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अंग्रेजों के छक्के छुड़ाने वाले शूरवीर फतेह बहादुर शाही को याद रखिए, भले ही इतिहासकारों ने उन्हें भुला दिया

अंग्रेजों के छक्के छुड़ाने वाले शूरवीर फतेह बहादुर शाही को याद रखिए, भले ही इतिहासकारों ने उन्हें भुला दिया
जब जब भारत में स्वतंत्रता संग्राम के मूर्त-अमूर्त वीरों की गाथा गाई जाती है, तब तब भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के 'प्रथम उद्घोषक' रहे महानायक फतेह बहादुर शाही की याद सबसे पहले आती है। क्योंकि इतिहास में उनके नायकत्व और जुझारूपन को वह स्थान नहीं मिला, जिसके वह पात्र थे, काबिल थे। उन्होंने 1765 में हीं कम्पनी सरकार के विरुद्ध न केवल भारी विद्रोह किया, बल्कि एक निश्चित कालखंड तक, एक निश्चित परिधि में अंग्रेजों की एक नहीं चलने दी। बावजूद इसके लिखित इतिहास खामोश है, जबकि लोक श्रुति कुछ अलग ही कथानक बयां करती है जिसके भीतर अन्तर्निहित वीरत्व भाव से पूर्वांचल के युवक अनुप्राणित होते आये हैं और होते रहेंगे।
 
 
सुलगता सवाल है कि संकीर्ण या शातिर सोच वाले ब्रिटिश इतिहासकारों व उनके अनुगामी इतिहासकारों ने 1857 के सिपाही विद्रोह को प्रथम स्वतंत्रता संघर्ष बताने की कुचेष्टा की, जबकि इसकी नींव तो 1765 में ही रखी जा चुकी थी, लेकिन उसे अमूमन विस्मृत किये रखा। इसलिए शोधकर्ताओं के द्वारा खुद से ही पूछा जाता है कि ऐसा क्यों हुआ, कैसे हुआ, किसके इशारे पर हुआ और स्वतंत्र भारत के शासकों ने उनके दूरदर्शिता भरे संघर्ष की सुधि क्यों नहीं ली? कहना न होगा कि ये सभी बातें न केवल विस्मयकारी हैं, बल्कि शेष-विशेष इतिहास के प्रति भी शंका भाव जागृत करती हैं। 
 
 
स्वाभाविक प्रश्न है कि आखिर परवर्ती पीढ़ी को क्यों इतिहास के एक महत्वपूर्ण पाठ, रोचक व गौरवशाली दास्तान और ठोस सबक से रणनीतिक रूप से वंचित रखा गया है। क्या महज इसलिए कि 1857 के सिपाही विद्रोह को तो अंग्रेजों ने कल-बल-छल से दबा दिया था जिसकी चर्चा भी वो परवर्ती कालखंड में जब तब करते रहे। लेकिन, 1765 के विद्रोह में अंग्रेज महाराज फतेह बहादुर शाही के हाथों न केवल मात खाए, बल्कि उसके बाद भी कई दशकों तक उनके नाम से भय खाते रहे। यदि भी सही है कि उनके निज बन्धुओं में यदि फुट नहीं पड़ी होती, तो उनके भूखण्ड को शासित करने का अंग्रेजों का सपना अधूरा ही रहता। 
 
 
आज भी सगर्व कहा जाता है कि यूपी-बिहार की मिट्टी से जुड़े महानायक फतेह बहादुर शाही के दूरदर्शितापूर्ण ब्रिटिश प्रतिरोध के महत्व को यदि समकालीन क्षेत्रीय शासकों ने समझा होता, उनके रणनीतिक कौशल का साथ दिया होता, तो आज आधुनिक भारत का इतिहास कुछ और होता। इसलिए कहा जाता है कि वक्त वक्त के मुट्ठी भर जयचंदों ने हमारे शूरवीरों के गौरवशाली पराक्रम गाथाओं को मटियामेट कर दिया, जिसकी कीमत हमें गुलामी की जंजीरों में सदियों तक जकड़े रहकर चुकानी पड़ी।
 
 
पूर्वी भारत में शुरू से ही सत्ता के शिखर पर रहे भूमिहार ब्राह्मण समाज के लोग महाराजा फतेह बहादुर शाही को परशुराम अवतार के रूप में उनकी महानता का वर्णन करते हैं, जो एक हद तक सही भी है। क्योंकि प्लासी और बक्सर की लड़ाई के बाद जब मुगल नेतृत्व पस्त पड़ गया, तब अंग्रेजों के खिलाफ 1765 में सबसे बड़ी लड़ाई भूमिहार ब्राह्मणों ने लड़ी। तब बिहार के सारण जिले के हुस्सेपुर के राजा थे सरदार बहादुर शाही, जिनके बड़े लड़के फतेह बहादुर शाही ने अपने पराक्रम के बल पर हुस्सेपुर के जमींदार से बनारस के राजा चेत सिंह के सहयोग से हुस्सेपुर के राजा बने। 
 
