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मानस मीमांसा- कहु खगेस अस कवन अभागी, खरी सेव सुरधेनुहिं त्यागी

मानस मीमांसा- कहु खगेस अस कवन अभागी, खरी सेव सुरधेनुहिं त्यागी कानपुरः 'हरि अनंत हरि कथा अनंता' की तर्ज पर प्रभु चरित का कोई आदि, अंत नहीं... त्रेता, द्वापर, सतयुग, कलयुग के कालचक्र में अध्यात्म के अनगिन पाठ के बीच प्रभु के कितने रंग, रूप, कितने अवतार, कितनी माया, कैसी-कैसी लीलाएं, और उन सबकी कोटि-कोटि व्याख्या.

गोसाईं जी का श्री रामचरित मानस हो या व्यास जी का महाभारत, कौन, किससे, कितना समुन्नत? सबपर मनीषियों की अपनी-अपनी दृष्टि, अपनी-अपनी टीका...

इसीलिए संत, महात्मन, महापुरूष ही नहीं आमजन भी इन कथाओं को काल-कालांतर से बहुविध प्रकार से कहते-सुनते आ रहे हैं. सच तो यह है कि प्रभुपाद के मर्यादा पुरूषोत्तम अवताररूप; श्री रामचंद्र भगवान के सुंदर चरित्र करोड़ों कल्पों में भी गाए नहीं जा सकते. तभी तो प्रभु के लीला-चरित्र के वर्णन के लिए साक्षात भगवान शिव और मां भवानी को माध्यम बनना पड़ा.

राम चरित पर अनगिन टीका और भाष उपलब्ध हैं. एक से बढ़कर एक प्रकांड विद्वानों की उद्भट व्याख्या. इतनी विविधता के बीच जो श्रेष्ठ हो वह आप तक पहुंचे यह 'जनता जनार्दन' का प्रयास है. इस क्रम में मानस मर्मज्ञ श्री रामवीर सिंह जी की टीका लगातार आप तक पहुंच रही है.

हमारा सौभाग्य है कि इस पथ पर हमें प्रभु के एक और अनन्य भक्त तथा श्री राम कथा के पारखी पंडित श्री दिनेश्वर मिश्र जी का साथ भी मिल गया है. श्री मिश्र की मानस पर गहरी पकड़ है. श्री राम कथा के उद्भट विद्वान पंडित राम किंकर उपाध्याय जी उनके प्रेरणास्रोत रहे हैं. श्री मिश्र की महानता है कि उन्होंने हमारे विनम्र निवेदन पर 'जनता जनार्दन' के पाठकों के लिए श्री राम कथा के भाष के साथ ही अध्यात्मरूपी सागर से कुछ बूंदे छलकाने पर सहमति जताई है. श्री दिनेश्वर मिश्र के सतसंग के अंश रूप में प्रस्तुत है, आज की कथाः

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प्रौढ़ भये मोहि पिता पढ़ावा।
समुझउँ सुनउँ गुनउँ नहिं भावा।
कहु खगेस अस कवन अभागी।
खरी सेव सुरधेनुहिं त्यागीँ।।

सगुण, निर्गुण एक समान, तत्त्व-चिंतन। मानस-विशिष्ट विश्लेषण, दुर्लभ। विगत विवेच्य, प्रवाहमान।
