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मानस मीमांसा: पुनि रघुबीरहिं भगति पियारी, माया खलु नर्त्तकी बिचारी

मानस मीमांसा: पुनि रघुबीरहिं भगति पियारी, माया खलु नर्त्तकी बिचारी कानपुरः 'हरि अनंत हरि कथा अनंता' की तर्ज पर प्रभु चरित का कोई आदि, अंत नहीं... त्रेता, द्वापर, सतयुग, कलयुग के कालचक्र में अध्यात्म के अनगिन पाठ के बीच प्रभु के कितने रंग, रूप, कितने अवतार, कितनी माया, कैसी-कैसी लीलाएं, और उन सबकी कोटि-कोटि व्याख्या.

गोसाईं जी का श्री रामचरित मानस हो या व्यास जी का महाभारत, कौन, किससे, कितना समुन्नत? सबपर मनीषियों की अपनी-अपनी दृष्टि, अपनी-अपनी टीका...

इसीलिए संत, महात्मन, महापुरूष ही नहीं आमजन भी इन कथाओं को काल-कालांतर से बहुविध प्रकार से कहते-सुनते आ रहे हैं. सच तो यह है कि प्रभुपाद के मर्यादा पुरूषोत्तम अवताररूप; श्री रामचंद्र भगवान के सुंदर चरित्र करोड़ों कल्पों में भी गाए नहीं जा सकते. तभी तो प्रभु के लीला-चरित्र के वर्णन के लिए साक्षात भगवान शिव और मां भवानी को माध्यम बनना पड़ा.

राम चरित पर अनगिन टीका और भाष उपलब्ध हैं. एक से बढ़कर एक प्रकांड विद्वानों की उद्भट व्याख्या. इतनी विविधता के बीच जो श्रेष्ठ हो वह आप तक पहुंचे यह 'जनता जनार्दन' का प्रयास है. इस क्रम में मानस मर्मज्ञ श्री रामवीर सिंह जी की टीका लगातार आप तक पहुंच रही है.

हमारा सौभाग्य है कि इस पथ पर हमें प्रभु के एक और अनन्य भक्त तथा श्री राम कथा के पारखी पंडित श्री दिनेश्वर मिश्र जी का साथ भी मिल गया है. श्री मिश्र की मानस पर गहरी पकड़ है. श्री राम कथा के उद्भट विद्वान पंडित राम किंकर उपाध्याय जी उनके प्रेरणास्रोत रहे हैं. श्री मिश्र की महानता है कि उन्होंने हमारे विनम्र निवेदन पर 'जनता जनार्दन' के पाठकों के लिए श्री राम कथा के भाष के साथ ही अध्यात्मरूपी सागर से कुछ बूंदे छलकाने पर सहमति जताई है. श्री दिनेश्वर मिश्र के सतसंग के अंश रूप में प्रस्तुत है, आज की कथाः
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ताते यह तन मोहिं प्रिय, भयउ राम पद नेह।
निज प्रभु दरसन पायउँ,गये सकल संदेह।।
भगति पच्छ हठ करि रहेउँ, दीन्हँ महारिषि साप।
मुनि दुर्लभ बर पायउँ , देखहु भजन प्रताप।।

उत्तरकांड, मानस, काग-देह-प्राप्ति-प्रभाव-वर्णन, भक्ति-सर्वस्व-चिंतन, अप्रतिम, विशिष्टतम्
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पक्षी का तात्पर्य मानस में क्या है,देखने योग्य है कि संसार में अगर रस की अनुभूति करनी है, तो हमें निष्पक्ष होना चाहिए कि पक्षपाती होना चाहिए? इसका उत्तर है कि तत्त्व के संबंध में तो निष्पक्ष होना चाहिए और रस के संबंध में पक्षपाती। मस्तिष्क से तो ब्यक्ति को निष्पक्ष बनने की चेष्टा करनी चाहिए, पर हृदय से कोई निष्पक्ष नहीं हो सकता, क्योंकि हृदय और मस्तिष्क के स्वभाव में भिन्नता है।

विवेक में निष्पक्षता की प्रशंसा होती है, पर प्रेम में हृदय में पक्षपात आए बिना रहेगा नहीं। इसे हम इस तरह समझ सकते हैं कि सोने के आभूषणों को देखकर अगर यह सुनिश्चित किया जाना है कि ये किससे बने हैं, तब तो प्रत्येक व्यक्ति निष्पक्ष वृत्ति से यही कहेगा कि यह सब सोने के बने हैं, इनमें मूलतः कोई अन्तर नहीं है। लेकिन जब आप धारण करेंगे, तो निष्पक्ष बनकर, सोना समझकर नहीं अपितु मनपसंद आभूषण देखकर ही उसे महत्व देंगे।

तो ध्यान रहना चाहिए कि विवेक की शोभा निष्पक्षता में है, पर भक्ति में, (जहाँ रस ग्रहण करने की बृत्ति है) क्या निष्पक्षता से रसानुभूति हो सकती है? यह बता देने पर कि सारी मिठाइयों में घी-चीनी तथा अन्य सब उपादान तो एक ही हैं, क्या आपको यह लगने लगेगा कि सारी मिठाइयों का स्वाद एक-सा ही है?

