Saturday, 20 April 2024  |   जनता जनार्दन को बुकमार्क बनाएं
आपका स्वागत [लॉग इन ] / [पंजीकरण]   
 

नित्य मानस चर्चाः अथ रुद्राष्टकम्- तुषाराद्रिसंकाशगौरं गभीरं

नित्य मानस चर्चाः अथ रुद्राष्टकम्- तुषाराद्रिसंकाशगौरं गभीरं नई दिल्लीः पुलिस सेवा से जुड़े रहे प्रख्यात मानस मर्मज्ञ श्री राम वीर सिंह उत्तर कांड की लगातार सप्रसंग व्याख्या कर रहे थे. राम वीर जी अपने नाम के ही अनुरुप राम कथा के मानद विद्वान हैं. श्री राम चर्चा समूह में अलग-अलग समय पर मानस विद्वान प्रभु राम कथा पर टीका करने का भार उठाते रहे हैं.

आज के व्याख्याकार पंडित शशिपाल शर्मा जी हैं. यह चर्चा उत्तर कांड में श्री राम जी की लीला पर गरुड़ जी की शंका से जुड़ी हुई है, जिसका समाधान काग भुशुण्डि जी प्रभु कथा सुनाकर कर रहे हैं. इसीलिए इसे भुशुण्डि रामायण भी कहते हैं. संत और असंत है कौन? जीवन नैया से पार के उपाय हैं क्या? उन्हें पहचाने तो कैसे?

सद्गति के उपाय हैं क्या? मानस की इस चर्चा में एक समूचा काल खंड ही नहीं सृष्टि और सृजन का वह भाष भी जुड़ा है. जिससे हम आज भी अनु प्राणित होते हैं -भ्रातृ प्रेम, गुरू वंदन, सास- बहू का मान और अयोध्या का ऐश्वर्य, भक्ति-भाव, मोह और परम सत्ता का लीला रूप... सच तो यह है कि उत्तर कांड की 'भरत मिलाप' की कथा न केवल भ्रातृत्व प्रेम की अमर कथा है, बल्कि इसके आध्यात्मिक पहलू भी हैं.

ईश्वर किस रूप में हैं...साकार, निराकार, सगुण, निर्गुण...संत कौन भक्ति क्या अनेक पक्ष हैं इस तरह के तमाम प्रसंगों और जिज्ञासाओं के सभी पहलुओं की व्याख्या के साथ गोस्वामी तुलसीदास रचित राम चरित मानस के उत्तरकांड से संकलित कथाक्रम, उसकी व्याख्या के साथ जारी है.
****

*ॐ*

*रामचरितमानस*
*सप्तम सोपान*
-आगे की पंक्तियाँ

*अथ रुद्राष्टकम्*

*तुषाराद्रिसंकाशगौरं गभीरं मनोभूतकोटि प्रभाश्रीशरीरम्।*
*स्फुरन्मौलिकल्लोलिनी चारुगंगा लसद्भालबालेन्दुकण्ठे भुजंगा ।।३।।*

अनुवाद:
जो शीतल अद्रि(पर्वत)हिमाचल के समान गौरवर्ण व गम्भीर हैं, जिनके शरीर में करोड़ों कामदेवों की ज्योति एवं शोभा है, जिनके सिर पर सुंदर नदी गंगा जी विराजमान हैं, जिनके ललाट पर द्वितीया का चंद्रमा और  गले में सर्प सुशोभित है।

गौरवर्ण- प्रस्तुत पद्य में भगवान् चंद्रमौलि के शरीर का अद्भुत वर्णन है। ‛कर्पूरगौरं’ कहकर प्रायः शिव के शरीर को सुगंधमय कपूर के समान बताया जाता है। परंतु यहाँ जड़ कपूर के स्थान पर जिस शीतल अद्रि की चर्चा की जा रही है वह साक्षात् अद्रिजा(गौरी मैया पार्वती) से संबंधित है। वस्तुतः शिव के गौर शरीर का साकार होना गौरी पार्वती के साहचर्य से होता है। उनके बिना वे निराकार अथवा रौद्र रूप में ही देखे जाते है। पार्वती की स्तुति करते हुए आदि शंकराचार्य ने कहा है-
*शरीरं त्वं शम्भोः शशिमिहिरवक्षोरुहयुगम्*

(हे भगवती ... आप कल्याणमयी हो तभी आप शिव का शरीर बन गई | उस शरीर में वक्ष:स्थल के दोनों ओर सूर्य और चंद्रमा विराजमान हैं।)
*गभीर* - गभीर अथवा गंभीर संस्कृत में ये दोनों शब्द पर्यायवाची हैं। चंचल शब्द का यह विलोम है। दुर्बोध और दुर्गम्य भी इसके अर्थ हैं। अतः जब ये मौन हो जाते हैं तो कौन जान सकता है कि इनके मन में क्या है। सती मैया के बार-बार पूछने पर भी नहीं बताते,  ‛कीन्ह कवन पन’। श्रीविष्णुसहस्रनाम में भी परमात्मा के ये नाम आए हैं-
      ‛गुह्यो गभीरो गहनः’  
समुद्र की गंभीरता में भी शांति का निवास होता है। शूद्रभक्त के गुरुवर उसी शांति और गंभीरता की स्तुति करते हुए भगवान के क्रोध के शमन की प्रार्थना कर रहे हैं।

*मनोभूतकोटिप्रभाश्रीशरीरम्* - मनोभूत अर्थात मनोज/कामदेव को देवताओं में सबसे अधिक सुंदर माना जाता है। वह जिस परमात्मा की सृष्टि है वे परमात्मा शिव ऐसे करोड़ों कामदेवों से अधिक शोभाधारी शरीर से संयुक्त हैं। परंतु जहाँ कामदेव का कार्य लोगों को मोहग्रस्त करना है वहीं इनके ध्यान से समस्त मोह आदि विकार शांत हो जाते हैं। अतः इनका साक्षात्कार श्रीशरीर का साक्षात्कार है जो श्रेय की ओर ले जाता है न कि पतन की ओर।

*स्फुरन्मौलिकल्लोलिनी चारुगंगा*

विपत्ति के समय लोककल्याण के लिए कंठ में हलाहल विष को धारण करने वाले शिव ने लोगों के निरंतर कल्याण के लिए गंगा को केवल भगीरथ की तपस्या सफल करने के लिए ही धारण नहीं किया था, अपितु विष्णुजी के वामन अवतार के दाएँ पैर के अंगूठे से जन्म लेने वाली गंगा के प्रति उनका स्वयं का भी भक्तिपूर्ण आकर्षण था। अतः गंगा से अपने सिर की शोभा का लोभ भला भोले बाबा कैसे छोड़ देते। गंगा की स्तुति करते हुए तो गंगालहरी में कवि जगन्नाथ ने कहा-
*स्खलन्ती स्वर्लोकादवनितलशोकापहृतये*
*जटाजूटग्रन्थौ यदसि विनिबद्धा पुरभिदा ।*
*अये निर्लोभानामपि मनसि लोभं जनयताम्*
*गुणानामेवायं तव जननि दोषः परिणतः॥१४॥*
(माँ! शोकग्रस्तों को तारने के लिए आपके स्वयं को अपने दिव्यलोक से पत्तन करती हुई को निर्लोभी शिव ने भी अपनी जटाजूट ग्रंथियों में आबद्ध करके मानो स्वयं में लोभ का दोष आरोपित करके भी आपकी महिमा को निरूपित किया।)

भगवान की इस लोक कल्याण की भावना का स्मरण दिलाकर भी गुरुदेव अपने शूद्र शिष्य को पावन करवाना चाहते हैं।

*लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजंगा*
भगवान् शिव के मस्तक पर सुशोभित नन्हा सा चंद्रमा भी उनकी शरणागतवत्सलता का सूचक है।(शिव पुराण की कथा के अनुसार चंद्रमा की 27 पत्नियाँ दक्ष की पुत्रियाँ थीं। किंतु इनमें से केवल रोहिणी से चंद्रमा का विशेष प्रेम था। अन्य पुत्रियों की शिकायत पर दक्ष ने चंद्रमा को समझाया भी किंतु ,चंद्रमा के व्यवहार में सुधार नहीं आया। तब दक्ष ने उसे क्षय रोग होने का शाप दिया। शिव की शरण में जाने पर उसे शुक्ल और कृष्ण पक्ष में क्रमशः घटने व बढ़ने की शक्ति प्राप्त होने से न केवल जीवनदान मिल गया अपितु शिव के मस्तक पर आभूषण बनने का सौभाग्य भी मिला। अन्य दृष्टि से देखें तो सतीपति/सतीश होने से शिव और चंद्रमा परस्पर साढ़ू हैं। किसी साढ़ू द्वारा अपने साढ़ू पर प्रेम और कृपा का यह अनुपम उदाहरण है।) अस्तु, क्षय रोग से ग्रस्त प्रतिदिन क्षीण होने वाले चंद्रमा को न केवल शरण देना अपितु मस्तक पर भी धारण कर लेना अनुपम उदारता का परिचय देता है। ऐसी उदारता जिसमें हो उसकी शोभा का समुद्र तो परम विशाल होगा ही-

*जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन नलिन बिसाल।*
*नीलकंठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल॥* 106-बालकांड॥

 दीनों पर ऐसी दया करने वाले शिव से, गुरुदेव को अपने और अपने शिष्य के उद्धार की प्रबल आशा स्वाभाविक है।

*कंठे भुजंगा* - शिव के कंठ में मुख्य रूप से कश्यपवंशी शेषनाग वासुकि को स्थान मिला है। वासुकि शिव के परम भक्त थे। समुद्र मंथन में मंदराचल को लपेटने वाली रस्सी का काम भी वासुकि ने ही किया था।

वासुकी पौराणिक धर्म ग्रंथों और हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार प्रसिद्ध नागराज थे। इनका जन्म कश्यप के औरस के रूप में कद्रू के गर्भ से हुआ माना गया है। वासुकी नागों के दूसरे राजा थे, जिनका इलाका कैलाश पर्वत के आस-पास का क्षेत्र था। पुराणों के अनुसार वासुकी नाग अत्यंत विशाल और लंबे शरीर वाले माने जाते हैं।  वासुकी को देवताओं ने 'नागधन्वातीर्थ' में नागराज के पद पर बैठाया था। त्रिपुरदाह के समय ये शिव के धनुष की डोर बने थे।

वैसे दुष्ट व्यक्ति की तुलना भी साँप से की जाती है। इधर थोड़ी देर पहले स्वयं भगवान ने ‛बैठि रहेसि अजगर इव पापी’ कहकर शूद्रभक्त की तुलना महासर्प से की है। महाभुजंग को शरण देने वाले भोलेनाथ इस भुजंग सरीखे शिष्य पर भी कृपालु हों, स्तुति का यह आशय भी स्पष्ट है।*

आगे की पंक्तियाँ --

*चलत्कुण्डलं भ्रूसुनेत्रं विशालं*
*प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् ।*
*मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं*
*प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ।।४।।*

अनुवाद:
उनके कानों में कुण्डल हिल रहे हैं, सुंदर भृकुटि व विशाल नेत्र हैं, जो प्रसन्नमुख, नीलकंठ व दयालु हैं, सिंहचर्म धारण किये व मुंडमाल पहने हैं, उनके सबके प्यारे, उन सब के नाथ श्री शंकर को मैं भजता हूँ।

*चलत्कुण्डलं* भगवान शिव के कानों के कुंडल चलायमान हैं। इन कुंडलों के चलायमान होने का कारण है यह है कि ये सर्पों से बने हुए हैं। भक्तों की पुकार शिव के मणियुक्त कुंडलों को भी चलायमान करती है। काशी में जहाँ शिवकुंडल की एक मणि गिरी थी वहीं आज मणिकर्णिका घाट है। कुंडलों को धारण करके शिव षोड़श संस्कारों के महत्त्व को भी प्रतिष्ठित कर रहे हैं। (षोड़श संस्कारों में से एक कर्णवेध संस्कार है। साथ ही शैव, शाक्त और नाथ संप्रदाय में दीक्षा के समय कान छिदवाकर उसमें मुद्रा या कुंडल धारण करने की प्रथा है। कर्ण छिदवाने से कई प्रकार के लाभ प्राप्त होते हैं। इंद्रियों पर नियंत्रण और बलवृद्धि इनमें प्रमुख हैं।)