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ईश्वर के काल में दिखाई देते हुए भी "मास दिवस कर दिवस भा, मरम न जानइ कोइ" के अनुसार, गति के रुक जाने का अभिप्राय यह है कि, वस्तुतः काल ने भी बता दिया कि ये हमसे अतीत हैं, कालातीत हैं। अगर कहीं भगवान का जन्मदिन साल भर हो, तब शायद हम लोग न मना पावें, पर एक दिन है, तो मानो सुविधा मिल गयी. एक मास का दिन हो जाने का तात्पर्य यह है कि ईश्वर, वस्तुतः काल से परे है, पर काल से परे होते हुए भी वह काल की सीमा में आकर हमारे लिए सुलभ बन जाता है।

"मास दिवस कर दिवस भा” शब्द के द्वारा यह बता दिया गया कि भगवान का जन्म तो राम नवमी को हुआ, पर जब एक महीने का दिन हो गया तो उसका परिणाम यह हुआ कि अब जितनी भी तिथियाँ थीं वे सब पूरी की पूरी आ गयीं। दशमी, एकादशी, शुक्ल पक्ष, कृष्ण पक्ष सभी भगवान की जन्मतिथियाँ हो गयीं कि नहीं? इसका सरल-सा अर्थ यह है कि जो कालातीत है, वस्तुतः वही काल के भीतर दिखाई देता है। यही खेल काकभुसुंडिजी के साथ भी हुआ।

काकभुशुण्डिजी जी भी बड़े आग्रही स्वभाव के पक्षपाती थे। भगवान शंकर के शाप से उन्होंने हजारों जन्म ग्रहण किए और अंत में ब्राह्मण के रूप में जन्म हुआ। उन्होंने गरुणजी से अपनी आत्मकथा सुनाते हुए कहा कि, मेरे माता पिता ने मुझे पढ़ाने की बहुत चेष्टा की- यद्यपि मैं सुनता, समझता था, पर मुझे अच्छा नहीं लगता था। क्योंकि--
“कहु खगेस अस कवन अभागी। खरी सेव सुरधेनुहिं त्यागी।”

गरुणजी! ऐसा कौन अभागा ब्यक्ति होगा जो कामधेनु को छोड़कर गधी का सेवन करे? इसका अभिप्राय यह है कि उन्होंने विद्या के दो रूप दिए। इसमें एक विद्या तो कामधेनु की तरह है तथा दूसरी गधी की तरह। गधे पर अगर चंदन की लकड़ी लाद दिया जाय तो ढो देगा और कूड़ा-कर्कट लाद दिया जाय तो वह भी ढो देगा।

काकभुशुण्डिजी ने कहा कि इसी तरह बहुत से लोग शास्त्र का बोझ तो ढो रहे हैं, पर वस्तुतः शास्त्र का तात्पर्य क्या है, इसका उन्हें ज्ञान नहीं है। कामधेनु कहने का अभिप्राय है कि जैसे कामधेनु हमारी कामना को पूर्ण करती है, इसी प्रकार से-”सा विद्याया विमुक्तये”-विद्या वह है जो सिर पर भार न बन
जाय,अपितु भार हल्का कर दे।यही बात गोस्वामीजी ने रामायण के संदर्भ में
कही।उनसे जब पूछा गया कि आपने रामकथा विद्वानों के लिए लिखी है या,
साधारण जनता के लिए?उन्होंने कहा कि यह तो दोनों के लिए है--
“बुध बिश्राम सकल जनरंजनि।राम कथा कलि कलुष विभंजनि।”
यह साधारण जनता का मनोरंजन करती है तथा विद्वानों को इसके द्वारा विश्राम
प्राप्त होता है।
‘बुध-विश्राम’का अर्थ है कि विद्वान लोग शास्त्रों का बोझ ढोते ढोते थके रहते हैं
और जब वे भगवान राम की कथा पढ़ते अथवा सुनते हैं,तब उनका बोझ हल्का