सत्य तो यह है कि आप जब भी रस की अनुभूति करेंगे, तो किसी में कम तथा किसी में अधिक रसानुभूति तो होगी ही।

इसलिए मानस में भक्ति-घाट के आचार्य काकभुसुंडिजी पक्षी हैं- भगति पच्छ हठ करि रहेउँ। इसका अभिप्राय है कि मन में पक्षपात हुए बिना रसानुभूति नहीं होती। भक्ति का मुख्य उद्देश्य है-रस का पान। लोमशजी ने भुसुंडिजी को पहले तो विवेक के योग्य जानकर ज्ञान का उपदेश देना चाहा। पर जब उन्हें लगा कि यह तो किसी तरह भी इसे स्वीकार नहीं है, तब क्रोध में आकर उन्होंने कहा कि-
सठ स्वपक्ष तव हृदयँ विसाला।सपदि होहि पच्छी चंडाला।।
--तेरे हृदय में बड़ा पक्षपात है, इसलिए जा! तू चाण्डाल पक्षी कौआ हो जा। उसके बाद भुसुंडिजी जब कौए के रूप में लोमशजी को प्रणाम करके चलने लगे तो लोमशजी आश्चर्यचकित होकर सोचने लगे कि मैंने तो इसे कौआ बना दिया पर इतना होने पर भी इसके मन में न तो दुःख हुआ और न ही बदला लेने की बृत्ति आई। तब वे भुसुंडिजी को वापस बुलाकर कहने लगे कि यद्यपि मैं निष्पक्ष था, पर मेरी इस निष्पक्षता में भी और कुछ तो नहीं पर अपने ज्ञान के प्रति ही पक्षपात हो गया, जिससे मैं तुम पर अपने उसी ज्ञान को लादने लगा। मुझसे बड़ी भूल हो गयी कि मैंने तुम्हें कौआ बना दिया। अब बताओ कि मैं तुम्हें कोई अन्य पक्षी बना दूँ अथवा कहो तो फिर से तुम्हें मनुष्य बना दूँ।

काकभुसुंडिजी ने कहा--”नहीं महाराज! पक्षी बनने में जितना आनंद है, उतना आनंद और कुछ बनने में बिल्कुल नहीं है। क्योंकि मनुष्य के रूप में जब था, तो चलकर अयोध्या जाना पड़ता, पर अब पंख मिल गये तो उड़कर जाने की सुबिधा हो गयी। अब तक तो प्रभु प्राप्ति में बिलम्ब होने की संभावना थी, पर अब तो शीघ्र प्राप्ति
का साधन सुलभ हो गया।

लोमशजी ने कहा--भाई! पक्षी बने, यह तो ठीक है, पर कौआ जैसा निम्न पक्षी मैंने बना दिया। भुसुंडिजी ने कहा-महाराज! यह भी बिल्कुल ठीक ही हुआ। वस्तुतः आप के मुख से प्रभु ने ही मुझे कौआ बनवाया है।क्योंकि कौए को कोई पालता है नहीं। और कौवे को छोड़कर कोई पक्षी ऐसा नहीं होता जो बिना रोकटोक के घरों में
पैठ जाय। अन्य पक्षी तो पकड़ लिए जाते हैं, पर कौआ ही ऐसा पक्षी है जो बिना किसी अड़चन के सबके घरों में आता जाता रहता है।

कौवे के संबंध में एक बात और भी जुड़ी हुई है। गाँवों में एक धारणा है कि कौवा अगर, घर के भीतर आकर छज्जे पर बैठकर बोलने लगे, तो यह माना जाता है कि, कोई प्रिय ब्यक्ति आने वाला है। काकभुसुंडिजी ने कहा- ”महाराज! आपने पक्षी भी इतना बढ़िया बनाया कि जो प्रिय से मिलाने वाला है।” अगर आपने प्रभु से मिलाने वाला पक्षी बना दिया है, तो इससे बढ़कर और अच्छी बात क्या हो सकती है?

गोस्वामीजी ने गीतावली रामायण में लिखा कि श्रीरामभद्र के बनवास के चौदह वर्ष ब्यतीत हो गये। माँ कौशल्या ब्याकुल हैं। उसी समय एक कौवा आँगन में बैठकर बोलने लगा। स्पष्टतः ऐसा लगता है कि यह कोई दूसरा कौवा हो नहीं सकता, यह तो काकभुसुंडिजी ही थे, जो माँ की ब्याकुलता को देखकर, प्रभु के आगमन का
शकुन बनकर पहुँच गये। कौशल्या अम्बा बड़े प्रेम से उस कौए से पूछती हैं--
“कब ऐहैं मेरे बाल कुसल घर, कहहु काग! फुरि बाता।”
---”अरे! तुम तो प्रिय का संदेश पहुँचाने वाले हो! तुम बताओ कि हमारे प्रिय पुत्र कब लौटकर आने वाले हैं?”। माँ आगे कहती हैं कि तुम्हारे कथन में अगर उनके आगमन का समाचार मिलेगा तो---
“दूध भात की दोनी दैहौं, सोने चोंच मढ़ैहौं।
जब सिय सहित बिलोकि बंधु दोउ रामलखन उर अनिहौं।।”
--तुम्हें दूध-भात की दोनी दूँगी, तुम्हारी चोंच को सोने से मढ़वा दूँगी।
जिस समय माँ कौशल्या कौवे को मना रही थीं--
तेहि अवसर कोउ भरत निकट तें समाचार लै आवो।
--उसी समय भरतजी के पास से समाचार आ गया कि प्रभु आ रहे हैं। बस इतना  वाक्य सुनते ही कौवे के प्रति माँ का स्नेह उमड़ पड़ा।
काकभुसुंडिजी ने कहा--महाराज! आपने तो मुझे प्रिय से मिलाने वाला पक्षी बना दिया। भक्ति रसमय है। भक्ति बिना रस के कैसे होगी?पक्षी बनने में भी बड़ा आनंद है। इसी आनंद का उत्साह आज की शीर्षक-स्थित-पंक्ति में भक्त्याचार्य  भुसुंडिजी द्वारा अभिस्वीकृत/उच्चारित है।
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आगे की कथाः

