नित्य मानस चर्चा- उत्तर कांड व्याख्याः काल कर्म गुन दोष सुभाऊ
रामवीर सिंह ,
Sep 06, 2017, 7:14 am IST
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नई दिल्लीः पुलिस सेवा से जुड़े रहे प्रख्यात मानस मर्मज्ञ श्री राम वीर सिंह उत्तर कांड की सप्रसंग व्याख्या कर रहे हैं. राम वीर जी अपने नाम के ही अनुरुप राम कथा के मानद विद्वान हैं. फिलहाल यह चर्चा श्री राम जी के सतसंग से जुड़ी हुई है. संत और असंत है कौन? जीवन नैया से पार के उपाय हैं क्या? उन्हें पहचाने तो कैसे?
सद्गति के उपाय हैं क्या? मानस की इस चर्चा में एक समूचा काल खंड ही नहीं सृष्टि और सृजन का वह भाष भी जुड़ा है. जिससे हम आज भी अनु प्राणित होते हैं -भ्रातृ प्रेम, गुरू वंदन, सास- बहू का मान और अयोध्या का ऐश्वर्य, भक्ति-भाव, मोह और परम सत्ता का लीला रूप... सच तो यह है कि उत्तर कांड की 'भरत मिलाप' की कथा न केवल भ्रातृत्व प्रेम की अमर कथा है, बल्कि इसके आध्यात्मिक पहलू भी हैं. ईश्वर किस रूप में हैं...साकार, निराकार, सगुण, निर्गुण...संत कौन भक्ति क्या अनेक पक्ष हैं इस तरह के तमाम प्रसंगों और जिज्ञासाओं के सभी पहलुओं की व्याख्या के साथ गोस्वामी तुलसीदास रचित राम चरित मानस के उत्तरकांड से संकलित कथाक्रम, उसकी व्याख्या के साथ जारी है. ****** *ॐ* *नित्य मानस चर्चा* *उत्तरकांड* अगली पंक्तियाँ:- "सुनु खगेस नहिं कछु रिषि दूषन। उर प्रेरक रघुबंस बिभूषन।। कृपासिंधु मुनि मति करि भोरी। लीन्ही प्रेम परीक्षा मोरी।। मन बच क्रम मोहि निज जन जाना। मुनि मति पुनि फेरी भगवाना।। रिषि मम महत सीलता देखी। रामचरन बिस्वास बिसेषी।। अति बिसमय पुनि पुनि पछिताई। सादर मुनि मोहि लीन्ह बोलाई।। मम परितोष बिबिधि बिधि कीन्हा। हरषित राम मंत्र तब दीन्हा।। बालक रूप राम कर ध्याना। कहेउ मोहि पुनि कृपानिधाना।। सुंदर सुखद मोहि अति भावा। सो प्रथमहि मैं तुम्हहि सुनावा।। मुनि मोहि कछुक काल तहँ राखा। रामचरितमानस तब भाखा।। सादर मोहि यह कथा सुनाई। पुनि बोले मुनि गिरा सुहाई।। रामचरितसर गुप्त सुहावा। संभु प्रसाद तात मैं पावा।। तोहि निज भगत राम कर जानी। ताते मैं सब कहेउँ बखानी।। रामभगति जिन्ह के उर नाहीं। कबहुँ न तात कहिय तिन्ह पाहीं। मुनि मोहि बिबिधि भॉंति समुझावा। मैं सप्रेम मुनि पद सिरु नावा।। निज कर कमल परसि मम सीसा। हरषित आसिष दीन्ह मुनीसा।। राम भगति अविरल उर तोरें। बसिहि सदा प्रसाद अब मोरें।। दोहा:-- सदा राम प्रिय होहु तुम्ह सुभ गुन भवन अमान। कामरूप इच्छामरन ज्ञान बिराग निधान।। जेहि आश्रम तुम्ह बसब पुनि सुमिरत श्रीभगवंत, व्यापिहि तहँ न अबिद्या जोजन एक प्रजंत।। ***** प्रारंभ की इन पंक्तियों में जीवन में संतोष वृत्ति लाने का सूत्र दिया है। मुनि के श्राप से भुशुण्डिजी कौआ बने किंतु इस घटना में वे मुनि के क्रोध का