हो जाता है तथा थकान मिट जाती है।थकान मिटाने का एक बहुत बढ़िया उपाय
उन्होंने बालकांड में बताया कि कवि जब सरस्वतीजी को बुलाता है,तो उसे एक
सावधानी भी अवश्य रखनी चाहिए।क्या?तो कहा कि यदि आप किसी को निमंत्रण
देकर घर में बुलावें और उससे आपको कोई काम भी लेना हो,और उसके आते ही उस
की बिना थकान मिटाये,कोई काम सौंप दें,तो अच्छा नहीं होगा।अतः गोस्वामीजी कवियों
को सावधान करते हुए कहते हैं--कविजी!जब आप कविता करेंगे,तो सरस्वतीजी को
निमंत्रण अवश्य देंगे,क्योंकि कविता तो तभी बनेगी जब माँ सरस्वती की कृपा होगी।
उन्होंने कहा कि कवि जब बुलाता है तो--
“भगत हेतु बिधि भवन बिहाई।सुमिरत सारद आवन धाई।”
सरस्वती उनकी पुकार सुनकर दौड़ी चली आती हैं।इसलिए उनकी थकान मिटाने
के लिए,आपलोग पहला काम यह कीजिए कि उनको, भगवान के चरित्र के सरोवर
में स्नान करा दीजिए,तो वे प्रसन्न हो जाएँगी।तो विद्या तथा कविता की सार्थकता
तो इसमें है कि वह हमें ईश्वर से जोड़ती है या नहीं।
भुसुंडिजी ने आत्मकथा सुनाते हुए कहा कि मैंने इस शिक्षा को प्राप्त नहीं किया।
फिर संयोग वश माता पिता की मृत्यु के बाद,मैं घर के बंधन से मुक्त होकर जंगलों
में मुनियों के आश्रमों में सत्संग हेतु जाने लगा।मुनियों की समस्या यह थी कि वे
बड़े पक्षपाती तथा आग्रही स्वभाव वाले होते थे।बहुधा लोग यह प्रश्न करते हैं कि,
अलग अलग ग्रंथों में आचार्यों ने परस्पर एक दूसरे का खंडन किया है।क्या यह
उचित है?इस संदर्भ में मैं यही कहूँगा कि खंडन न करना भी ठीक है,पर जिनकी
प्रकृति में पक्षपात है,उनके द्वारा खंडन किए जाने का भी कुछ अर्थ होता है। जैसे-
प्रतिपादन कि एक शैली तो यह है कि आपके सामने यह प्रतिपादित किया जाय
कि यह भी ठीक है,और वह भी ठीक है।प्रतिपादन की दूसरी शैली यह है कि केवल
एक ठीक है बाकी सब गलत है। अब जो ब्यक्ति यह कह रहा है कि सब ठीक है,
उसकी बात सुन्दर लगने के बाद भी सुनने वाला कभी-कभी चक्कर में पड़ जाता है
कि जब सब ठीक है तो फिर हमें क्या करना चाहिए?जैसा,भाई राजनाथजी के
“सीता-परित्याग”के विवेचन में हुआ।
भगवान कृष्ण से अर्जुन ने गीता में अनुरोध किया--महाराज!आपने तो कर्मयोग,
ज्ञानयोग सभी को ठीक बता दिया,और उसका परिणाम यह हुआ कि आपकी
मिली जुली बातें सुनकर मेरी बुद्धि भ्रम में पड़ गयी--
“ब्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।”
और तब अर्जुन भगवान से प्रार्थना करता है कि आप कृपा करके यह बताइए कि मेरे