ग्यान बिराग जोग बिग्याना।
ए सब पुरुष सुनहु हरिजाना।।
पुरुष-ज्ञान-प्रतीक,
माया भगति सुनहु तुम दोऊ।
नारि बर्ग जानइ सब कोऊ।।
नारी--भक्ति, माया-प्रतीक,
नारी व पुरुष के विग्रह-जन्य, क्रमशःभक्ति व ज्ञान तत्त्व का मनोवैज्ञानिक व तात्विक विश्लेषण, श्रीमद्भावत् व श्रीरामचरित मानसाधारित। अद्भुत, वरेण्य, प्रतिपाद्य
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विद्वान् अनुज-कवि श्रीराजनाथ तिवारी की नारी-शक्ति पर एक सृजन ही इस चिंतन का आधार-स्तंभ बना। आइए पहले श्रीमद्भागवत् के एक प्रसंग से इसका श्रीगणेश करें।

एक बार गौएँ चराते हुए भगवान् श्रीकृष्ण, ग्वाल बालों के साथ बृन्दावन से बहुत दूर निकल गये। वहाँ अचानक ही ग्वाल बालों को बड़ी भूख लगी। भगवान ने अपने मित्रों से कहा कि “यहाँ से थोड़ी दूरी पर बेदवादी ब्राह्मण, यज्ञ कर रहे हैं, तुम उनकी यज्ञशाला में जाओ और मेरा तथा मेरे बड़े भाई बलराम का नाम लेकर, थोड़ी सी अन्न सामग्री  माँग लाओ।”

ग्वालबालों ने यज्ञशाला के सन्निकट जाकर, बड़ी विनम्रता से ब्राह्मणों को प्रणाम कर उनसे भोजन की याचना की, परन्तु ब्राह्मण देने को प्रस्तुत नहीं हुए। अतः ग्वालबाल वापस लौट आए। अब देखें- बेदों में यज्ञ की महिमा का गान किया गया है। अनेक उत्कृष्ट यज्ञों द्वारा प्राप्त होने वाले फलों का बड़ा ही आकर्षक वर्णन उनमें मिलता है। बेद परम प्रमाणहैं।किन्तु क्या यज्ञ, मंत्रों द्वारा दी जाने वाली आहुतियों का ही द्योतक है? मानो इस प्रसंग के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण, मित्रों को धर्म के सर्वोत्कृष्ट रूप का परिचय करा रहे थे। यहाँ उनका तात्पर्य यही था कि शास्त्रों में धर्म की चाहे जितनी गंभीर ब्याख्या की गयी हो, उसके भले ही दस लक्षण हों, किन्तु उन सबका तात्पर्य यही है कि परोपकार ही सबसे बड़ा धर्म है।धर्म का पालन यदि स्वार्थ और स्वहित का ही साधन बन जाये, तो वह ‘सार्वभौम धर्म’ नहीं हो सकता।

परहित सरिस धर्म नहिं भाई।पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।
मानस में गीधराज जटायू , महाराज दशरथ और कामदेव आदि पात्रों ने परहित हेतु ही अपने प्राणों की बाजी लगा दी। धर्माभिमानी यज्ञरत ब्राह्मणों की निष्ठुरता से दुखी मित्रों को धैर्य बँधाते हुए कहा कि, “तुम लोग यज्ञ करने वाले ब्राह्मण पत्नियों के पास जाकर भोजन माँग लो और विश्वास रखो कि वे तुझे मनचाहा भोजन दे देंगी,” और हुआ भी यही। वे ब्राह्मण पत्नियाँ प्रभु की मनोहर लीलाओं को सुनती थीं और वे श्रीकृष्ण दर्शन को लालायित थीं। उन ब्राह्मण पत्नियों ने श्यामसुन्दर व ग्वालबालों के लिए बिबिध प्रकार की भोजन सामग्री बनाईं, और खिलाने के लिए श्यामसुन्दर के पास चल पड़ीं। प्रभु ने उनके ब्यंजनों के साथ उनका भरपूर स्वागत किया। महर्षि बेदब्यास ने इसका विस्तृत वर्णन किया है।

इस प्रसंग में बेदवादी ब्राह्मणों और उनकी पत्नियों में भावनात्मक दृष्टि से जो भिन्नता है, वह हृदयंगम करने योग्य है। शास्त्रज्ञ विद्वानों का भगवान श्रीकृष्ण को पहचानने में बिलम्ब, यही सिद्ध करता है कि निर्गुण निराकार ब्रह्म के संदर्भ में ज्ञान की चाहे जितनी सार्थकता हो, सगुण साकार ब्रह्म तो भक्ति के माध्यम से ही हृदयंगम किया जा सकता है।