*भ्रूसुनेत्रं विशालं* परमात्मा शिव की भृकुटी/भौंह व सुंदर नेत्र विशाल हैं, न केवल आकार की दृष्टि से अपितु प्रभाव की दृष्टि से भी। *भृकुटी विलास सृष्टि लय होई।* ऐसा भृकुटी का महान प्रभाव है। जबकि अग्नि, सूर्य और चंद्रमा के रूप में शिव के तीनों नेत्र समस्त जगत को पवित्र करते हैं। इन तीन नेत्रों के प्रतीक तीन तीर्थ स्थान धरती पर विद्यमान हैं-
शोण/चंबल नदी - अग्नितीर्थ
गंगा- सूर्य तीर्थ
यमुना- चंद्रतीर्थ
शिव के तीन नेत्रों का ध्यान करने से इन तीन तीर्थों में अनघ(अघ/पाप रहित करने वाले)स्नान का पुण्य तत्काल प्राप्त होता है। इसी संदर्भ को प्रमाणित करता है सौंदर्यलहरी का निम्न श्लोक-
*पवित्रीकर्तुं नः पशुपति-पराधीन-हृदये*
*दयामित्रैर्नेत्रैररुण-धवल-श्याम-रुचिभिः*
*नदः शोणो गंगा तपनतनयेति ध्रुवममुम्‌*
*त्रयाणां तीर्थानामुपनयसि सम्भेदमनघम्‌ ॥५३॥*   
(तात्पर्य यह है कि इंद्रियो के वश में रहने वाला मन पशु के समान व्यवहार करते हुए पशुपति के अधीन होने से पशुपति के द्वारा दंडयोग्य हो जाता है। तब करुणा पूरित ये तीन नेत्र ही उसे पवित्र और पापरहित बनाते हैं।)
इसीलिए शूद्र बालक के मेधावी गुरु ने इन दयामित्र नेत्रों की शरण ली है।
*प्रसन्नाननं* गुरुवर ने यहाँ शिव के प्रसन्न आनन/मुखमंडल को स्मरण किया है। यह प्रसन्नता कहाँ से आती है ? इसका उत्तर श्रीमद्भगवद्गीता के निम्नलिखित दो श्लोकों में है-
*रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।*
*आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति।।2.64।।*
(वशीभूत अन्तःकरणवाला कर्मयोगी साधक रागद्वेषसे रहित अपने वशमें की हुई इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंका सेवन करता हुआ अन्तःकरणकी प्रसन्नताको प्राप्त हो जाता है। प्रसन्नता प्राप्त होनेपर साधकके सम्पूर्ण दुःखोंका नाश हो जाता है और ऐसे प्रसन्नचित्तवाले साधककी बुद्धि निःसन्देह बहुत जल्दी परमात्मामें स्थिर हो जाती है।)
*प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।*
*प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।।2.65।।*
(प्रसाद के होने पर सम्पूर्ण दुखों का अन्त हो जाता है और प्रसन्नचित्त पुरुष की बुद्धि ही शीघ्र ही स्थिर हो जाती है।।)
यह स्थिति एक ऐसे साधक की है जो प्रयत्नपूर्वक राग-द्वेष से विमुक्ति की सिद्धि प्राप्त कर लेता है। परमात्मा तो निरंतर राग-द्वेष से विमुक्त आनंदमय स्थिति में रहते हैं। अतः उनके आनन पर शाश्वत रूप से प्रसन्नता का निवास है। उनसे जुड़ने पर जीवात्मा की प्रसन्नता वैसे ही स्वाभाविक है जैसे पॉवर हाउस से जुड़ी झोपड़ी में भी प्रकाश का आ जाना।
*नीलकंठं दयालं* जगत् की विपत्ति को दूर करने के लिए दया से भरपूर शिव ने हलाहल विष का पान कर लिया। यह दया की पराकाष्ठा है। पुष्पदन्ताचार्य ने शिवमहिम्नःस्तोत्रम् में इसी दया का वर्णन किया है-
*अकाण्ड-ब्रह्माण्ड-क्षयचकित-देवासुरकृपा-*
*विधेयस्याऽऽसीद् यस्त्रिनयनविषं संहृतवतः।*
*स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो*
*विकारोऽपि श्लाघ्यो भुवन-भय-भङ्ग-व्यसनिनः।।14।।*