दोष नहीं वल्कि इसमें वे मुनि के माध्यम से परमात्मा की इच्छा का खेल देख रहे हैं। घट घट वासी वह परमात्मा अपने प्रति निष्ठा,प्रेम की परीक्षा भी लेता है। कह रहे हैं कि गरुड़जी ! इसमें मुनि लोमश का कोई दोष नहीं है। सबके हृदय में प्रेरणा देने वाले तो वे मेरे रघुवंशभूषण रामजी ही हैं, जो अपनी इच्छा और कृपा के अनुरूप कर्म करा लेते हैं। (भुशुण्डिजी की इष्ट निष्ठा स्पष्ट है।परमात्मा को रघुवंश विभूषण कह रहे हैं। ) गम्भीर सी महत्व की बात है। हम सनातन धर्म के प्रति आस्थावान प्राणी इस सिद्धांत का पूरा सम्मान करते हैं कि कठिन समर्पित परिश्रम से कोई भी लौकिक उपलब्धि पाई जा सकती है। किंतु हमारे धर्मग्रंथों की मान्यता है कि सब कुछ परमात्मा की इच्छा से ही होता है। वही करता कराता है। हम तो उपकरण मात्र हैं। वह मालिक है जैसे चाहे उपयोग करे। हमारी कोई ज़िद नहीं। जो लोग जीवन को एक संघर्ष मान कर जीते हैं (life is struggle) उनके प्रति हमारी सुहानुभूति है। लेकिन वे भी जीवन को एक खेल मान कर बिना दु:ख द्वेष के हर स्थिति में जीवन को आनन्द से जी सकते हैं। हमारे धर्म शास्त्रों से सीखें। हमारे यहॉं तो पशु पक्षी आदि भी परमानन्द में जीते हैं। बाहरी परिस्थितियों हमारे आंतरिक आनन्द को तब तक प्रभावित नहीं करतीं जब तक हम स्वयं ही उन्हें महत्व नहीं देते। "फिरत सनेह मगन सुख अपने"। यहॉं लोमश के श्राप से भुशुण्डि जी को ग्लानि नहीं हुई। भक्त की दृष्टि में सब जगह और सबमें वही परमात्मा है। कोई मुझे प्रेम करे या कि मेरा विरोध करे -सब रूपों में मेरा परमात्मा ही है और वह मेरा अहित नहीं कर सकता। कुछ अच्छा ही करना चाहता है। भुशुण्डिजी कहते हैं कि जब प्रभु ने मेरे प्रेम की परीक्षा ले ली और मेरे चित्त में कोई ग्लानि या क्रोध नहीं पाया तो उन्ही भगवान ने जिन्होंने मुझे मुनि के हृदय में क्रोध का प्रवेश करा कर श्राप दिलवाया था, अब मुनि लोमश की मति बदल दी। उनके हृदय में मेरे प्रति दया का भाव आ गया। उन्होने पश्चाताप किया कि हमने ग़लती से इतने दृढ़ निश्चयी सहनशील व्यक्ति को दंडित कर दिया। ( आदरणीय S S Shukla जी ने शील तत्व की विस्तृत विवेचना की है। भगवान राम के चरित्र का यह पक्ष सभी के लिए अनुकरणीय है। सहनशक्ति शील की जनक है) मुनि लोमश बहुत दुखी हुए और मुझे आदरपूर्वक वापस बुलाया। (ज्ञानी व्यक्ति ग़लती को सुधारने की चेष्टा करता है। ज़िद करके शब्दों से भी किसी को आहत नहीं करता।) पास बुला कर मुनि ने मेरे मन को शांत करने के लिए बहुत समझाया और मेरी राम भक्ति की प्रशंसा की। फिर उन्होने मुझे राम के बाल रूप का ध्यान करने को कहा। ध्यान करने की विधि भी समझाई और राममंत्र दिया। भुशुण्डिजी कहते हैं कि भगवान के बाल रूप का ध्यान मुझे बहुत आनन्दप्रद लगा। (यहॉं उल्लेखनीय है कि शिव भी उमाजी के साथ बालक राम का ही ध्यान करते हैं। "दशरथ अजिर बिहारी" ऑंगन में खेलने वाले बाल रूप राम। बात्सल्य रस अनुपम है। पूरे संसार के समस्त जीवों के बाल रूप में जो विशेष आकर्षण है, वह परमात्मा की ही छाया है।) अब यहॉं अति विशेष बात है। भुशुण्डिजी को इतना परेशान करने के बाद, यहॉं तक कि कौआ बना देने के बाद मुनि लोमश ने उन्हें रामकथा सुनाई। वह भी कुछ समय अपने पास रख कर पूरी पूरी तसल्ली करने के बाद। यकायक भावावेश में नहीं। रामकथा इतनी सस्ती चीज़ नहीं है। सुनाने के बाद गुरू अधिकार से कुछ हिदायतें भी दीं। (ध्यान करें कि प्रयाग के माघ मेले में एक महीने का संत समागम हुआ। वेदान्त की, तत्व की खूब चर्चा हुई। पर रामकथा नहीं हुई। जब मेला उखड़ गया,सब लोग चले गए ,तब भारद्वाज जी ने मुनि याज्ञवल्क्य जी के पैर पकड़ कर उनसे राम कथा का निवेदन किया। "रचि महेस निज मानस राखा" रचनाकार शिव ने भी रचना करके इसे अपने पास ही बहुत काल तक छुपा कर रखा। अपनी पत्नी को भी नहीं सुनाया। वह तो बहुत कठिन परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने के बाद उमाजी को अकेले में कैलाश पर्वत पर सुनाया। "पाइ सुसमय शिवा सन भाखा।") मुनि लोमश कहते हैं कि रामचरितमानस अत्यंत पवित्र रहस्यपूर्ण ग्रंथ है। इसमें कुछ गुप्त रहस्य भी हैं। इसका प्राकट्य योग्य व्यक्ति के ही सामने करना चाहिए। यकायक सब को बताने की चीज़ नहीं है। गुप्त बातें तो लिखी हुई होंगी नहीं। वह तो गुरू द्वारा ही शिष्य को बताई जाऐंगी। भुशुण्डिजी कहते हैं कि गरुड़जी ! जो गुप्त ज्ञान मुझे महर्षि लोमश से प्राप्त हुआ था वह मैने आपको सब विस्तार से सुना दिया। लोमश जी को यह कथा भगवान शिव से ही मिली थी। "संभु प्रसाद तात मैं पावा"। (इस कथा को हर किसी के सामने प्रगट करने की मनाही इस आशय से है कि अपनी विद्वता के घमंड में संसारी लोग इसके अर्थ का अनर्थ कर सकते हैं। और ग्रंथ का प्रभाव भी तभी होगा जब इसके एक एक शब्द को सम्पूर्ण श्रद्धा के साथ इस विश्वास से ग्रहण किया जाएगा कि यह भगवान शिव की रचना है किसी कवि की तुकबंदी नहीं है। इसके शब्द सीधे हृदय को छूते हैं। साधारण कविता की तरह गुदगुदाते नहीं। यूँ चौपाई को रटंत सुनाने वाले अनेक लोग हैं। उनकी भी भूमिका है। किंतु जिन्होंने रामसुखदासजी के मुख से मानस की कोई अर्धाली भी सुनी होगी, वे पहचान पाऐंगे कि मानस के शब्द हृदय के भीतर कैसे प्रवेश करते हैं। ) मुनि लोमश कह रहे हैं कि यह कथा जिनके हृदय में रामभक्ति की चाहना नहीं है उनको नहीं सुनानी चाहिए। ( वैसे जैसा व्यवहार में अभी तक देखने को मिला है, अनधिकारी व्यक्ति तो कथा में जाता ही नहीं है और व्यवहार निभाने लोक लाज से चला भी जाय तो भी कथा के गुप्त रहस्यों की ओर उसका ध्यान नहीं जाता। और अब तो देखने को मिलता है और अख़बारों में तो ज़रूर