यहाँ आध्यात्मिक शब्दावली में जिस स्वरूप की कल्पना की गयी है, उसमें ‘ज्ञान’ को पुरुष रूप में रखा गया है और ‘भक्ति’को नारी के रूप में। ब्याकरण की दृष्टि से भी यदि ज्ञान पुल्लिंग है तो भक्ति स्त्रीलिंग। नारी और पुरुष में समानतायें होते हुए भी कुछ भिन्नतायें तो हैं ही।

पुरुष यदि विचार-प्रवण होता है, तो नारी बहुधा भावनाओं के द्वारा संचालित होती है। बुद्धि की यह सहज प्रबृत्ति है कि किसी बात को वह सरलता से स्वीकार नहीं कर लेती। उसकी अपेक्षा हृदय, बड़ी ही सरलता से किसी को अपना लेता है। बुद्धि यदि जानकर मानती है तो भावना मानती पहले है और जानती बाद में है।

श्रीरामचरितमानस के उत्तरकांड में ज्ञान और भक्ति का जो तुलनात्मक विवेचन किया गया है, वह समझने योग्य है। गरुण की जिज्ञासा थी--”ज्ञान और भक्ति में अन्तर क्या है?” पक्षिराज गरुण की दृष्टि में ज्ञान का ही महत्त्व  सर्वाधिक है। शास्त्रों की धारणा भी इसी रूप में दिखाई देती है--

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति।।(गीता-4/38)

मानस में भी पक्षिराज का मत है--
कहहिं संत मुनि बेद पुराना। नहिं कछु दुर्लभ ज्ञान समाना।।(मानस-उ.कांड-114/5)

इसलिए जब भुसुंडिजी से उन्होंने सुना कि ज्ञान की तुलना में भक्ति पक्ष अधिक महत्त्वपूर्ण है, तो इसे वे सरलतापूर्वक ग्रहण नहीं कर पाये और अपनी एतदर्थ जिज्ञासा प्रकट की। भुसुंडिजी ने ज्ञान और भक्ति के पार्थक्य पर प्रकाश डालते हुए, उसका दिब्य विश्लेषण इस रूप में किया--

मनुष्य की प्रबृत्ति को प्रेरित करने वाली शास्त्र अवधारित “माया” ही आवरण की सृष्टि करती है, जिससे सत्य का दर्शन नहीं हो पाता।इसी माया के कारण ही ब्यक्ति बंधन में बँध जाता है, जिससे छूट पाना उसके लिए कठिन हो जाता है। भुसुंडिजी की दृष्टि में नारी,नारी के रूप के प्रति आकृष्ट नहीं होती। माया नारी है तथा ज्ञान और वैराग्य
पुरुष हैं। इसलिए माया, ज्ञान और वैराग्य की ओर आकृष्ट होती है और ज्ञानवान तथा वैराग्यवान पुरुषों को सम्मोहित करने की चेष्टा करती है।

किन्तु जहाँ भक्ति है, वहाँ माया का प्रवेश नहीं है। माया, भक्त को सम्मोहित कर अपनी ओर आकृष्ट करने की चेष्टा भी नहीं करती। मानस की निम्न पंक्तियों में यह वर्णन आता है--

ग्यान बिराग जोग बिग्याना। ए सब पुरुष सुनहु हरजाना।।
पुरुष प्रताप प्रबल सब भाँती। अबला अबल सहज जड़ जाती।।
पुरुष त्यागि सक नारिहि, जो बिरक्त मतिधीर।
न तु कामी विषयाबस, बिमुख जो पद रघुबीर।।
सोउ मुनि ग्याननिधान, मृगनयनी बिधु मुख निरखि।
विबस होइ हरिजान, नारि विष्नु माया प्रगट।।
मोह न नारि, नारि के रूपा। पन्नगारि यह नीति अनूपा।।
माया भगति सुनहु तुम दोऊ। नारि बर्ग जानइ सब कोऊ।।
पुनि रघुबीरहिं भगति पियारी। माया खलु नर्तकी बिचारी।।
भगतिहि सानुकूल रघुराया। ताते तेहि डरपति अति माया।।
राम भगति निरुपम निरुपाधी। बसइ जासु उर सदा अबाधी।।
तेहि बिलोकि माया सकुचाई। करि न सकइ कछु निज प्रभुताई।।
अस बिचारि जे मुनि बिग्यानी। जाचहिं भगति सकल सुख खानी।।
यह रहस्य रघुनाथ कर बेगि न जानइ कोइ।
जो जानइ रघुपति कृपा, सपनेहूँ मोह न सोइ।।

इन पंक्तियों  पर गहराई से बिचार करने पर, यह विश्लेषण मनोवैज्ञानिक प्रतीत होता है। दुर्गुण और सद्गुणों का इनमें प्रयोग, मनमाने ढंग से नहीं किया गया है। ’अभिमान’ शब्द पुल्लिंग है तथा ‘ममता’ स्त्रीलिंग। और यही मानव जीवन का तथ्य भी है। पुरुष में अहंकार की बृत्ति प्रबल होती है, अपने स्वामित्त्व का गर्व होता है, इसलिए प्रयत्न के लिए ‘पुरुषार्थ’शब्द का प्रयोग किया जाता है। कर्म तो नारी और पुरुष दोनों के द्वारा संपन्न होता है, किन्तु उसे ‘पुरुषार्थ’ कहना,यही सिद्ध करता है कि इस पर पुरुष ही अपना एकाधिकार मानता है।