लिए क्या ठीक है,मुझे क्या करना है?भगवान ने कहा कि बस,तुम तो एक ही कार्य
करो कि--
“सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज।”(यही बात, श्रीकुसुमाकर त्रिपाठीजी ने
“सीता-परित्याग”के प्रकरण को मार्मिक बताने के बाद, अंत में कहा।वे प्रणम्य हैं।)
मानो खंडन करने के पीछे भी यही उद्देश्य है कि जब लोग यह सुनते हैं कि बस यही
ठीक है,तो उन्हें उसे पकड़ने या ग्रहण करने में सुबिधा हो जाती है।पर कई लोग ऐसे
भी होते हैं कि जिनमें बिचार की बड़ी निष्पक्षता होती है।उनके मन में स्वभाव से ही
पक्षपात नहीं होता और जब एक निष्पक्ष ब्यक्ति बोलेगा तो यही कहेगा कि सब ठीक
है।पर जब एक पक्षी(पक्षपाती)बोलेगा तो यही कहेगा कि बस यही ठीक है।
भुसुंडिजी पुराने पक्षी(पक्षपाती)थे।अयोध्या में अकाल पड़ा,तो उज्जैन(महाकाल शिव
की नगरी) में आ गये और भगवान बिष्णु से किनारा करते हुए,गुरु से शिव मंत्र की
दीक्षा ली।और जब गुरु ने शिव पूजा को,भगवान विष्णु की पूजा के बिना अपूर्ण बताया
तो गुरु के प्रति अश्रद्धा का प्रदर्शन यह सोचकर किया कि--
“हर को हरि-सेवक गुरु कहेऊ।”
और गुरु का अपमान किया,और जिस शंकरजी की अंध-श्रद्धा में ऐसा किया,उन्हीं
शंकरजी ने उन्हें श्राप देते हुए कह दिया कि तू अजगर हो जा।लेकिन अंत में यह
पक्षपात का स्वभाव बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ।
इसका अभिप्राय यह है कि आप पक्षपात का भी सदुपयोग कर सकते हैं,और
निष्पक्षता का भी।किन्तु किस रूप में दोनों का उपयोग करें,मुख्य प्रश्न यह है?
पक्षपात का अर्थ अगर यह हो कि हम अपने लिए क्या स्वीकार करें तो यह
उपयोगी है।पर जब पक्षपात दूसरों पर लादने के लिए होगा तो वह अनुपयोगी
सिद्ध होगा।जैसे मिठाई पसंद है तो स्वयं खायें,किन्तु बलात् दुसरों के मुँह में न ठूसें।
भुसुंडिजी ने बिगत जन्म में पक्षपात का बुरा रूप देखा था,पर अन्तिम जन्म में जब
उन्हें ब्राह्मण का शरीर मिला तो पक्षपाती तो वे ज्यों-के-त्यों रहे,पर अब निन्दा वे
किसी की नहीं करते हैं।यही उनके रस-ग्रहण की पद्धति है।यही सबके लिए उपयोगी
भी है।
भुसुंडिजी को जो भी महात्मा मिलते थे सबके सब बेदान्ती तथा बिचारक थे।जिससे वे
पूछते कि ईश्वर कहाँ मिलेगा?तो वे कहते थे कि--
“ईश्वर सर्व-भूतमय अहई।”
ईश्वर तो सर्वब्यापक है।गरुणजी ने पूछा-आपको कैसा लगता था?तो भुसुंडिजी ने
कहा-भाई क्या बतायें-
“निर्गुण मत मम हृदय न आवा।”
बुद्धि से तो बात समझ में आती थी,लेकिन मेरा हृदय निर्गुण निराकार को स्वीकार