ही छपता है कि साईं मंदिर में रामकथा या भागवतजी का आयोजन फलॉं जगह हुआ। कथा तो बेइसर तभी हो गई जब साईं का नाम जुड़ गया। इस साईं आंदोलन में जितने भी धन लोलुप कथाकार या भजन वाले पहुँचते हैं उनका सख़्ती से बहिष्कार किया जाना चाहिए। राजनैतिक नीयत से बढ़ाए जा रहे साईं आंदोलन का विरोध तो करना ही चाहिए, अपने सनातन धर्म का प्रचार प्रसार भी होना चाहिए) भुशुण्डिजी कहते हैं कि उपयुक्त निर्देश देकर गुरू लोमश ने अपना हाथ मेरे सर पर रख कर आशीर्वाद दिया कि तेरे हृदय में हर अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति में राम भक्ति सदा बनी रहेगी"राम भगति अविरल उर तोरें"। इतना ही नहीं मुनि लोमश ने यह भी आशीर्वाद दिया कि भगवान राम भी तुझे प्रेम करें और तेरे चित्त में समस्त गुणों का वास भी हो और अभिमान भी न हो। उन्होने कहा कि जैसी तुम कल्पना करोगे तुम्हारा रूप वैसा ही हो जाएगा। शरीर को छोड़ना भी तुम्हारी इच्छा के आधीन होगा और तुम ज्ञान वैराग्य के भंडार हो जाओगे। (असली राम भक्त का यही प्राप्तव्य है) इसके बाद मुनि ने यह भी आशीर्वाद दिया कि जिस जगह तुम वास करोगे उसके एक योजन की परिधि में अविद्या नहीं व्यापेगी। यह भी बड़ी बात है। मतलब हुआ कि कोई प्राणी जो भी मिलेगा अविद्या रहित होगा। कपटी ठग नहीं होगा। यह तो बहुत बड़े विश्राम की बात है। कुसंग कभी मिलेगा ही नहीं तो फिसलने की संभावना भी समाप्त। *** अगली पंक्तियाँ:-- "काल कर्म गुन दोष सुभाऊ। कछु दुख तुम्हहिं न व्यापिहि काऊ।। राम रहस्य ललित बिधि नाना। गुप्त प्रगट इतिहास पुराना।। बिनु श्रम तुम्ह जानब सब सोऊ। नित नव नेह राम पद होऊ।। जो इच्छा करिहहु मन माहीं। हरि प्रसाद कछु दुर्लभ नाहीं।। सुनि मुनि आसिष सुनु मतिधीरा। ब्रह्मगिरा भइ गगन गँभीरा।। एवमस्तु तव बच मुनि ग्यानी। यह मम भगत कर्म मन वानी।। सुनि नभ गिरा हरष मोहि भयऊ। प्रेम मगन सब संसय गयऊ।। करि बिनती मुनि आयसु पाई। पद सरोज पुनि पुनि सिरु नाई।। हरष सहित एहिं आश्रम आयउँ। प्रभु प्रसाद दुर्लभ वर पायउँ।। इहॉं बसत मोहि सुनु खग ईसा। बीते कलप सात अरु बीसा।। करउँ सदा रघुपति गुन गाना। सादर सुनहिं बिहंग सुजाना।। जब जब अवधपुरीं रघुबीरा। धरहिं भगत हित मनुज सरीरा।। तब तब जाइ राम पुर रहऊँ। सिसु लीला बिलोकि सुख लहऊँ।। पुनि उर राखि राम सिसुरूपा। निज आश्रम आवउँ खगभूपा।। कथा सकल मैं तुम्हहिं सुनाई। काग देह जेहिं कारन पाई।। कहिउँ तात सब प्रस्न तुम्हारी। राम भगति महिमा अति भारी।। दोहा:- ताते यह तन मोहि प्रिय भयउ राम पद नेह। निज प्रभु दरसन पायउँ गए सकल संदेह।। भगति पच्छ हठि करि रहेउँ दीन्ह महारिषि साप, मुनि दुर्लभ बर पायउँ देखहु भजन प्रताप।। **** ऋषि लोमश भुशुण्डिजी पर आशीर्वाद की वर्षा किए जा रहे हैं। कह रहे हैं कि तुम्हें अब काल, कर्म, गुण, दोष और स्वभाव