यद्यपि पुरुष और नारी, दोनों मिलकर ही सृष्टि का सृजन करते हैं, तथापि उनकी मनोवैज्ञानिक स्थिति में भिन्नता है। पुरुष यदि बीज का बपन करता है,तो उसे धारण करने का कार्य नारी के द्वारा संपन्न होता है। उसे धारण करते हुए नारी को अत्यंत कष्ट उठाना पड़ता है। पुरुष यदि सृजन के आनंद का उपभोग करता हुआ,
जहाँ कुछ क्षणों में ही मुक्त हो जाता है, वहीं नारी को शिशु के जन्म से पूर्व गर्भ धारण में अनेक पीड़ाओं को आत्मसात् करना पड़ता है। अतः इतने कष्ट सहकर, वह जिस बालक की सृष्टि करती है, उसमें उसकी ममता स्वाभाविक ही है। वह अपने और पराये बालक में जो भेद करती है, इसीलिए वह स्वाभाविक ही है।

इसीलिए जब यह कहा जाता है कि परिवार के बिभाजन में नारी की मुख्य भूमिका होती है, तो यह अप्रिय होते हुए भी सत्य होता है। मानस में परिवार में फूट उत्पन्न करने के लिए, जिसे चुना गया वह ‘मंथरा’ भी नारी
पात्र है। ’ईर्ष्या’शब्द भी स्त्रीलिंग है, और इसलिए स्त्रियों में अपेक्षाकृत अधिक ईर्ष्या दिखाई देती है, तो समझ में आता है। ’द्वेष’पुल्लिंग शब्द है, और इसका तात्पर्य यह है कि ईर्ष्या की प्रबल बृत्ति से ही द्वेष होता है। द्वेष के माध्यम से ईर्ष्या, प्रतिशोध का सृजन करती है।इस तरह से पुरुष और नारी बृत्तियों का एकत्रीकरण ही समाज में बंधन की सृष्टि करने वाला बन जाता है।

ज्ञान और वैराग्य के द्वारा जो दुर्गुणों पर विजय प्राप्त करने की चेष्टा की जाती है, इसका भी तात्पर्य यही है कि संघर्ष करने की क्षमता पुरुष में अधिक है। इसलिए यदि दुर्गुणों से युद्ध करना होगा तो उसके लिए भी ज्ञान और वैराग्य जैसे ही शक्तिशाली गुणों का ही आश्रय लेना होगा। यह पक्ष  सत्य होते हुए भी समस्याओं से मुक्त नहीं है। स्वभावतः जहाँ ज्ञान और वैराग्य की बृत्ति प्रबल होती है, वहीं पर वासनायें भी उसे अधिकाधिक आकृष्ट करने की चेष्टा करती हैं। ये जो कथायें आती हैं कि, तपस्या करते हुए मुनियों की साधना में विघ्न डालने के लिए अप्सरायें आती हैं और अपने आकर्षण से मुनियों को भी बाँध लेती हैं, इनका तात्पर्य यही है।

ज्ञान का तात्पर्य है “सद् और असद् का बिवेचन” तथा वैराग्य का तात्पर्य है, “असद् का परित्याग और सद् का ग्रहण”। किन्तु विचार के द्वारा मिथ्यात्त्व का विश्लेषण और उसके परित्याग की चेष्टा, तर्क-संगत होते हुए भी, ब्यवहार में तोअत्यंत कठिन है। माया के आक्रमणों को झेल पाना सरल नहीं है। दृष्टांत के रूप में इसे यों कह सकते हैं कि यदि सुदृढ़ भवन का निर्माण किया जाए, तो उसके द्वारा शीत, ताप, वर्षा से रक्षा हो जाती है, किन्तु जब भयानक भूकंप आता है, तो वह उसकी नींव को ही हिला देता है, और परिश्रम से बनाए हुए इस भवन को नष्ट होने में देर नहीं लगती।ज्ञान वैराग्य के द्वारा जिस रक्षा प्राचीर का निर्माण किया जाता है, वह वासनाओं के भूकंप से क्षणभर में ढह जाता है। रूप का मिथ्यात्त्व और सर्वब्यापक ब्रह्म का सत्यत्त्व, नारी सौन्दर्य के सामने आते ही धरा-का-धरा रह जाता है।

इसी के दृष्टिगतभुसुंडिजी यह कह उठते हैं कि--
सोउ मुनि ग्यान निधान मृगनयनी बिधु मुख निरखि।
बिबस होइ हरिजान नारि विष्नु माया प्रगट।।
सारा इतिहास ही इस सत्य का साक्षी है। भक्ति की विचारधारा इससे भिन्न है। भक्तिशास्त्र रूप के मिथ्यात्त्व पर उतना बल नहीं देता, अपितु यह कहता है कि नेत्रेन्द्रिय के लिए रूप-आकर्षण स्वाभाविक है। यदि नेत्र को रूप की आवश्यकता है, तो उस शाश्वत रूप-सिंधु प्रभु की ही खोज क्यों न करें? जिसमें विलक्षण रूप के साथ-साथ लौकिक दोषों का अभाव है। इसलिए भक्त के हृदय में माया सांसारिक रूप का आकर्षण कैसे उत्पन्न कर सकती है? इसी को समझाने के लिए--मोह न नारि नारि के रूपा। का सिद्धान्त प्रस्तुत किया गया। इसलिए निर्गुण निराकार ब्रह्म की धारणा में सर्वदा स्थित रहना असंभव नहीं, पर दुष्कर अवश्य है।