नहीं करता था।और इस प्रकार मैं भ्रमण करते करते सुमेरु पर्वत पर चला गया।वहाँ
देखा,बटबृक्ष की छाया में मुनि लोमस बैठे हुए हैं---
“मेरु सिखर बट छाया मुनि लोमस आसीन।”
उस महात्मा को देखकर मुझे लगा कि इस महात्मा में ज्ञान और भक्ति दोनों विद्यमान
है।सुमेरु के सर्वोच्च शिखर,यानी ज्ञान,और बटबृक्ष की छाया यानी विश्वास की
छाया,अर्थात भक्ति का समादर।और वहाँ जाकर कहा--
“सगुन ब्रह्म आराधन मोहि कहहु भगवान।”
लोमशजी थे तो दोनों के विज्ञ,किन्तु उनके मन में ज्ञान के प्रति तीब्र आग्रह था,अतः
थोड़ी देर तक सगुण साकार भक्ति के वर्णन के बाद बोले कि सगुण ब्रह्म की आराधना
तो केवल, मध्यम श्रेणी के साधकों के लिए है,लेकिन मैं चाहता हूँ कि तुम्हें सत्य के
दर्शन कराऊँ,और अंत में उन्होंने भी कहा जिस ईश्वर को तुम खोज रहे हो,वह तो तुमसे
अभिन्न है--
“सो मैं ताहि तोहि नहिं भेदा।वारि बीचि इव गावहिं बेदा।”
समुद्र और तरंग में जैसे कोई भेद नहीं है वैसे ही जीव तथा ब्रह्म में कोई भेद नहीं है।
जैसे सर्राफ की दुकान में आप गहना माँगने जायँ और दुकानदार कहे कि सोने का
कंकण ले लीजिए,वह भी तो सोना है,तो उपयोगिता की दृष्टि से यह अटपटा लगेगा।
ठीक यही बात भुसुंडिजी के संदर्भ में कही जा सकती है कि वे तो गये थे,सगुण साकार
का हार माँगने,पर लोमशजी देने लगे निर्गुण निराकार का सोना।भुसुंडिजी ने कहा कि
महाराज,औरों को यह समझाना,किन्तु मैं तो चाहता हूँ--
“राम भगति जल मम मन मीना।किमि बिलगाइ मुनीस प्रवीना।”
सगुण साकार भक्ति जल है और उसमें मेरा मन मछली है,तो बताइए कि वह उससे
कैसे बिलग हो?लोमशजी को क्रोध आ गया कि मैंने इतनी बढ़िया बात कही,पर
उसे छोड़कर यह हठ कर रहा है कि मुझे भक्ति का उपदेश दीजिए।और क्रोध आने
पर उन्होंने श्राप दे दिया।
यद्यपि पक्षपात तो लोमश और भुसुंडि दोनों के मन में था किन्तु अन्तर यही था कि
काकभुसुंडिजी अपने लिए पक्षपाती थे और लोमश में बलात् लादने वाली बात थी।यद्यपि
लोमश के मन में कोई दुर्भावना नहीं थी,वह चाहते थे कि वह ऊँची से ऊँची वस्तु पा ले,फिर भी लादने वाली बात तो मानी ही जायेगी।इसलिए संशयालु समझकर श्राप दे दिए,
कि जा तू कौआ हो जा--
“मूढ़ परम सिख देउँ न मानसि।उत्तर प्रति उत्तर बहु आनसि।
सत्य बचन विस्वास न करहीं।वायस इव सबहीं ते डरहीं।।
सठ स्वपक्ष तव हृदय विसाला।सपदि होहु पक्षी चंडाला।”
और काकभुसुंडि कौआ हो गये।उन्होंने कहा गरुण!भजन की महिमा सामने आ गयी।क्योंकि मैंने तो भक्ति का पक्ष लिया और क्रोध में महर्षि ने उन्हें श्राप भी दे
