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सेक्स संबंधों की निजता का अधिकारः धारा-377 पर सुप्रीम कोर्ट फिर से विचार करेगा
जनता जनार्दन संवाददाता ,
Jan 08, 2018, 18:17 pm IST
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![]() दो वयस्कों के बीच शारीरिक संबंध क्या अपराध हैं, इस पर बहस जरूरी है. अपनी इच्छा से किसी को चुनने वालों को भय के माहौल में नहीं रहना चाहिए. कानून के चारों तरफ किसी की भी इच्छा को नहीं रखा जा सकता लेकिन सभी को अनुच्छेद 21 के तहत जीने के अधिकार के तहत कानून के दायरे में रहने का अधिकार है. हालांकि सुप्रीम कोर्ट जानवरों के साथ संबंध बनाने के मामले की सुनवाई नहीं करेगा जो कि इसी धारा के तहत अपराध माना गया है. इस कानून के तहत अप्राकृतिक यौन संबंध को गैरकानूनी ठहराया गया है. अगर कोई स्त्री-पुरुष आपसी सहमति से भी अप्राकृतिक यौन संबंध बनाते हैं तो इस धारा के तहत 10 साल की सजा व जुर्माने का प्रावधान है. किसी जानवर के साथ यौन संबंध बनाने पर इस कानून के तहत उम्र कैद या 10 साल की सजा एवं जुर्माने का प्रावधान है. सहमति से अगर दो पुरुषों या महिलाओं के बीच सेक्स भी इस कानून के दायरे में आता है. इस धारा के अंतर्गत अपराध को संज्ञेय बनाया गया है. इसमें गिरफ्तारी के लिए किसी प्रकार के वारंट की जरूरत नहीं होती है. शक के आधार पर या गुप्त सूचना का हवाला देकर पुलिस इस मामले में किसी को भी गिरफ्तार कर सकती है. धारा-377 एक गैरजमानती अपराध है. जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय जजों की बेंच ने सोमवार को कहा कि सुप्रीम कोर्ट धारा-377 की संवैधानिकता की समीक्षा करेगा. कोर्ट ने इस बारे में केंद्र सरकार को नोटिस भी भेजा है. अदालत ने यह कदम एलजीबीटी (लेस्बियन, गे, बाइसेक्शुअल और ट्रांसजेंडर) समुदाय के पांच लोगों की याचिका के जवाब में उठाया है. याचिकाकर्ताओँ का कहना था कि उन्हें अपने सेक्शुअल ओरिएंटेशन की वजह से हमेशा पुलिस और लोगों के डर में जीना पड़ता है. आईपीसी की धारा-377 में कहा गया है कि किसी पुरुष, महिला या जानवर के साथ 'अप्राकृतिक सम्बन्ध' बनाना अपराध है. भारत में यह कानून वर्ष 1861 यानी ब्रिटिश राज के वक़्त से चला आ रहा है. इस देश में धारा-377 अंग्रेजों ने 1862 में लागू किया था. समलैंगिक समाज और जेंडर मुद्दों पर काम करने वालों का कहना है कि ये कानून लोगों के मौलिक अधिकार छीनता है. उनका तर्क है कि किसी को उसके सेक्शुअल ओरिएंटेशन के लिए सज़ा दिया जाना उसके मानवाधिकारों का हनन है. पिछले साल अगस्त में सुप्रीम कोर्ट ने भी माना था कि किसी का सेक्शुअल ओरिएंटेशन उसका निजी मसला है और इसमें दखल नहीं दिया जा सकता. कोर्ट ने यह भी साफ़ किया था कि निजता का अधिकार मौलिक अधिकार है और संविधान के तहत दिए गए राइट टु लाइफ़ ऐंड लिबर्टी (जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार) में निहित है. साल 2009 में दिल्ली हाईकोर्ट ने समलैंगिक सम्बन्धों को गैर-आपराधिक करार दिया था लेकिन बाद में 2013 में सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस जीएस सिंघवी और एसजे मुखोपाध्याय ने इस फ़ैसले को उलट दिया था. |
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