकरसता से भरे हैं. जल्द ही वे उबाने लगते हैं. लेखक-निर्देशक ने कुणाल के इन एकांत-दृश्यों से कॉमेडी पैदा करने की नाकाम कोशिश की है. कुणाल के कुछ कॉमिक दृश्य तो तर्क से परे बेसिर-पैस के मालूम पड़ते हैं. कहानी में रोचक घटनाओं का अभाव है और दो घंटे से अधिक लंबी यह फिल्म काफी देर तक एक जगह ठहरी मालूम पड़ती है. रणवीर शौरी की एंट्री से जरूर कुछ हलचल होती है परंतु उससे फिल्म की रफ्तार नहीं बढ़ती. कहानी में किरदार एक-दूसरे से दूर-दूर और इतने बिखरे हैं कि कॉमेडी के मौके ही नहीं बन पाते. कॉमेडी टीम वर्क है और लूटकेस में कोई ऐसी टीम ही नहीं है, जो आपको हंसा सके. फिल्म देखते हुए कुछ जगहों पर लगता है कि इसमें वक्त लगाने से बेहतर है कि अचार-पापड़ का बिजनेस किया जाए. फिल्म में एक भी दृश्य ऐसा नहीं है कि आप ठहाका लगा दें. गुदगुदा जाएं.


अंडरवर्ल्ड डॉन बाला बने विजय राज और उनके गुर्गों के बीच जरूर कॉमेडी पैदा करने की कोशिश लेखक-निर्देशक ने की. परंतु सफल नहीं हुए. जबकि विजय राज का ट्रेक आकर्षक बन सकता था. बाला नेशनल जियोग्राफी चैनल का शौकीन है और वह गुर्गों को समझाता है कि प्रकृति और जानवरों से रणनीतियां बनाना सीखो क्योंकि यह दुनिया भी जंगल है. जब गुर्गे उसकी बात समझ नहीं पाते तो वह हर बार उनसे कहता कि अभी तक नेशनल जियोग्राफी का सब्सक्रिप्शन क्यों नहीं लिया. राजेश कृष्णन ने ऐक्टरों की टीम तो अच्छी बनाई परंतु उनके लायक स्क्रिप्ट तैयार नहीं कर सके. बतौर अभिनेता कुणाल केमू की पहले ही कोई खास पहचान नहीं है. फिर ऐसी फिल्में उनके करिअर का कुछ भला नहीं कर सकतीं. जबकि रणवीर शौरी, विजय राज और गजराज राव जैसे शानदार ऐक्टर यहां बेकार चले गए. फिल्म का अंत कोई नयापन लिए हुए नहीं है. ऐसे क्लाइमेक्स पहले भी फिल्मों में आ चुके हैं. हां, यह जरूर है कि अंतिम बीस मिनट में फिल्म थोड़ा लड़खड़ाते हुए खड़े होने का प्रयास करती है मगर तब तक मजमा लुट चुका होता है. लेखक-निर्देशक फिल्म को नाकाम होने से नहीं बचा पाते. इक्का-दुक्का अच्छे दृश्यों के अलावा इसमें देखने जैसा कुछ खास नहीं है. वैसे, यह ट्रेजडी है कि आप किसी कॉमेडी फिल्म पर हंसें.

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