दिया,लेकिन श्राप का फल क्या हुआ?बोले--
“भगति पक्ष हठ करि रहेउँ दीन्हि महारिषि साप।
मुनि दुर्लभ बर पाएउँ ---------------------------।
श्राप भी मेरे लिए बरदान बन गया।अगर वे सीधे सीधे मुझे  मनुष्य के रूप में भक्ति
का बरदान दे देते तो भी मेरा उतना कल्याण नहीं होता जितना कौए के रूप में हुआ।कौआ बनकर, जब बिना कोई उलाहना दिये,भुसुंडिजी उड़ कर चुपचाप जाने
लगे,तो लोमशजी के मन में पश्चात्ताप हुआ,क्योंकि वह आवेश तो क्षणिक था।निष्पक्ष
से निष्पक्ष ब्यक्ति के जीवन में भी कभी कभी आग्रह का अतिरेक दिखाई देता है।
भुसुंडिजी ने तो बिचार किया कि लगता है हमारे प्रभु ही मेरी परीक्षा लेने के लिए ऐसा
नाटक करवा रहे होंगे।नहीं तो भला लोमशजी ऐसा कर सकते थे क्या?और पश्चात्ताप
के पश्चात लोमशजी ने भुसुंडिजी को बुलाकर बोले,अब मैं तुम्हें भगवान राम की कथा
सुनाता हूँ।
भुसुंडिजी ने कहा-गरुण! कितना बढ़िया हुआ कि मैं कौआ बन गया।क्योंकि ब्राह्मण
बनकर जाता तो सबसे पहले राजमहल में द्वारपाल से अनुमति लेनी पड़ती,इसके बाद
कौशल्याजी से अनुरोध करना पड़ता कि जरा अपने बालक को दिखा दीजिए।किन्तु
कौआ तो सीधे उड़कर भीतर पहुँच जाता है,मानो मेरी सारी बाधायें समाप्त हो गयीं।
सगुण साकार से खेलने का इतना आनंद भला कैसे मिलता।
हमारे पुराणों में कहा गया है कि भगवान अवतार लेकर ग्यारह या तेरह हजार वर्ष
तक लीला करते हैं।गरुणजी ने पूछ लिया-महाराज!आपकी आयु कितनी है?उन्होंने
कहा गरुण!--
“इहाँ बसत मोहि सुनु खग ईशा।बीते कलप सात अरु बीसा।”
सत्ताइस कल्प से मैं यहीं रह रहा हूँ।सचमुच बड़ी बिचित्र सी बात है कि भगवान तो
कुल ग्यारह हजार वर्ष तक लीला करते हैं और उस लीला-रस का आस्वादन करने
वाला रह रहा है सत्ताइस कल्प तक।गरुणजी ने पूछा-महाराज क्या आप शरीर नहीं
छोड़ना चाहते?भुसुंडिजी ने कहा-बिल्कुल नहीं।
रामायण में दो महान पात्र हैं,एक तो गीधराज दसरे काकभुसुंडिजी।इनमें एक तो देह
छोड़ने के लिए ब्यग्र है,दूसरा देह को पकड़े रहने के लिए।
गीधराज ने कहा -”प्रभु!भले मेरा पक्ष कट गया हो,अब जब आपने मेरा पक्ष ले लिया
अतः अब जीवन की कोई सार्थकता नहीं है।
एक भक्त से पूछा गया--जीना अच्छा या मरना अच्छा?भक्त ने उत्तर देते हुए कहा--
“जिऐ तो हरि हित ही जिऐ मरै तो हरि हित लागि।”
मृत्य की सार्थकता को गीधराज के चरित्र में देखिए और जीवन की सार्थकता देखनी
हो तो,भुसंडिजी से पूछिए,जिन्होंने कहा कि--
“तन बिनु बेद भजन नहिं बरना।”
गरुण!अगर शरीर ही नहीं रहेगा तो फिर भजन कैसे होगा?
