हर युग के अपने धर्मः तुलसी सठ की को सुनै, कलि कुचालि पर प्रीति

हर युग के अपने धर्मः तुलसी सठ की को सुनै, कलि कुचालि पर प्रीति कानपुरः 'हरि अनंत हरि कथा अनंता' की तर्ज पर प्रभु चरित का कोई आदि, अंत नहीं... त्रेता, द्वापर, सतयुग, कलयुग के कालचक्र में अध्यात्म के अनगिन पाठ के बीच प्रभु के कितने रंग, रूप, कितने अवतार, कितनी माया, कैसी-कैसी लीलाएं, और उन सबकी कोटि-कोटि व्याख्या.

गोसाईं जी का श्री रामचरित मानस हो या व्यास जी का महाभारत, कौन, किससे, कितना समुन्नत? सबपर मनीषियों की अपनी-अपनी दृष्टि, अपनी-अपनी टीका...

इसीलिए संत, महात्मन, महापुरूष ही नहीं आमजन भी इन कथाओं को काल-कालांतर से बहुविध प्रकार से कहते-सुनते आ रहे हैं. सच तो यह है कि प्रभुपाद के मर्यादा पुरूषोत्तम अवताररूप; श्री रामचंद्र भगवान के सुंदर चरित्र करोड़ों कल्पों में भी गाए नहीं जा सकते. तभी तो प्रभु के लीला-चरित्र के वर्णन के लिए साक्षात भगवान शिव और मां भवानी को माध्यम बनना पड़ा.

राम चरित पर अनगिन टीका और भाष उपलब्ध हैं. एक से बढ़कर एक प्रकांड विद्वानों की उद्भट व्याख्या. इतनी विविधता के बीच जो श्रेष्ठ हो वह आप तक पहुंचे यह 'जनता जनार्दन' का प्रयास है. इस क्रम में मानस मर्मज्ञ श्री रामवीर सिंह जी की टीका लगातार आप तक पहुंच रही है.

हमारा सौभाग्य है कि इस पथ पर हमें प्रभु के एक और अनन्य भक्त तथा श्री राम कथा के पारखी पंडित श्री दिनेश्वर मिश्र जी का साथ भी मिल गया है. श्री मिश्र की मानस पर गहरी पकड़ है. श्री राम कथा के उद्भट विद्वान पंडित राम किंकर उपाध्याय जी उनके प्रेरणास्रोत रहे हैं. श्री मिश्र की महानता है कि उन्होंने हमारे विनम्र निवेदन पर 'जनता जनार्दन' के पाठकों के लिए श्री राम कथा के भाष के साथ ही अध्यात्मरूपी सागर से कुछ बूंदे छलकाने पर सहमति जताई है. श्री दिनेश्वर मिश्र के सतसंग के अंश रूप में प्रस्तुत है, आज की कथाः

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रामायण सिख अनुहरत, जग भयो भारत रीति।
तुलसी सठ की को सुनै, कलि कुचालि पर प्रीति।।

उत्तरकांड, कलियुग व्याख्या पर सद्भाव-विशेष, वरेण्य
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द्वापर युग में पग-पग में परिलक्षित होने वाली अंतरद्वंद की बृत्ति का त्रेतायग में अभाव था। हमारे मानस सचेतक श्री आर.बी.सिंह जी की अभीप्सानुसार इस प्रकरण पर चर्चा होती रहनी चाहिए। उनके निर्देश के अनुपालन में यह भाव प्रस्तुत है।

द्वापर युग का व्यक्ति किंकर्तव्यविमूढ़ है। वह अनिश्चय की ऐसी स्थिति में पहुँच चुका है कि जटिल से जटिल  परिस्थितियों में भी वह औचित्य का निर्णय नहीं ले पाता। इसका सर्वाधिक दुखद दृष्टांत था -द्रोपदी का चीरहरण, जिस सभा में भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य जैसे महापुरुष विद्यमान हों, वहाँ इतना बड़ा अन्याय हो पाना तो अभूतपूर्व था ही, किन्तु द्रोपदी द्वारा प्रश्न किए जाने पर भी पितामह भीष्म जैसे धर्मज्ञ, जब निर्णय देने में असमर्थता प्रगट करते हैं, तब इस युग की किंकर्तव्यविमूढ़ता का इससे बड़ा दृष्टांत क्या हो सकता है?

भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, अश्वत्थामा जैसे व्यक्ति कौरवों के कार्य को अन्यायपूर्ण समझते हुए भी, युद्ध में उसका साथ देते हैं। क्योंकि उनकी दृष्टि में यह स्वधर्म था। प्रचलित रूढ़ियों और परम्पराओं से हटकर शास्त्र और विवेक के द्वारा धर्म के सच्चे स्वरूप के निर्णय का साहस, इनमें किसी में भी नहीं था। इसलिए गीता के स्वधर्म शब्द से आज भी ऐसे अर्थ निकाले जाते हैं, जो धर्म को सर्वथा उपहासास्पद बना देते हैं।

इस प्रकार यदि प्रत्येक व्यक्ति अपने कार्यों को स्वधर्म सिद्ध करने का प्रयास करे, तब फिर अधर्म शब्द की आवश्यकता ही क्या है? क्योंकि गीता में युद्ध समर्थन के लिए धर्म शब्द का प्रयोग किया गया है। अतः ऐसे लोगों को जो सर्वदा स्वार्थ के समर्थन में युक्तियों की खोज में रहा करते हैं, बड़ा बल प्राप्त होता है। वे सोचते हैं कि यदि हिंसा जैसे कठोर कर्म भी स्वधर्म के नाते श्रेयस्कर हैं, तब उनके द्वारा किया जाने वाला कोई भी कार्य, धर्म के विरुद्ध कैसे सिद्ध हो सकता है?

इसी प्रवृत्ति पर व्यंग्य करते हुए, गोस्वामीजी ने दोहावली रामायण में लिखा-

रामायण सिख अनुहरत, जग भयो भारत रीति।
तुलसी सठ की को सुनै, कलि कुचालि पर प्रीति।।

अर्थात्- रामायण की शिक्षाओं का अनुकरण छोड़ कर लोग महाभारत की रीति का अनुगमन करना चाहते हैं, मुझ जैसे मूर्ख की बात कौन सुने? क्योंकि कलियुग में लोगों की कुचालि पर सहज प्रीति है।

यह पंक्तियाँ गोस्वामीजी की महाभारत के प्रति अनास्था की परिचायक नहीं हैं, यह तो महाभारत के अर्थ को लेकर धर्म के विषय में उत्पन्न होने वाली भ्रान्ति की सूचक हैं। रामचरितमानस में स्वधर्म की व्याख्या के ऐसे अनेक दृष्टांत हैं, जिनमें इस प्रकार की भ्रान्ति का कोई स्थान नहीं है। क्षात्र धर्म के प्रसंग में यहाँ भी युद्ध का उल्लेख प्राप्त होता है--

देव दनुज भूपति भर नाना।
समबल अधिक होउ बलवाना।।
जौं रन हमहिं पचारै कोऊ।
लरहिं सुखेन काल किन होऊ।।
क्षत्रिय तनु धरि समर सकाना।
कुल कलंकु तेहि पाँवर जाना।।
कहउँ सुभाउ न कुलहिं प्रसंसी।
कालहु डरहिं न रन रघुबंसी।।

क्षात्र धर्म की इस व्याख्या में, सबसे बड़ा सन्तुलन यही है कि स्वयं क्षात्र धर्म की व्याख्या करते हुए भी श्रीराम, परशुराम से युद्ध करने के लिए प्रस्तुत नहीं हैं। यद्यपि परशुराम उन्हें युद्ध के लिए चुनौती दे रहे थे-

करि परितोषु मोर संग्रामा।
नाहिं त छाँड़ि कहाउब रामा।।
छल तजि करिअ समर सिव द्रोही।
बंधु सहित न त मारहुँ तोहीं।।

ऐसी उत्तेजनापूर्ण चुनौती के बाद भी भगवान राम शान्त रहे। क्योंकि क्षात्र धर्म का अर्थ वे युद्ध के लिए व्यग्रता नहीं मानते। इसलिए क्षात्र धर्म की इस व्याख्या के साथ एक पंक्ति और जोड़कर भगवान राम ने क्षात्र धर्म को संतुलित अर्थ प्रदान किया। वह पंक्ति है--

विप्र वंस की अस प्रभुताई।
अभय होइ जो तुम्हहिं डेराई।।

निर्भयता, क्षत्रिय का गुण है। यह तो सर्वत्र प्रतिपादित किया गया है। महाभारत में तो अनगिनत बार ऐसा लिखा गया है। किन्तु भगवान राम का यह वाक्य सर्वथा अनुपम है, जब वे क्षात्र धर्म के साथ भय का लक्षण और जोड़ देते हैं। वे कहते हैं कि ब्राह्मण वंश की यह अद्भुत महिमा है कि जो आप लोगों से डरता है, वह अभय हो जाता है। अभय के साथ साथ जीवन में सत्पुरुषों से भय मानना, यही सच्चा क्षात्र धर्म है।

इस प्रसंग में भीष्म का स्मरण आना स्वाभाविक है। उनके समक्ष भी परशुराम थे। भगवान राम और परशुराम के विवाद का कोई औचित्य नहीं था। किन्तु भीष्म के समक्ष परशुराम एक उचित प्रश्न लेकर गये थे।