जनित दुख कभी नहीं व्यापेंगे। राम राज्य के प्रभाव का वर्णन करते हुए भुशुण्डिजी द्वारा ही कहा गया है:- "राम राज नभगेस सुनु सचराचर जग मॉंहिं। काल कर्म स्वभाव गुन कृत दुख काहुहि नाहिं।" लोमश जी के आशीर्वाद में शब्द "दोष" अधिक आया है। शेष चार वही हैं। सृष्टि रचना के कारक तत्व में दोष भी है। "जड़ चेतन गुण दोष मय विस्व कीन्ह करतार" इसका अर्थ हुआ कि जीवभाव में तो दोष भी रहेगा। अब भुशुण्डि जी में कोई दोष रहेगा ही नहीं तो वे अब जीवभाव में नहीं वल्कि आत्मभाव में ही रहेंगे। आत्मभाव में तो दुख है ही नहीं सुख ही सुख है क्यों कि यदि जीव आत्मभाव अर्थात रामतत्व के पास पहुँच गया तो वहॉं तो वह राम है :- " जो आनंद सिंधु सुखरासी। सीकर तें त्रैलोक्य सुपासी।। सो सुखधाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक विश्रामा।।" "राम रहस्य ललित बिधि नाना":- आध्यात्मिक ऊँचाई पर (कहते हैं) ऋतम्भरा बुद्धि प्रगट होती है। ऐसी बातें जो कहीं पढ़ी सुनी न हों, स्वत: ही हृदय में प्रगट होने लगती हैं। रहस्य खुलने लगते हैं जो आम आदमी की समझ और पकड़ के बाहर की बात है। ऋषि ने आशीर्वाद दिया कि तुम्हारे हृदय में भगवान के प्रति नित नया प्रेम प्रगट होगा। तुम जो भी इच्छा करोगे,रामकृपा से प्राप्त हो जाएगा। (यहॉं स्पष्ट होता है कि ज्ञानियों को जो सामर्थ्य आत्मज्ञान से आती है,भक्त को वह सामर्थ्य परमात्मा की कृपा से मिल जाती है। ) भक्ति कामनाओं को पूर्ण करने की सामर्थ्य दे देती है। इसलिए भक्त पूर्णकाम कहा जाता है। भुशुण्डिजी कहते हैं कि हे मतिधीर गरुड़जी ! उसी समय फिर आकाशवाणी हुई और भगवान ने मुनि लोमश के आशीर्वाद पर अपनी मुहर लगा दी कि यह मन,वाणी और कर्म से मेरा भक्त है। आपका आशीर्वाद सत्य होगा। यह आकाशवाणी सुनकर मेरा हृदय प्रेम से भर गया, मेरे समस्त संशय समाप्त हो गए,हृदय से अविद्या समाप्त हो गई। मैने मुनि लोमश के चरणों में बार बार प्रणाम् किया और प्रसन्न होकर इस आश्रम में आ गया। तब से सत्ताईस कल्प बीत चुके हैं,मैं यहीं निवास कर रहा हूँ। यहॉं मैं भगवान के गुणगान गाता रहता हूँ , ज्ञानवान पक्षी आकर नित्य सुनते हैं। प्रत्येक कल्प में जब त्रेता युग आता है,मैं अयोध्या में जाकर भगवान की शिशुलीला देखकर सुखी होता हूँ। फिर भगवान के सुन्दर बालरूप को हृदय में धारण करके वापस यहीं आ जाता हूँ। भुशुण्डिजी कह रहे हैं कि गरुड़जी ! मुझे अपना यह कौए का शरीर इसलिए प्रिय है कि इसी शरीर से मुझे भगवान की भक्ति प्राप्त हुई है और मुनि दुर्लभ वरदान भी मिला है। साक्षात परमात्मा का आशीर्वाद मिला है। * संकेत है कि दृढ़ता से लगे रहें तो कुछ भी अप्राप्य नहीं है। "Trust thyself and everything will vibrate like iron string" Emerson. |
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