भगवान का प्रत्येक कल्प में एक बार अवतार और कागभुसुंडिजी की आयु सत्ताइस
कल्प का अर्थ है कि भगवान यद्यपि अनादि और अनंत हैं पर सीमा में आकर जो
अभिब्यक्ति वे करते हैं,उसे आप कितनी ही बार देख सकते हैं।कल्प को आप इस
कल्प की दृष्टि से मत देखिए।
क्रमशः --
सभी को दीपोत्सव की अनंत शुभकामनायें।


भरि लोचन बिलोकि अवधेसा।
तब सुनिहउँ निर्गुन उपदेसा।।
उत्तरकांड,मानस,काकभुसुंडि-लोमश-संवाद।
तत्वबोधक,सहज-प्रेमोपाख्यान,वरेण्य
-------------------------------------
भगवत्प्रेमियों ने “भरि लोचन”शब्द का प्रयोग मानस में बार-बार किया है---
‘भरि लोचन’ छवि सिंधु निहारी।कुसमय जानि न कीन्हिं चिन्हारी।।
^^^^^
देखहिं हम सो रूप ‘भरि लोचन’।कृपा करहु प्रनतारति मोचन।।
^^^^^
‘भरि लोचन’बिलोकि अवधेसा।तब सुनिहउँ निर्गुन उपदेसा।।
इस “भरि”शब्द का प्रयोग इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि बहुधा हमारी दृष्टि भी बँटी
हुयी होती है।कुछ भगवान के लिए,कुछ संसार के लिए।किन्तु प्रभु-दर्शन की
समग्र सार्थकता तो तब है जब देखने के लिए और कुछ भी शेष नहीं रह जाए।
रहीम ने इस “भरि”शब्द की ब्याख्या के लिए एक अनोखा दृष्टांत चुना--
प्रीतम छवि नैनन बसी,पर छवि कहाँ समाय।
भरी सराय रहीम लखि,आप पथिक फिरि जाय।।
इस भाव की पराकाष्ठा “कबीर”की वाणी में प्रकट होती है,जिसमें कहा गया है
कि”अब तो काजल की रेखा लगाने के लिए भी नेत्रों में स्थान खाली नहीं है”।
उनका भी कथन यही था-
कबिरा काजर रेखहूँ,अब तो दई न जाय।
नैनन प्रीतम रमि रहा,दूजा कहाँ समाय।।
यूँ तो बात बड़ी अटपटी-सी लगती है कि सौन्दर्य कोई स्थूल वस्तु तो है नहीं कि
उसके धारण कर लेने पर एक पतली काजल की रेखा भी न लगाई जा सके।
पर यह सूत्र प्रेमियों का समझने योग्य है।
जब हम नेत्र में काजल लगाते हैं,तो उसके दो ही उद्देश्य हो सकते हैं,एक तो
सौन्दर्य-बृद्धि और दूसरा दृष्टि का विकास।किन्तु जिन्हें भगवत्साक्षात्कार हो
चुका है,उनके जीवन में ए दोनों अपेक्षाएँ शेष नहीं रह जातीं।आँखों को सुन्दर
बनाकर वह किसे रिझाना चाहेगा?जब उस अब्यक्त ईश्वर का ही दर्शन हो चुका
तो अब स्थूल आँखों की ज्योति को बढ़ाने की लालसा भी क्यों होगी?उनको
जो देखना था,देख लिया और उस समय तो उसकी वही भाषा होगी,जिसका
प्रयोग जनकपुर के दूत महाराज दशरथ के समक्ष प्रयोग करते दिखाई देते
हैं।
महाराज दशरथ ने दूतों से प्रश्न किया था,”क्या तुमने अपनी आँखों से मेरे
बालकों को भली प्रकार देखा है?प्रश्न का तात्पर्य था कि “देखना”और
“अपनी आँखों से देखना”इनमें बड़ा अन्तर है।अपनी आँखों से “भली प्रकार
देखना”यह तो सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि है।उनका वाक्य था--
भैया कहहु कुसल दोउ बारे।तुम्हँ नीकें निज नयन निहारे।।
दूत भी विदेह नगर से आए हुए थे,जहाँ भक्ति-रूपा श्रीकिशोरीजी का प्राकट्य
हुआ था।उन्होंने एक वाक्य में ही महाराज दशरथ के प्रश्नों का सार्थक उत्तर दे