भक्तों के पास माया के द्वारा आकृष्ट की जाने वाली वस्तुओं का ऐसा उत्तर विद्यमान है कि भक्त माया के प्रलोभनों से बच जाता है। ज्ञानी,बहुधा ब्रह्म में रूप की कल्पना नहीं कर पाता। उसे लगता है कि निर्गुण-निराकार ब्रह्म, सगुण-साकार कैसे बन सकता है? यदि वह साकार हो जायेगा तो क्या उसकी नित्यता और असीमता समाप्त नहीं हो जायेगी? इसकी तार्किक परिणति यह होती है कि उसकी सगुण-साकार में आस्था सरलता से नहीं हो पाती।

नारी तो रूप को ही जन्म देती है। वह तो अपने बालक से सहज भाव से प्यार करती है।उसे उसकी सारी चेष्टायें आकर्षक और लुभावनी प्रतीत होती हैं। इसलिए ईश्वर की रूप कल्पना उसके लिए उतनी कठिन नहीं रह जाती।
याज्ञिक ब्राह्मणियों ने श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन सुना था, जिससे उनके मन में श्रीकृष्ण के प्रति सहज भाव से आकर्षण पैदा हो गया। अतः श्रीकृष्ण की ओर उन्मुख हो जाना, सरलता से समझ में आता है। जब उन्होंने सुना कि बलराम-कृष्ण भूखे हैं, तब उनका वात्सल्य उमड़ पड़ा। भक्तों के भगवान तो भूखे हो सकते हैं, यद्यपि वे भाव के ही भूखे होते हैं, पर बेचारा विद्वान् याज्ञिक, भगवान में भूख की कल्पना कैसे करे? आज श्रीसिंह भागवत् द्वारा लंकाकांड के उपसंहार में भी यह वर्णित है।

“राम भूखे भाय के” की वाक्यावली में गोस्वामीजी इसी सत्य को पुष्ट करते हैं। शबरी-प्रसंग में भगवान की उस भूख का वर्णन मिलता है, जिससे प्रेरित होकर वे शबरी के फलों को माँग-माँगकर खाते हैं--
कंद मूल फल सरस अति दिए राम कहुँ आनि।
प्रेम सहित प्रभु खाये बारंबार बखानि।।

प्रभु उन याज्ञिक-पत्नियों की वात्सल्यभरी भावना से संतुष्ट हो जाते हैं। वस्तुतः इस माध्यम से वे उन ब्राह्मणों को भी धन्य करना चाहते थे जो कर्माभिमान के कारण प्रभु तक नहीं पहुँच पाये थे। जब वे देवियाँ धन्य होकर लौटीं, तब उनमें एक ऐसी अलौकिक आभा का दर्शन हुआ, जिससे उन याज्ञिकों में भी भावना का संचार हुआ। उन्हें अपनीत्रुटि का भान हुआ और पश्चात्ताप भी।

किन्तु जीव की कैसी बिडम्बना है कि, इतना होते हुए भी वे कंस के डर से श्रीकृष्ण के पास नहीं गये। इसका तात्पर्य यही है कि जान लेने के पश्चात् भी बिरले ही ब्यक्ति प्रभु की शरण में जा पाते हैं। अंतःकरण में संसारिक “भय” के संस्कार इतने प्रबल होते हैं कि उनसे ऊपर उठकर भगवान तक जाना, जीव के लिए संभव नहीं। किन्तु भगवान, उन ब्राह्मणों से रुष्ट नहीं हो जाते हैं। अपितु उन्होंने अनुभव किया कि, मुझे उनको अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए भय के उन निमित्त कारणों को भी समाप्तकरना होगा, जो जीव और ईश्वर के बीच ब्यवधान बने हुए हैं।

भक्ति पथ अत्यंत सरल है। यदि इस पथ पर बिरले ब्यक्ति ही चल पाते हैं, तो इसका कारण, भक्ति पथ में आने वाली कठिनाइयाँ न होकर, स्वयं उस ब्यक्ति की अपनी मनस्थिति होती है। विचारपूर्वक हृदय में शरणागति की भावना उदित हो जाना, अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है। किन्तु उसे क्रियात्मक रूप में पाना अत्यं कठिन होता है। जैसे रावण के भय के कारण, विभीषण की शरणागति तभी संभव हो पायी, जब आंजनेय ने उसे मानसिक अंतर्द्वंद से मुक्त करने के बाद, लंका जलाकर उसके समक्ष रावण की सीमित शक्ति का दर्शन कराकर, उसके भय को निर्मूल कर दिया।
प्रसंग समाप्त।
नमन सबहिं।

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अगली कथाः

पुनि रघुबीरहिं भगति पियारी।
माया खलु नर्त्तकी बिचारी।।
भक्ति और माया, उत्तरकांड, मानस वरेण्य विश्लेषण, विचारणीय-सतत
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मानस -प्रेमीजन!एक वाक्य में यदि ब्यक्त करना चाहें , तो यही कहा जा सकता है कि--”ज्ञान का अर्थ है- भगवान को जानना, भक्ति का अर्थ है -भगवान से संबंध स्थापित करना और कर्म का अर्थ है- भगवान के आदेश का पालन करना।”