भीष्म ने काशिराज की तीन कन्याओं का राजसभा से अपहरण किया था। यह अपहरण भी मात्र अहं की तुष्टि के लिए था। वे राजाओं के समक्षअपना पौरुष प्रदर्शित करने के लिए इस प्रकार का कार्य करते हैं। स्वयं के विवाह न करने के लिए कृतसंकल्प थे। अपहृत कन्याओं में से दो का विवाह उन्होंने अपने दोनों भाइयों से कर दिया। एक अवशिष्ट कन्या, महाराज शाल्व के प्रति आसक्त थी।

भीष्म ने उसे शाल्व के पास जाने की आज्ञा प्रदान कर दी, पर इस प्रकार से अपहृत कन्या क़ो शाल्व न स्वीकार करने में असमर्थता प्रगट कर दी। वहाँ से निराश होकर कन्या ने पुनः भीष्म को उलाहना दिया। भीष्म के लिए यह उचित था कि वे उस कन्या का विवाह अपने भाइयों में से किसी से कर देते, क्योंकि
इस परिस्थिति के लिए वे ही जिम्मेदार थे। किन्तु उन्होंने कन्या की इस याचना को अस्वीकार कर दिया। अपमानित कन्या ने परशुराम की शरण ली। परशुराम भीष्म से यह आग्रह करने के लिए पधारे, किन्तु भीष्म ने उनकी आज्ञा को भी अस्वीकार कर दिया।

परशुराम उनके गुरु थे और वे एक उचित पक्ष लेकर वे उनके पास आए थे। फिर उन्होंने  तेईस दिनों तक परशुराम से घोर युद्ध किया। अन्त में दोनों से शस्त्र त्याग का अनुरोध किए जाने पर, भीष्म इस हठ पर अड़े रह कि क्षात्र धर्म के नाते, वे पहले अस्त्र का परित्याग नहीं कर सकते। अन्त में परशुराम को ही पहले अस्त्र का परित्याग करना पड़ा।

भीष्म के क्षात्र धर्म और भगवान राम के क्षात्र धर्म में यही सबसे बड़ा अन्तर है कि भगवान राम जहाँ सत्पुरुषों से सदा हार मानने के लिए प्रस्तुत हैं, वहाँ भीष्म इसके लिए प्रस्तुत नहीं हैं।

आज की मानस पंक्ति में शुद्रों के जप, तप की ओर आकृष्ट होने के मूल में “पर धर्म” के प्रति आसक्ति के बड़े मनोवैज्ञानिक कारण हैं। बहुधा यह देखा जाता है कि जब कोई व्यक्ति किसी कर्म में संलग्न होता है, तब वह व्यक्ति कर्म के गुण और दोषों को अत्यधिक निकटता से देख पाता है। जैसे अत्यधिक परिचय से व्यक्ति महापुरुषों की भी अवज्ञा करने लग जाता है, ठीक उसी प्रकार कभी-कभी व्यक्ति अत्यधिक निकटता के कारण “स्वधर्म” में आकर्षण खो बैठता है। दूसरी ओर अन्य ल़ोगों क़ो दूर से देखने के कारण ही उनके धर्म अथवा कार्यों में विशिष्टता की अनुभूति होती है। "पर धर्म" के प्रति यह आकर्षण यथार्थ न होकर बहुधा कल्पना से उत्पन्न होता है।

अतः समाज की सुव्यवस्था व व्यक्ति की आत्म तुष्टि के लिए भी, यह आवश्यक है कि व्यक्ति के अंतःकरण में “स्वधर्म” के प्रति आकर्षण उत्पन्न हो।

भगवान राम, परशुराम द्वारा चुनौती दिये जाने पर भी युद्ध के लिए या “क्षात्रधर्म” के अपने स्वधर्म को स्थापित करने के लिए प्रस्तुत नहीं होते क्योंकि वह परशुराम को “स्वधर्म” में स्थित देखना चाहते हैं। इसलिए परशुराम को वे बार बार मुनि या विप्र के रूप में संबोधित करते हैं। परन्तु परशुराम को यह संबोधन प्रिय नहीं लगता

वे क्रुद्ध हो जाते हैं--”

मैं जस विप्र सुनावहुँ तोहीं।।

ब्राह्मण के रूप में संबोधित करने पर उन्हें ऐसा लगता है कि ब्राह्मणत्व का यह सम्मान, जाति के आधार पर कोई भी ब्राह्मण पा सकता है। अंततः भगवान राम अपने विनय और शील के माध्यम से परशुराम को स्वधर्म में स्थापित कर देते हैं, जिसका ही प्रस्फुटन हमें द्वापर में शिष्य भीष्म के साथ उनके युद्ध के अंत में दृष्टिगत होता है।

आज बस यहीं तक--

शुभ दिन। नमन सबहिं।
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