दिया--”महाराज!आपके पुत्रों के देखने के पश्चात्,अब तो दिखाई देना ही बन्द
हो गया”----
देव देखि तव बालक दोऊ।अब न आँखि तर आवत कोऊ।।
ऐसी दिब्य स्थिति तो किसी बिरले सौभाग्यशाली के जीवन में ही दृष्टिगोचर होती
है,जिसके लिए भुसुंडिजी आज की दिब्य मानस पंक्तियों में महर्षि लोमश से आग्रह
कर रहे हैं।और उनका हठाग्रह भी एक प्रकार से उत्तमोत्तम ही था।
काकभुसुंडिजी को ईश्वर की सर्वब्यापकता का सिद्धान्त प्रिय नहीं था।उनका ईश्वर
तो महाराज दशरथ के प्रांगण में क्रीड़ा करने वाला बालक था--
इष्टदेव मम बालक रामा।सोभा बपुष कोटि सत कामा।।
इसलिए महर्षि लोमश के द्वारा वेदान्त का उपदेश दिये जाने पर उन्होंने यही कहा
कि”एक बार मैं अपने इष्ट देव की छवि,’भरि लोचन’निहार लूँ,उसके पश्चात् यदि
मुझे अभाव की अनुभूति हुई तो वेदान्त का यह उपदेश,जो अभी आपने दिया,उसे
सुनने की चेष्टा करूँगा,जैसा शीर्षक पंक्ति में उल्लिखित है।
वस्तुतः यह तो टालने वाली बात थी।इसका तात्पर्य भी ‘भरि लोचन’शब्द में सांकेतिक रूप में दिया हुआ है।रिक्त स्थान में ही तो कोई वस्तु रखी जा सकती
है।जब नेत्रों में रिक्तता होगी ही नहीं,तो उस निर्गुण उपदेश को मैं धारण भी कहाँ
करूँगा?सर्वब्यापकता के सिद्धान्त के प्रति अरुचि का मनोवैज्ञानिक कारण भी
उनके अंतःकरण में विद्यमान था।सर्वब्यापकता भले ही तात्त्विक,बुद्धिग्राह्य सत्य
हो,किन्तु हृदय उसे स्वीकार नहीं कर पाता।हृदय में रसानुभूति तो पक्षपात की
भावना से प्रेरित होती है।इसलिए बुद्धि की प्रशंसा यद्यपि अनाग्रह में है--
“बुद्धेः फलमनाग्रहः”--किन्तु हृदय में तो आग्रह होता ही है।इस आग्रह से ही
निष्ठा और रसानुभूति का जन्म होता है।इसलिए भक्तिशास्त्र में पक्षपात की
निन्दा न करके उसकी प्रशंसा की गयी है।स्वयं भगवान श्रीराम,भक्त के स्वरूप
की ब्याख्या करते हुए यही घोषित करते हैं--
भगति पच्छ हठ नहिं सठताई।
उनका आदेश तो मात्र इतना ही है कि साधक का पक्षपात,दुष्टता का रूप न ग्रहण
कर ले।अर्थात् जैसे दुष्ट ब्यक्ति दूसरों को कष्ट पहुँचाकर प्रसन्न होता है,इसी तरह
यदि कोई अपनी भक्ति-निष्ठा प्रदर्शित करने के लिए दूसरे के इष्टदेवों की निन्दा
करके, दूसरों को पीड़ा पहुँचाकर प्रसन्न होता है,तो यह पक्षपात, दुष्टता के रूप में परिणत माना जायेगा। इसलिए काकभुसुंडिजी ने स्पष्ट शब्दों में यह स्वीकार किया
कि उन्हें जो उपलब्धि हुई है, वह तो भक्ति के प्रति दृढ़ पक्षपात से ही हुई है।
वे यही कहते हैं कि “महर्षि लोमश ने इसी हठ के कारण ही, मुझे ऐसा शाप दिया,
जो अनोखे वरदान के रूप में परिणत हो गया और जो महामुनियों के लिए भी
दुर्लभ है, ऐसा वरदान मुझे प्राप्त हो गया---
भगति पच्छ हठ करि रहेउँ दीन्हि महारिषि साप।
मुनि दुर्लभ बर पायउँ , देखहु भजन प्रताप।।
आज इतना ही, शेष क्रमशः--
नमन सबहिं।
वोट दें

क्या आप कोरोना संकट में केंद्र व राज्य सरकारों की कोशिशों से संतुष्ट हैं?

हां
नहीं
बताना मुश्किल