कह सकते हैं कि बुद्धिपूर्वक किसी को स्वीकार करना ज्ञान है और हृदय से नाता जोड़कर, हृदय से स्वीकार करना भक्ति है। भगवान राम, जिस नवधा भक्ति का उपदेश देते हैं, उसका सूत्र यहीं से प्रारंभ होता है। भगवान राम, साधारण-जाति में उत्पन्न शबरी के पास स्वयं जाते हैं और उनसे नाता जोड़ते हैं और मूर्तिमती-भक्ति श्रीसीताजी का उनसे पता पूछते हैं। यही भाव है-पुनि रघुबीरहिं भगति पियारी। की मंत्र-पंक्ति का।

भगवान राम, श्रीलक्ष्मणजी से अविद्या माया का परिचय देते हुए कहते हैं-
एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा।जा बस जीव परा भवकूपा।।
अरण्यकांड में एक नारी पात्र सूर्पणखा का परिचय देते हुए गोस्वामीजी ने ठीक वही शब्द दुहरा दिया--
सूपनखा रावन कै बहिनी।दुष्ट हृदय दारुन जस अहिनी।।
तो वह दुष्ट-हृदय है और उसका संबंधी कोई और नहीं है, बल्कि उसका सगा भाई है, जो मूर्तिमान मोह है। माया और मोह में बड़ा घनिष्ट संबंध है। भगवान राम उस समय पंचवटी में निवास कर रहे थे। शूर्पणखा वहाँ जाती है--
पंचवटी सो गइ एक बारा।
पर गोस्वामीजी यह नहीं लिखते कि भगवान राम को देखकर वह अनुरक्त हो गयी, अपितु वे कहते हैं कि--
देखि बिकल भइ जुगल कुमारा।।
वह दोनों भाइयों की सुन्दरता को देखकर ब्याकुल हो जाती है। क्योंकि शूर्पणखा के मन में जो ब्याकुलता है, उसके मूल में राग न होकर मात्र वासना ही है। रूप बदलने की कला में माहिर शूर्पणखा एक सुन्दरी के रूप में अपने को परिवर्तित करके,भगवान राम के पास जाकर, उनसे विवाह का प्रस्ताव रखती है। प्रभु, उसकी
बात सुनते तो हैं, पर उसकी ओर एक बार भी दृष्टि उठाकर नहीं देखते। अपितु वे सीताजी की ओर देखकर, उसके प्रस्ताव का उत्तर देते हुए, उसे लक्ष्मणजी के पास भेज देते हैं। वह नर्तकी की भाँति जब दोनों भाइयों के बीच नृत्य करती हुई आती जाती है और अंत में लक्ष्मणजी उसके नाक कान काट देते हैं। यही माया और
ईश्वर के संबंध का सांकेतिक निरूपण है।

आज की मंत्र-पंक्तियों में गोस्वामीजी दो नारियों का वर्णन करते हैं, जिसमें एक का नाम भक्ति है तथा दूसरी का नाम माया है। यदि रामायण का उद्देश्य भक्ति का प्रचार है तो इससे बढ़कर नारी का सम्मान क्या होगा? गोस्वामीजी यह भी बताते हैं कि भक्ति तो ज्ञान, वैराग्य की अपेक्षा भी भगवान को अधिक प्रिय है। माया तो मानो नर्तकी है।इसका अर्थ है कि नारी के दो रूप हैं-एक मायिक तथा दूसरी भक्ति-संपन्न।

गोस्वामीजी यदि नारी की निन्दा करते हैं तो उस रूप की जिसका प्रतिनिधित्व शूर्पणखा करती है। भक्तिरूपा नारी शबरी की तो प्रभु बंदना करते हैं। भगवान राम चौदह वर्षों तक वन में रहे, अनेक ऋषियों, मुनियों, बीर-योद्धाओं से मिले,किन्तु लोटकर आने पर पूछे जाने पर प्रभु बस दो-चार नाम ही बता पाते हैं--
मिलि मुनिबृंद फिरत दंडक बन, सो चरचौ न चलाई।
बारहिं बार गीध सबरी की बरनत प्रीति सुहाई।।(वि.पत्रिका)

भक्ति का अर्थ है, भगवान से अमिट संबंध की स्थापना। इसलिए परम्परागत गुरुदीक्षा में यह कहा गया है कि गुरु के द्वारा शिष्य का भगवान से संबंध कराया जाता है। इसका सीधा सा तात्पर्य है कि किसी को बुद्धि से जान लेने पर उसके प्रति आदर सम्मान तो बढ़ेगा, पर संबंध स्थापित हो जाने पर उसके हृदय में प्रेम की उत्पत्ति होगी, अनुराग की बृद्धि होगी। इसलिए भक्ति में प्रेम की प्रधानता मानी जाती है।

शूर्पणखा का विवाह-प्रस्ताव प्रेमपूर्ण न होकर वासना से प्रेरित होकर किया गया था। भगवान से संबंध तो प्रेम से जुड़ता है। भगवान राम ने उसकी वासना को प्रकट करने के लिए ही उसे लक्ष्मणजी के पास भेज दिया। वह तुरन्त लक्ष्मणजी के पास जाकर कहने लगी, तुम्हारे भाई का विवाह हो चुका है, अतः न हो तो तुम ही मुझसे विवाह कर लो।