[(देवताओं एव असुरों ने अमृत प्राप्ति हेतु समुंद्र मंथन किया। समुद्र से अनेक मूल्यवान वस्तुएं प्राप्त हुईं जो देव तथा दानवों ने आपस में बांट लिया। पर जब समुंद्र से अत्यधिक भयावह कालकूट विष प्रगट हुआ तो) असमय ही सृष्टि समाप्त होने का भय उत्पन्न हो गया। और सभी भयभीत हो गए। हे तीन नेत्र वाले हर! तब आपने संसार रक्षार्थ विषपान कर लिया। वह विष आपके कंठ में निष्क्रिय होकर पड़ा है। विष के प्रभाव से त्रिलोकी के भय का भंग करने के व्यसन वाले महादेव वह विकार भी आपके कंठ की शोभा बढ़ाने वाला होकर प्रशंसनीय हो गया।
हे नीलकंठ! आश्चर्य है कि यह विकार भी आपकी शोभा ही बढ़ाती है। कल्याण का कार्य सुन्दर ही होता है।]
इस श्लोक के माध्यम से संदेश यह भी है कि व्यसन हो तो उपकार करने जैसा, न कि विनाश के पथ पर ले जाने वाला। अस्तु, शिव के इस परम उपकारी स्वरूप को स्मरण करके भी उपकारी गुरुदेव अपने शिष्य का भी परम कल्याण चाहते हैं।
*मृगाधीशचर्माम्बरं*
भगवान शिव शेर की खाल क्यों पहनते हैं।  शिव पुराण में भगवान शिव और शेर से संबंधित एक कथा दर्ज है। इस पौराणिक कथा के अनुसार भगवान शिव एक बार ब्रह्मांड का गमन करते-करते एक जंगल में पहुंचे जो कि कई ऋषि-मुनियों का स्थान था। यहां वे ऋषि-मुनि अपने परिवार समेत रहते थे। भगवान शिव इस जंगल से पूरे तन को ढके बिना गुजर रहे थे, वे इस बात से अनजान थे कि उन्होंने वस्त्र-विशेष धारण नहीं कर रखे।  शिवजी का सुडौल शरीर देख ऋषि-मुनियों की पत्नियां उनकी ओर आकर्षित होने लगी। वह धीरे-धीरे सभी कार्यों को छोड़ केवल शिवजी पर ध्यान देने लगीं। तत्पश्चात जब ऋषियों को यह ज्ञात हुआ कि शिवजी के कारण (जिन्हें ऋषि एक साधारण मनुष्य मान रहे थे) उनकी पत्नियां मार्ग से भटक रही हैं तो वे बेहद क्रोधित हुए। सभी ऋषियों ने शिवजी को सबक सिखाने के लिए एक योजना बनाई। उन्होंने शिवजी के मार्ग में एक बड़ा गड्ढा बना दिया, मार्ग से गुजरते हुए शिवजी उसमें गिर गए। जैसे ही ऋषियों ने देखा कि शिवजी उनकी चाल में फंस गए हैं, उन्होंने उस गड्ढे में एक शेर को भी गिरा दिया, ताकि वह शिवजी को मारकर खा जाए। लेकिन आगे जो हुआ उसे देख सभी चकित रह गए। शिवजी ने स्वयं उस शेर को मार डाला और उसकी खाल को पहन गड्ढे से बाहर आ गए। तब सभी ऋषि-मुनियों को यह आभास हुआ कि ये कोई साधारण मनुष्य नहीं हैं। इस पौराणिक कहानी को आधार मानते हुए यह बताया जाता है कि क्यों शिवजी शेर की खाल पहनते हैं या फिर उस खाल के ऊपर विराजमान होते हैं।
बाघांबर धारण करने में यह भाव भी है कि सर्वाधिक हिंसक पशु को उन्होंने दंड देकर अपने हिंसा से दूर रहने वाले भक्तों को अभय दान दिया है। इसी प्रसंग में शिव के बाघांबरधारी स्वरूप की एक अत्यंत सुंदर व गाने योग्य स्तुति प्राप्त हुई है। आशा है पढ़कर आप भी आनंदित होंगे-
 
-शिव स्तवन-
-दोहा-
नमौ पिनाकी धूर्जटी, खर्पराशि खट्वांग।
कापालिक दिग वसन धर, पियै गरल अर भांग॥1
मेघ घटा शंकर जटा, तडित छटा जनु गंग।
नाचै नटराजम प्रभु, गरजन जाण मृदंग॥2
शंकर अभयंकर सुखद, प्रलयंकर परमेश।
गिरजावर कैलासघर, हिमगिरि रहण हमेश॥3
अन्य धर्म-अध्यात्म लेख
वोट दें

क्या आप कोरोना संकट में केंद्र व राज्य सरकारों की कोशिशों से संतुष्ट हैं?

हां
नहीं
बताना मुश्किल