 
वह इतने आजाद ख्यालात एवं उद्दार विचार के राजा थे कि अग्रेजों के खिलाफ जंग का ऐलान करने में थोड़ा सा भी न सकुचाए। फतेह बहादुर शाही ने अग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे बंगाल के नबाब मीरकाशिम का सदैव साथ दिया और मुंगेर से लेकर बक्सर तक हर मोर्चे पर सैन्य सहायता देते रहे। बावजूद इसके, जब 1765 की इलाहाबाद संधि हुई तो उसकी शर्तों के मुताबिक बंगाल (अब का बिहार और उड़ीसा भी) के मामलों की दीवानी शक्ति अग्रेजों को हासिल हुई। हालांकि, मुगल शासकों से अंग्रेजों को मिली दीवानी शक्ति को बेतिया और हुस्सेपुर के राजघरानों ने परस्पर मिलकर विरोध किया और अंग्रेजों के नेतृत्ववाली ईस्ट इण्डिया कम्पनी को गम्भीर चुनौती दी। बात इतनी बढ़ी कि फतेह बहादुर शाही ने अपने मित्र आर्या शाह की सूचना पर अपने सैनिकों के साथ मिलकर अंग्रेजों के लाईन बाजार कैम्प पर हमला बोल दिया, जिसमें अंग्रेजों के सेनापति मीरजाफर सहित सैकड़ों अंग्रेज मारे गए। बताया जाता है कि इसी मीरजाफर के नाम पर गोपालगंज स्थित मीरगंज शहर का नाम पड़ा था। 
 
 
दरअसल, अग्रेजों के लिए यह पहला मौका था जब भारत में किसी ने उन्हें इतनी बड़ी चुनौती दी थी। बाद में फतेह बहादुर शाही के मित्र आर्या शाह को जब यह लगा कि अंग्रेज उन्हें अपने कब्जे में लेकर मार डालेंगे, तब आर्या शाह ने अपने मित्र के हाथों से अपनी समाधि तैयार कराई और हंसते हुए मौत के गले लगा लिया। क्योंकि
 
आर्या शाह ने यह प्रण किया था कि अंग्रेजों के हाथों नहीं मारे जाएंगे। आज भी शाह बतरहा में आर्या शाह का मकबरा मौजूद है।
 
 
इधर, फतेह बहादुर शाही द्वारा उत्पन्न की गयी परिस्थितियों से हारकर अंग्रेजों ने हुस्सेपुर राज में वसूली बंद कर दी। फिर, 1781 में जब ब्रिटिश गवर्नर वारेन हेस्टिंग्स को इस बात की जानकारी हुई तो उसने भारी सैन्य शक्ति के साथ फतेह बहादुर शाही के विद्रोह को दबाने की कोशिश तो की लेकिन वह भी बुरी तरह असफल रहा। हालांकि, अपने उपर बढ़ते ब्रिटिश दबाव और हार न मानने की अपनी जिद्द के बीच फतेह बहादुर शाही ने हुस्सेपुर से कुछ दूर पश्चिम-उतर दिशा में जाकर अवध साम्राज्य के बागजोगनी के जंगल के उत्तरी छोर पर तमकोही गांव के पास जंगल काटकर वहीं अपना निवास बनाया। फिर, कुछ दिनों बाद अपनी पत्नी और चारो पुत्रों को लेकर वहां गये और कोठियां बनवाकर वहां रहने लगे। 
 
 
इधर, वारेन हेस्टिंग्स ने फतेह बहादुर शाही के साथ जय नहीं तो छय की जिद्द पर इंग्लैंड से और अधिक सेना बुलाई। दरअसल, शाही की शह पाकर जब बनारस के राजा चेत सिंह ने वारेन हेस्टिंग्स के बनारस राज पर अतिरिक्त पांच लाख रुपये का लगाया कर दूसरे वर्ष देने से जब इनकार कर दिया तो अंग्रेजों का कहर उन पर टूटना शुरू हुआ। फिर चेत सिंह ने जब फतेह बहादुर शाही से मदद मांगी, तब फतेह बहादुर शाही, चेत सिंह के मदद में आगे आए और अंग्रेजों के साथ युद्ध प्रारंभ कर दिया। कहा जाता है कि इस घनघोर युद्ध में भले ही फ़तेह बहादुर शाही का बड़ा बेटा युद्ध में मारा गया।लेकिन अंतत: अंग्रेजी सेना को चुनार की ओर पलायन करना पड़ा। उसके बाद अंग्रेजों ने अवध के नबाब पर दबाव बनाया कि महाराजा फतेह बहादुर शाही को अपने क्षेत्र से निकालें, लेकिन नबाब हर बार मौन रहे।
 
 
लेकिन जब अंग्रेजों के पक्ष में शाही विरोधी जयचंदों, मानसिंहों और मीरजाफरों की संख्या बढ़ती गयी, तब महाराजा फतेह बहादुर शाही पर दबाव बढ़ा। फिर भी सन 1800 तक वह तमकुही से ही अपना राजपाट चलाते रहे। इसके बाद, अचानक वह कहीं चले गए। किसी ऐसे जगह पर जहां कोई उन्हें खोज नहीं पाए। क्योंकि युद्ध दर युद्ध लड़ते लड़ते वह तक चुके थे। उनकी उम्र भी ढल चुकी थी। किसी ने कहा कि वे संन्यासी हो गए, तो किसी ने बताया कि वह चेत सिंह के साथ महाराष्ट्र चले गए। लेकिन उनके गुरिल्ला युद्ध से भयभीत अंग्रेज उनके अंतर्ध्यान होने के बाद भी कई वर्षों तक आतंकित रहे। इस बात में कोई दो राय नहीं कि शेष भारतीय जमींदारों और राजाओं ने यदि उनके दूरदर्शिता पूर्ण विदेशी विरोधी संघर्ष से सबक लिया होता, तो आज भारत का इतिहास कुछ और भी हो सकता था। इसलिए उनकी जीवटता को सलाम!
 
लेखक डीएवीपी के सहायक निदेशक हैं
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