लक्ष्मणजी के पहले शब्द से बड़ा संतोष हुआ। वे बोले-”सुन्दरि सुनु! शूर्पणखा को लगा कि बड़ा भाई तो रूखा है, लेकिन छोटा रसिक लगता है। पर उसे इस बात पर बड़ा आश्चर्य हुआ कि “सुन्दरी कहने के बाद भी मेरी ओर
देख क्यों नहीं रहा है।” क्योंकि लक्ष्मणजी शूर्पणखा की ओर न देखकर--प्रभु बिलोकि बोले मृदु बानी। इसके पीछे मानो लक्ष्मणजी का ब्यंग्य यह था कि ”जब तक मैं नहीं देख रहा हूँ, तभी तक तुम सुन्दरी हो, पर जिस समय मैं देख लूँगा, तुम्हारी कुरूपता सामने आ जायेगी।”

इसका अर्थ है कि भगवान से नाता जोड़ने के लिए नकली सुन्दरता लेकर उनके सामने आने की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि वे उसके नाते से नाता स्वीकार नहीं करते हैं। दूसरी ओर भगवान राम स्वयं शबरीजी के पास जाते हैं और उनसे नाताजोड़ना चाहते हैं। और वे शबरीजी से सीताजी का पता पूछते हुए जिस शब्द का प्रयोग करते हैं-देखें-
जनकसुता कइ सुधि भामिनी।
जानहु कहु करिबर गामिनी।।
प्राचीन साहित्य में “गजगामिनी” शब्द एक सुन्दर स्त्री के सौन्दर्य की प्रशंसा में बहुत अधिक प्रचलित रहा है। “एक बृद्धा स्त्री को गजगामिनी कहना और शूर्पणखा की ओर आँख उठाकर न देखना”, इसके द्वारा प्रभु मानो यह बताना चाहते हैं कि “बहिरंग सुन्दरता, सत्ता या विशेषता मुझको आकृष्ट नहीं कर सकती। क्योंकि मैं इन सबसे निरपेक्ष हूँ।” सचमुच ब्रह्म को पूर्ण होने के कारण किसी संबंध की अपेक्षा नहीं है। ब्रह्म से संबंध हो, यह तो जीव की आवश्यकता है। पर भगवान राम तो संबंध स्थापित करने के लिए ब्यग्र दिखाई देते हैं।

भगवान राम ने विभीषण से कहा-बिभीषण! निर्गुण-निराकार ब्रह्म के रूप में मैं चाहे जितना निरपेक्ष रहता हूँ, पर सगुण-साकार के रूप में मुझे भी लोभहो जाता है--
समदरसी इच्छा कछु नाहीं। हरष, सोक, भय नहिं मन माहीं।।
अस सज्जन मम उर बस कैसे।लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसे।।
लोभी तुम नहीं, मैं हूँ। तुम जैसे सज्जन को अपने हृदय में पाकर मुझे लगता है कि मैं धनवान हो गया हूँ। भगवान राम ने शबरीजी से कहा कि- ”शबरी! यह तुमने क्या कह दिया कि, तुम स्त्री हो, हीन हो। संसार में संबंध जोड़ने के लिए लोग भले ही-
-जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई। धन बल परिजन गुन चतुराई।। आदि को देखते हों पर मैं तो जाति, धन, गुण, बल आदि के नाते से नहीं, अपितु--
मानउँ एक भगति कर नाता।
एक भक्ति के माध्यम से ही नाता जोड़ता हूँ। गोस्वामीजी भगवान के नातों को लेकर, एक बढ़िया पद विनयपत्रिका में कहते हैं-
ब्रह्म तू, हौं जीव, तू है ठाकुर, हौं चेरो।
तात-मातु, गुरु-सखा, तू सब बिधि हितु मेरो।।
नाते गिनाते चल गयेे तो भगवान ने कहा इतनी लम्बी सूची रख दी। तो बताओ तुम इनमें से कौन-सा नाता जोड़ना चाहते हो? गोस्वामीजी भाव-भरा उत्तर देते हुए कहते हैं-महाराज!--
तोहिं मोहिं नाते अनेक, मानिए जो भावै।
नाते मैंने गिना दिए, अब चुनना आपको है। आपको जो नाता अच्छा लगे, चुन लीजिए। भगवान ने कहा--मुझे चुनने के लिए क्यों कह रहे हो? बोले--प्रभु! अगर मैं नाता चुनूँगा तो क्या ठिकाना कि उसे निभा पाऊँगा भी या
नहीं! न जाने कब तोड़ बैठूँ! पर यदि नाता आप चुनेंगे, तो उसे निभाना भी आपको ही पड़ेगा। भगवान की यही करुणा है कि वे जीव पर कृपा करते हैं और उससे स्वयं ही नाता जोड़ लेते हैं।

जनकपुरवासिनी स्त्रियाँ भी इस बात को जानती हैं। इसलिए वे चाहती हैं कि सीताजी से भगवान राम का विवाह हो जाय तो--
सखि हमरे आरति अति तातें।
कबहुँक ए आवहिं एहि नातें।।

इस नाते से वे यहाँ आयेंगे और उनका लाभ हम सब को मिलेगा। और जब विवाह हो जाता है तो वे सखियाँ बड़ी प्रसन्नता से आपस
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